ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 18
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
चतु॑स्त्रिंशद्वा॒जिनो॑ दे॒वब॑न्धो॒र्वङ्क्री॒रश्व॑स्य॒ स्वधि॑ति॒: समे॑ति। अच्छि॑द्रा॒ गात्रा॑ व॒युना॑ कृणोत॒ परु॑ष्परुरनु॒घुष्या॒ वि श॑स्त ॥
स्वर सहित पद पाठचतुः॑ऽत्रिंशत् । वा॒जिनः॑ । दे॒वऽब॑न्धोः । वङ्क्रीः॑ । अश्व॑स्य । स्वऽधि॑तिः । सम् । ए॒ति॒ । अच्छि॑द्रा । गात्रा॑ । व॒युना॑ । कृ॒णो॒त॒ । परुः॑ऽपरुः । अ॒नु॒ऽघुष्य॑ । वि । श॒स्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चतुस्त्रिंशद्वाजिनो देवबन्धोर्वङ्क्रीरश्वस्य स्वधिति: समेति। अच्छिद्रा गात्रा वयुना कृणोत परुष्परुरनुघुष्या वि शस्त ॥
स्वर रहित पद पाठचतुःऽत्रिंशत्। वाजिनः। देवऽबन्धोः। वङ्क्रीः। अश्वस्य। स्वऽधितिः। सम्। एति। अच्छिद्रा। गात्रा। वयुना। कृणोत। परुःऽपरुः। अनुऽघुष्य। वि। शस्त ॥ १.१६२.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 18
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसो यूयं देवबन्धोर्वाजिनोऽश्वस्य या स्वधितिः समेति तां चतुस्त्रिंशद्वङ्क्रीश्च विशस्त परुष्परुरनुघुष्याऽच्छिद्रा मात्रा वयुना कृणोत ॥ १८ ॥
पदार्थः
(चतुस्त्रिंशत्) एतत्संख्याकाः (वाजिनः) वेगगुणवतो जलादयः (देवबन्धोः) प्रकाशमानानां पृथिव्यादीनां संबन्धिनः (वङ्क्रीः) कुटिला गतीः (अश्वस्य) शीघ्रगामिनोऽग्नेः (स्वधितिः) विद्युत् (सम्) (एति) गच्छति (अच्छिद्रा) द्विधाभावरहितानि (गात्रा) गात्राण्यङ्गानि (वयुना) प्रज्ञानानि कर्माणि वा (कृणोत) कुरुत (परुष्परुः) प्रति मर्म (अनुघुष्य) आनुकूल्येन शब्दयित्वा। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वि) (शस्त) ताडयत हिंस्त ॥ १८ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या यस्मात्कारणाद्विद्युदुत्पद्यते तत्सर्वेषु पृथिव्यादिषु व्याप्तमस्ति अतस्तडित्ताडनादिना कस्यचिदङ्गभङ्गो न भवेत्तावत्तां प्रयुञ्जीध्वं यद्यग्निगुणान् विदित्वा क्रियया संप्रयुञ्जते तर्हि किं कार्यमसाध्यं स्यात् ॥ १८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् जन ! तुम (देवबन्धोः) प्रकाशमान पृथिव्यादिकों के सम्बन्धी (वाजिनः) वेगवाले (अश्वस्य) शीघ्रगामी अग्नि की जो (स्वधितिः) बिजुली (समेति) अच्छे प्रकार जाती है उसको और (चतुस्त्रिंशत्) चौंतीस प्रकार की (वङ्क्रीः) टेढ़ी-बेढ़ी गतियों को (विशस्त) तड़काओ अर्थात् कलों को ताड़ना दे उन गतियों को निकालो। तथा (परुष्परुः) प्रत्येक मर्मस्थल पर (अनुघुष्य) अनुकूलता से कलायन्त्रों का शब्द कराकर (अच्छिद्रा) दो टूंक होने छिन्न-भिन्न होने से रहित (गात्रा) अङ्ग और (वयुना) उत्तम ज्ञान कर्मों को (कृणोत) करो ॥ १८ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस कारण से बिजुली उत्पन्न होती है, वह कारण सब पृथिव्यादिकों में व्याप्त है। इससे बिजुली की ताड़ना आदि से किसी का अङ्ग-भङ्ग न हो उतनी बिजुली काम में लाओ। जो अग्नि के गुणों को जानकर यथायोग्य क्रिया से उस अग्नि का प्रयोग किया जाय तो कौन काम न सिद्ध होने योग्य हों अर्थात् सभी यथेष्ट काम बनें ॥ १८ ॥
विषय
'विद्यार्थी', 'आचार्य' व 'ज्ञान'
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार आचार्य से ठीक अनुशासन में चलाया जाता हुआ विद्यार्थी (स्वधितिः) = अपना धारण करनेवाला बनता है- इधर उधर न भटककर मन को एकाग्र करने में समर्थ होता है। यह स्वधिति (वाजिनः) = शक्तिशाली (देवबन्धोः) = दिव्य गुणों को अपने में बाँधनेवाले तथा उस देव प्रभु के बन्धुभूत (अश्वस्य) = सदा क्रियाओं में व्याप्त रहनेवाले आचार्य के (चतुःस्त्रिंशत्) = चौंतीस (वङ्क्रीः) = गूढ़ ज्ञानों [knotty] को समेति प्राप्त होता है [वङ्क= गति = ज्ञान] । ऊपर मन्त्रसंख्या सोलह में इन्हें 'वासः' और 'अधीवास: ' शब्दों से स्मरण किया है। विद्यार्थी ज्ञान तभी प्राप्त कर पाता है जब वह 'स्वधिति' हो । आचार्य का आदर्श 'वाजी', 'देवबन्धु', व 'अश्व' होना है। ज्ञेय वस्तुएँ तेंतीस देव तथा चौंतीसवें महादेव हैं। इनका ज्ञान ही क्रमशः 'अभ्युदय व निःश्रेयस' का साधक है। आचार्य वयुना इन ज्ञेय पदार्थों के ज्ञान के द्वारा गात्रा विद्यार्थी के सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को (अच्छिद्रा) = दोषरहित (कृणोतु) = करे । ३. विद्यार्थी आचार्य से दिये हुए ज्ञान का (अनुघुष्य) = आचार्य के पश्चात् उच्चारण करके, उच्चारण द्वारा उस ज्ञान को आत्मसात् करके (परूः परू:) = एक-एक पर्व के, जोड़ के (विशस्त) = दोष का छेदन करे [छिन्न - द०] । विद्यार्थी आचार्य के अनुकूल होगा तो आचार्य विद्यार्थी के जीवन को निर्दोष बना पाएँगे।
