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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 162 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यत्ते॒ गात्रा॑द॒ग्निना॑ प॒च्यमा॑नाद॒भि शूलं॒ निह॑तस्याव॒धाव॑ति। मा तद्भूम्या॒मा श्रि॑ष॒न्मा तृणे॑षु दे॒वेभ्य॒स्तदु॒शद्भ्यो॑ रा॒तम॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । गात्रा॑त् । अ॒ग्निना॑ । प॒च्यमा॑नात् । अ॒भि । शूल॑म् । निऽह॑तस्य । अ॒व॒ऽधाव॑ति । मा । तत् । भूम्या॑म् । आ । श्रि॒ष॒त् । मा । तृणे॑षु । दे॒वेभ्यः॑ । तत् । उ॒शत्ऽभ्यः॑ । रा॒तम् । अ॒स्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलं निहतस्यावधावति। मा तद्भूम्यामा श्रिषन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भ्यो रातमस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। गात्रात्। अग्निना। पच्यमानात्। अभि। शूलम्। निऽहतस्य। अवऽधावति। मा। तत्। भूम्याम्। आ। श्रिषत्। मा। तृणेषु। देवेभ्यः। तत्। उशत्ऽभ्यः। रातम्। अस्तु ॥ १.१६२.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन्निहतस्य ते तवाग्निना पच्यमानाद्गात्राद्यदभिशूलमवधावति तद्भूम्यां माऽऽश्रिषत्तत्तृणेषु माऽऽश्लिष्येत्किन्तूशद्भ्यो देवेभ्यो रातं स्याद्दत्तमस्तु ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (यत्) शस्त्रम् (ते) तव (गात्रात्) हस्तात् (अग्निना) क्रोधरूपेण (पच्यमानात्) (अभि) अभिलक्ष्य (शूलम्) शूलमिव पीडाकरं शत्रुम् (निहतस्य) नितरां चलितस्य (अवधावति) निपतति (मा) (तत्) (भूम्याम्) (आ) (श्रिषत्) श्लिष्येत्। अत्राडभावो वर्णव्यत्ययेन लस्य स्थाने रेफादेशश्च। (मा) (तृणेषु) तृणादिषु (देवेभ्यः) दिव्येभ्यः शत्रुभ्यः (तत्) (उशद्भ्यः) त्वत्पदार्थान् कामयमानेभ्यः (रातम्) दत्तम् (अस्तु) ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिर्बलिष्ठैः संग्रामे शस्त्रचालनावसरे विचारेणैव शस्त्रं प्रक्षेपणीयं येन क्रोधान्निर्गतं शस्त्रं भूभ्यादौ न निपतेत्किन्तु शत्रुष्वेव कृतकारि स्यादिति ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! (निहतस्य) निरन्तर चलायमान हुए (ते) तुम्हारे (अग्निना) क्रोधाग्नि से (पच्यमानात्) तपाये हुए (गात्रात्) हाथ से (यत्) जो शस्त्र (अभि, शूलम्) लखके शूल के समान पीड़ाकारक शत्रु के सम्मुख (अव, धावति) चलाया जाता है (तत्) वह (भूम्याम्) भूमि में (मा, आ, श्रिषत्) न गिरे वा लगे और वह (तृणेषु) घासादि में (मा) मत आश्रित हो किन्तु (उशद्भ्यः) आपके पदार्थों की चाहना करनेवाले (देवेभ्यः) दिव्य गुणी शत्रु के लिये (रातम्) दिया (अस्तु) हो ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    बलिष्ठ विद्वान् मनुष्यो को चाहिये कि संग्राम में शस्त्र चलाने के समय विचारपूर्वक ही शस्त्र चलावें, जिससे क्रोधपूर्वक चला शस्त्र भूमि आदि में न पड़े किन्तु शत्रुओं को ही मारनेवाला हो ॥ ११ ॥

