ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 15
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
मा त्वा॒ग्निर्ध्व॑नयीद्धू॒मग॑न्धि॒र्मोखा भ्राज॑न्त्य॒भि वि॑क्त॒ जघ्रि॑:। इ॒ष्टं वी॒तम॒भिगू॑र्तं॒ वष॑ट्कृतं॒ तं दे॒वास॒: प्रति॑ गृभ्ण॒न्त्यश्व॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । अ॒ग्निः । ध्व॒न॒यी॒त् । धू॒मऽग॑न्धिः । मा । उ॒खा । भ्राज॑न्ती । अ॒भि । वि॒क्त॒ । जघ्रिः॑ । इ॒ष्टम् । वी॒तम् । अ॒भिऽगू॑र्तम् । वष॑ट्ऽकृतम् । तम् । दे॒वासः॑ । प्रति॑ । गृ॒भ्ण॒न्ति॒ । अश्व॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वाग्निर्ध्वनयीद्धूमगन्धिर्मोखा भ्राजन्त्यभि विक्त जघ्रि:। इष्टं वीतमभिगूर्तं वषट्कृतं तं देवास: प्रति गृभ्णन्त्यश्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठमा। त्वा। अग्निः। ध्वनयीत्। धूमऽगन्धिः। मा। उखा। भ्राजन्ती। अभि। विक्त। जघ्रिः। इष्टम्। वीतम्। अभिऽगूर्तम्। वषट्ऽकृतम्। तम्। देवासः। प्रति। गृभ्णन्ति। अश्वम् ॥ १.१६२.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 15
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् यमिष्टं वषट्कृतं वीतमभिगूर्त्तमश्वं देवासस्त्वा प्रतिगृभ्णन्ति तं त्वं गृहाण स धूमगन्धिरग्निर्मा ध्वनयीत् भ्राजन्त्युखा जघ्रिर्माभिविक्त ॥ १५ ॥
पदार्थः
(मा) (त्वा) त्वाम् (अग्निः) पावकः (ध्वनयीत्) ध्वनयेत् शब्दयेत् (धूमगन्धिः) धूमे गन्धिर्गन्धो यस्य सः (मा) (उखा) पाकस्थाली (भ्राजन्ती) प्रकाशमाना (अभि) (विक्त) विञ्ज्यात् पृथक्कुर्यात् (जघ्रिः) जिघ्रन्ती (इष्टम्) येन इज्यते तम् (वीतम्) व्याप्तिशीलम् (अभिगूर्त्तम्) अभित उद्यमिनम् (वषट्कृतम्) क्रिययां निष्पादितम् (तम्) (देवासः) विद्वांसः (प्रति) (गृभ्णन्ति) ग्राहयन्ति। अत्र णिज्लोपः। (अश्वम्) अश्ववत् शीघ्रं गमयितारम् ॥ १५ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या अग्निनाऽश्वेन वा यानानि गमयन्ति ते श्रिया भ्राजन्ते येऽग्नौ सुगन्ध्यादिकं द्रव्यं जुह्वति ते रोगार्त्तशब्दैर्न पीडयन्ते ॥ १५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! जिस (इष्टम्) इष्ट अर्थात् जिससे यज्ञ वा सङ्ग किया जाता (वषट्कृतम्) जो क्रिया से सिद्ध किये हुए (वीतम्) व्याप्त होनेवाले (अभिगूर्त्तम्) सब ओर से उद्यमी (अश्वम्) घोड़े के समान शीघ्र पहुँचानेवाले बिजुलीरूप अग्नि को (देवासः) विद्वान् जन (त्वा) तुम्हें (प्रति, गृभ्णन्ति) प्रतीति से ग्रहण कराते हैं (तम्) उसको तुम ग्रहण करो, सो (धूमगन्धिः) धूम में गन्ध रखनेवाला (अग्निः) अग्नि (मा, ध्वनयीत्) मत् ध्वनि दे, मत बहुत शब्द दे और (भ्राजन्ती) प्रकाशमान (उखा) अन्न पकाने की बटलोई (जघ्रिः) अन्न गन्ध लेती हुई अर्थात् जिसके भीतर से भाफ उठ लौटके उसीमें जाती वह (मा, अभि, विक्त) मत अन्न को अपने में से सब ओर अलग करे, उगले ॥ १५ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य अग्नि वा घोड़े से रथों को चलाते हैं, वे लक्ष्मी से प्रकाशमान होते हैं। जो अग्नि में सुगन्धि आदि पदार्थों को होमते हैं, वे रोग और कष्ट के शब्दों से पीड्यमान नहीं होते हैं ॥ १५ ॥
विषय