भावार्थ
भावार्थ - विद्यार्थी एकाग्रवृत्तिवाला हो (स्वधितिः), आचार्य 'वाजी, देवबन्धु व अश्व हों। विद्यार्थी आचार्य से चौंतीस ज्ञानों को प्राप्त करने का प्रयत्न करे ।
विषय
अश्व देह की राष्ट्र देह से तुलना
भावार्थ
( १ ) अश्व के पक्ष में—( वाजिनः अश्वस्य चतुस्त्रिंशत् वङ्क्रीः ) वेगवान् अश्व की चौतीसों पीठ की पसुलियों को ( स्वधितिः ) शस्त्र ( समेति ) पहुंच सकता है । इसलिये हे वीर पुरुषो ! ( गात्रा अच्छिद्रा कृणोत ) उसके गात्रों को छिद्र अर्थात् कटने योग्य, निर्बल, निरावरण, मत रखो । (वयुना अच्छिद्रा कृणोत) सब कर्म क्रियाएं चालें, और पैंतरे भी दोषरहित करो । ( परुः परुः ) प्रत्येक पोरू पोरू को (अनुघुष्य) बार बार अभ्यास कर कर के ( विशस्त ) विविध प्रकार से शिक्षित करो । युद्धविद्या की प्रत्येक बात अच्छी प्रकार अभ्यस्त हो । ( २ ) राष्ट्रपति पक्ष में—समस्त राष्ट्र को अपने बल से धारण करने वाला वीर्यवान् पुरुष का शासन चक्र ( देवबन्धोः ) विद्वानों के बीच सुप्रबन्धक ( वाजिनः ) ऐश्वर्यवान, (अश्वस्य) व्यापक राष्ट्र के ( चतुस्त्रिंशत् वङ्क्रीः ) ३४ पसुलियों के समान चौतीसों विभागों को (सम् एति) अच्छी प्रकार सुसंगत करे । हे विद्वान् लोगो ! आप लोग ( गात्रा अच्छिद्रा कृणोत ) राष्ट्र के सब अंगों को छिद्र अर्थात् त्रुटि रहित रखो। और ( वयुना अच्छिद्रा कृणोत ) सब काम और सब ज्ञान दोषरहित त्रुटिरहित सम्पादन करो । (परुः परुः अनुघुष्य ) प्रत्येक विभाग का पुनः पुनः घोषणा करके ( वि शस्त ) राष्ट्र के अंगों को विभक्त करे । प्रजा को विविध विद्याओं में शिक्षित करो ( ३ ) इसी प्रकार अश्वादि सैन्य की चौतीसों वक्रगामी गतियों को, स्वयं अपने धारणाधिकार से प्राप्त करे। उनके अंग त्रुटिरहित हों अर्थात् उन टुकड़ियों की चालें पैंतरे त्रुटिरहित हों और उनके एक पौरु पौरु को आज्ञाओं द्वारा विविध प्रकार से विभक्त और शिक्षित किया जावे। सेना का एक भी अंग बिना नायक की आज्ञा के एक कदम भी न हिले ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! ज्या कारणामुळे विद्युत उत्पन्न होते ते कारण सर्व पृथ्वी इत्यादीमध्ये व्याप्त आहे, त्यामुळे विद्युतच्या मारामुळे एखाद्याचा अंगभंग होता कामा नये तितकी विद्युत कामात आणावी. अग्नीच्या गुणांना जाणून यथायोग्य क्रिया केल्यास कोणते कार्य सिद्ध होऊ शकत नाही? अर्थात् सर्व काम होते. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The innate energy of fire, electric, magnetic and of other forms, fastest form of energy co-existent with the forms and powers of nature such as earth, moves in waves in thirty four ways. Activate it part by part, proclaim the nature and character of each and realise the definite quality of its efficacy and application to parts of the material body with safety.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Tips for proper utilization of the energy are given.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! a trainer of the horses trains them thoroughly. Likewise you also develop powerful and complicated 34 types of machines of electricity and energy. You keep away all maladies as you all powerful like thunderbolt.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The lightning unties with thirty four waves of the powerful rays of the sun related to the Divine energies. In order to make the conducting paths flawless, and having thundered aloud, split every part of the sky. (2) The subtle cause of electricity pervades the earth and other elements. Therefore it should be used in such a way as not to cause harm to any one. What purpose can not be accomplished if the attributes of the fire in the form of electricity are known and utilized?
Foot Notes
(स्वधितिः) विद्युत् = Electricity ( वंकी: ) कुटिला गती: = Zigzag movements.
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