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    विषय

    वीर्यरक्षण से रोग निवारण व दिव्यगुणों का विकास

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब सात्त्विक व ठीक परिपक्व भोजन खाया जाता है तब (अग्निना पच्यमानात्) = शरीर में वैश्वानर अग्नि से पकाये जाते हुए भोजन से उत्पन्न रुधिरादि धातुओं में से (शूलम् अभि) = रोगों का लक्ष्य करके, अर्थात् रोगों को दूर करने के उद्देश्य से निहतस्य निश्चय से प्राप्त कराये गये इस वीर्य का [इन = गतौ, गतिः = प्राप्तिः] यत्-जो अंश ते गात्रात् तेरे शरीर से अवधावति- दूर जाता है, तत्- वह भूम्याम् - बीज- वपन की आधारभूत स्त्री में मा= मत आश्रिषत् = आलिंगन करे, तृणेषु मातृणतुल्य, तुच्छ विषय- भोगों में तो वह न ही व्ययित (खर्च) हो । एक या अधिक-से-अधिक तीन सन्तानों के बाद यह सन्तानोत्पत्ति में भी व्ययित न हो, भोगविलास में उसके व्यय का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता। भोगविलास में इसका अपव्यय मनुष्य की सर्वमहान् मूर्खता है । तत् वह - अधिक सन्तानोत्पत्ति व भोगविलास में व्ययित न हुआ-हुआ वीर्य उशद्भ्यः = ( उश् = to shine) चमकते हुए देवेभ्यः - दिव्यगुणों के लिए रातम् - दिया हुआ अस्तु हो । यह सुरक्षित वीर्य शरीर में रोगों को उत्पन्न नहीं होने देता और मन में दिव्यगुणों की उत्पत्ति का कारण बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - भोजन से उत्पन्न वीर्य का अधिक सन्तानोत्पत्ति या विलास में व्यय करना मूर्खता है। इसे सुरक्षित रखने पर शरीर रोगाक्रान्त नहीं होते और हमारे मनों में दिव्यगुणों का विकास होता है।

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    विषय

    त्याग और तप के सत्फल का उपभोग राष्ट्र की भावि प्रजा को मिले (

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! हे शूरवीर ! अश्व सैन्य ! ( ते ) तेरे (अग्निना) क्रोधाग्नि द्वारा ( पच्यमानात् ) दग्ध होते हुए ( ते गात्रात् ) तेरे गात्र अर्थात् हाथ से ( शूलम् अभि ) पीड़ा देने वाले शत्रु को लक्ष्य करके ( निहतस्य ) मारे गये शस्त्रास्त्र का ( यत् ) जो भी आघातकारी बल है ( तत् ) वह ( भूम्याम् मा आश्रिषत् ) अपनी ही आश्रय रूप भूमि पर जाकर न गिरे, (तृणेषु) तृण अर्थात् तुच्छ, निर्बलों पर ( मा आश्रिषत् ) न गिरे, प्रत्युत ( उशद्भ्यः ) शस्त्रयुद्ध की कामना करने वाले ( देवेभ्यः ) विजयेच्छु शत्रुओं के लिये (रातम् अस्तु) उसका त्याग किया जाय । अथवा राष्ट्रपक्ष में—हे राष्ट्र ! ( शूलम् अभि निहतस्य ) शूल अर्थात् हल आदि द्वारा तोड़े फोड़े गये तेरे (अग्निना पच्यनात् गात्रात्) सूर्य और राजपुरुषों आदि से संतापित, प्रजा के देहों और खेतों से (यत् अवधावति) जो भाग भी अलग हो (तत् भूम्याम् मा आश्रित्) वह भूमि पर न पड़ा रह और ( मा तृणेषु ) वह तिनकों, घासों में भी न मिल जाय । प्रत्युत वह प्रिय ( उशद्भ्यः देवेभ्यः) अन्नादि के इच्छुक विद्वान् और विद्या और विजय के इच्छुक विद्यार्थियों और वीरों को प्राप्त हो। राष्ट्र का सब ओषधि अन्नादि जो भूमि से उत्पन्न हो वह पुरुषों और प्रजाओं को खाने के लिये मिले । ब्रह्मचर्य पक्ष में—देखो यजु० अ० २५ । ३४ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बलवान विद्वान माणसांनी लढाईत शस्त्र चालविताना त्यांनी विचारपूर्वकच शस्त्र चालवावे. ज्यामुळे क्रोधाने चालविलेले शस्त्र भूमीवर पडता कामा नये, तर शत्रूंनाच मारणारे असावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O nation on the march on the highway of progress, if from your personality-body subjected to the fire of discipline and self sacrifice, a cry of pain escape your lips or a tear flow down from the eye, let it not soil the holy ground of the motherland, nor let it be lost in the straw, but let it be a precious gift for the ambitious creators and leaders of vision to turn it into a clarion call or a beautiful pearl of divine grace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a learned person are defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned hero ! whatever weapon is used by your arms burnt with anger, when you are much perturbed,. let it not waste on earth of grass, but let it directly go to and attack your enemies. who desire to conquer you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the mighty warriors to use weapons thoughtfully at the time of battles, so that the arms may not fall on earth and go waste when used with anger, but may directly hit the foes.

    Foot Notes

    (अग्निना ) क्रोधरूपेण = By the fire of anger. (शूलं ) शूलम् इव पीडाकरं शूलम् = The enemy that causes pain. ( देवेभ्य: ) दिवोभ्य: शत्रुभ्य: = For the powerful foes who desire to conquer.

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