कामाग्नि शमन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार अपने में दिव्यगुणों का वर्धन करनेवाले (त्वा) = तुझे (अग्निः) = कामाग्नि (मा ध्वनयीत्) = मत ध्वनित करे । कामाग्नि से सन्तप्त मनुष्य संयोग में मधुर गाने गाता रहता है और वियोग में विरहतप्त शब्दों का उच्चारण करता रहता है। यहाँ संयोग में भी ध्वनि है, वियोग में भी ध्वनि है। यह कामाग्नि धूमगन्धिः-ज्ञानाग्नि को बुझाकर धूम का सम्पर्क करनेवाली है, अर्थात् इसकी प्रबलता में ज्ञान पर आवरण पड़ जाता है और अज्ञान के धूम का उद्भव हो जाता है। २. कहीं ऐसा होकर तेरी वह भ्राजन्ती चमकती हुई जघ्रि:सब अच्छाइयों का ग्रहण करनेवाली उखा- शरीररूपी देगची अभिविक्त-भय-कम्पित न हो उठे। इसकी सब ज्योति व सब उत्तम बातें कामाग्नि में अस्त हो जाती हैं । ३. यह तू अच्छी प्रकार समझ ले कि इष्टम्-(इष्टम् अस्य अस्ति इति तम्) यज्ञशील पुरुष को वीतम् = (गति, प्रजनन) क्रियाशीलता के द्वारा सद्गुणों का विकास करनेवाले को अभिगूर्तम्-अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों की प्राप्ति के लिए यत्नशील को वषट्कृतम् प्रतिदिन अग्निहोत्र करनेवाले तम् अश्वम्- उस क्रिया में व्याप्त रहनेवाले पुरुष को देवासः - दिव्यगुण प्रतिगृभ्णन्ति ग्रहण करते हैं, अर्थात् यह पुरुष अपने में दिव्य गुणों का विकास करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ – कामवासना ज्ञान पर पर्दा डालकर शरीररूप उखा को मैला व दूषित कर देती । सतत यज्ञादि क्रियाओं में लगा रहनेवाला ही दिव्य गुणों को अपना पाता है।
विषय
राष्ट्रशासक बल और सैन्य का कर्त्तव्य
भावार्थ
हे अश्व ! राष्ट्र ! और हे अश्वसैन्य ! (त्वा) तुझे (धूमगन्धिः) विषैली धूम से पीड़ित करने वाली धूम की बुरी, उद्वेजक गन्ध वाला, ( अग्निः ) अग्नि और अग्निमय अस्त्र प्रयोग ( मा ध्वनयीत् ) कभी पीड़ित कर हिनहिनाने और दुःखित होने का अवसर न दे। (भ्राजन्ती) खूब भड़कती हुई ( उखा ) उखा हंड़िया, बारुद से भरा बम्ब आदि ( मा अभि विक्त ) तुझे कभी उद्विग्न न करे । तब उसे ( वीतम् ) प्राप्त हुए, समृद्ध सुन्दर, (इष्टं) सबको प्रिय ( वषट् कृतं ) दानशील, ( अभिगूर्तम् ) परिश्रमी, (अश्वं ) विद्वान् राष्ट्र और राष्ट्रपति को ( देवासः ) दानशील, और विजय के इच्छुक जम ( प्रति गृह्णन्ति ) स्वीकार करते हैं । इति नवमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे अग्नी किंवा घोड्यांनी रथ चालवितात त्यांना लक्ष्मी प्राप्त होते. अग्नीमध्ये जी माणसे सुगंधी पदार्थ घालतात ती रोग व वेदनेने पीडित होत नाहीत. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let not the fire interfused with smoke and smell obliterate your vision, let it not extinguish your enthusiasm for life. Nor let the aromatic pan on blazing fire tip over and spill out the food. (Let the nation be ripened in the cauldron of hard discipline and yajnic action placed on the right degree of heat free of smoke and blaze both). The dynamic nation which is loved, happy and peaceful, active, and sanctified by yajna, is, like a trained horse, loved, accepted and owned by the most brilliant powers of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The horse or automation power is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man! just as the intelligent admired beloved offered persevering and cons persons accept crated horse, you should know them in all respects. Let not the smoke scented fire (at the time of the Yajna) make the animal crackle with pain, nor the glowing caldron smell should break him to pieces.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who move the vehicles with properly trained horses or with the fire in the form of electricity etc. become prosperous. Those who put fragrant oblations in the fire do not suffer from diseases.
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