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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 162 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 20
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा त्वा॑ तपत्प्रि॒य आ॒त्मापि॒यन्तं॒ मा स्वधि॑तिस्त॒न्व१॒॑ आ ति॑ष्ठिपत्ते। मा ते॑ गृ॒ध्नुर॑विश॒स्ताति॒हाय॑ छि॒द्रा गात्रा॑ण्य॒सिना॒ मिथू॑ कः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । त्वा॒ । त॒प॒त् । प्रि॒यः । आ॒त्मा । अ॒पि॒ऽयन्त॑म् । मा । स्वऽधि॑तिः । त॒न्वः॑ । आ । ति॒स्थि॒प॒त् । ते॒ । मा । ते॒ । गृ॒ध्नुः । अ॒वि॒ऽश॒स्ता । अ॒ति॒ऽहाय॑ । छि॒द्रा । गात्रा॑णि । अ॒सिना॑ । मिथु॑ । क॒रिति॑ कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वा तपत्प्रिय आत्मापियन्तं मा स्वधितिस्तन्व१ आ तिष्ठिपत्ते। मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राण्यसिना मिथू कः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। त्वा। तपत्। प्रियः। आत्मा। अपिऽयन्तम्। मा। स्वऽधितिः। तन्वः। आ। तिस्थिपत्। ते। मा। ते। गृध्नुः। अविऽशस्ता। अतिऽहाय। छिद्रा। गात्राणि। असिना। मिथु। करिति कः ॥ १.१६२.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 20
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वँस्ते तव प्रिया आत्मा अपियन्तं त्वा मा तपत् स्वधितिस्ते तन्वो मातिष्ठिपत् गृध्नुरसिना तेऽविशस्ताच्छिद्रा गात्राण्यतिहाय मिथू मा कः ॥ २० ॥

    पदार्थः

    (मा) (त्वा) त्वाम् (तपत्) तपेत् (प्रियः) कमनीयः (आत्मा) (अपियन्तम्) म्रियमाणम् (मा) (स्वधितिः) वज्रवद्विद्युत् (तन्वः) शरीराणि (आ) (तिष्ठिपत्) स्थापयेत् (ते) तव (मा) (ते) तव (गृध्नुः) अभिकांक्षिता (अविशस्ता) अविहिंसितानि (अतिहाय) अतिशयेन त्यक्त्वा (छिद्रा) छिद्राणि (गात्राणि) अङ्गानि (असिना) खड्गेन (मिथू) परस्परम् (कः) कुर्यात्। अत्राडभावो मन्त्रे वसेत्यादिना श्लेर्लुक् च ॥ २० ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या योगाभ्यासं कुर्वन्ति ते मृत्युना न पीड्यन्ते जीवने रोगाश्च न दुःखयन्ति ॥ २० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! (ते) तेरा (प्रियः) मनोहर (आत्मा) आत्मा (अपियन्तम्) मरते हुए (त्वा) तुझे (मा, तपत्) मत कष्ट देवे और (स्वधितिः) वज्र के समान बिजुली तेरे (तन्वः) शरीरों को (मा, आ, तिष्ठिपत्) मत ढेरे करे तथा (गृध्नुः) अभिकाङ्क्षा करनेवाला प्राणी (असिना) तलवार से (ते) तेरे (अविशस्ता) न मारे हुए अर्थात् निर्घायल और (छिद्रा) छिद्र इन्द्रिय सहित (गात्राणि) अङ्गों को (अतिहाय) अतीव छोड़ (मिथू) परस्पर एकता (मा, कः) मत करे ॥ २० ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य योगाभ्यास करते हैं, वे मृत्यु रोग से नहीं पीड़ित होते। और उनको जीवन में रोग भी दुःखी नहीं करते हैं ॥ २० ॥

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    विषय

    'अगृध्नु तथा विशस्ता' आचार्य

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब आचार्य विद्यार्थी के जीवन का सुन्दर निर्माण करता है तब इस विद्यार्थी को शरीर व आत्मा का विवेक होने के कारण शरीर में इतनी आस्था नहीं रहती कि इसे छोड़ते हुए उसे कष्ट हो । वह शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान रखता है, परन्तु उसे इसमें ही पड़े रहने का आग्रह नहीं होता, अतः कहते हैं कि - (अपियन्तम्) = इस शरीर को छोड़कर जाते हुए तुझे, अथवा ब्रह्म को प्राप्त होते हुए तुझे प्रियः आत्मा अत्यन्त प्रिय सुख-दुःख का भोक्ता प्राण मा तपत् सन्तप्त न करे । तुझे प्राणों से पृथक् होने का सन्ताप न हो । २. (स्वधितिः) = आत्मतत्त्व का धारण ते तुझे (तन्वः) = शरीर का (मा आतिष्ठिपत्) = स्थापित करनेवाला न बनाए, अर्थात् शरीर के जाने से तू अपने को जाता हुआ न समझे। आचार्य ने तुझे इस प्रकार आत्मतत्त्व का ज्ञान दिया है कि तू शरीर को ही 'मैं' न समझकर उसे एक गृह या वस्त्र के रूप में देखे। ३. ऐसा न हो कि आचार्य (गृध्नु:) = धन के विषय में लोभवाला होता हुआ (अविशस्ता) = ठीक ज्ञान न देकर दोषों को दूर करनेवाला न होता हुआ (छिद्रा अतिहाय) = दोषों को छोड़कर, अर्थात् बिना ही दोषों के छुड़ाए मिथू यों ही झूठ-मूठ (गात्राणि) = तेरे अङ्गों को (असिना कः) = तलवार से छिन्न करे, अर्थात् तुझे ज्ञानादि की उन्नति के मिस सदा ही दण्ड देनेवाला हो । तुझसे धन लेने के लिए तुझे झूठ-मूठ यों ही दण्डित न करे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर व आत्मा के विवेक के कारण हमें प्राणों का वियोग पीड़ित करनेवाला न हो। इस विवेक-प्राप्ति के लिए हमें अलोभी व ज्ञान द्वारा दोषों को दूर करानेवाले आचार्य प्राप्त हों ।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे भोक्ता आत्मन् ! पुरुष ! विद्वान् ! ( प्रियः आत्मा ) तेरा प्रिय देह ( अपियन्तं ) ब्रह्म या मोक्ष में अप्यय अर्थात् लय करते हुए ( त्वा ) तुझको ( मा तपत् ) सन्तप्त न करे । हे राजन् ( त्वा अपियन्तं ) शत्रु पर आक्रमण करते हुए ( त्वा ) तुझको ( प्रियः आत्मा ) तेरा प्रिय अपने आत्मा के समान पुत्र, कलत्र भाई बन्धुजन भी ( मा तपत् ) विरह दुःख आदि द्वारा सन्तप्त या दुःखी न करे। हे विद्वन् (स्वधितिः) स्वयं देह को धारण करने वाला आत्मा ही उस समय (तन्वः मा आतिष्ठिपत्) शरीर पर अपनी आस्था या ममता न बैठाये रखे। राजा पक्ष में—हे राजन् ! ( स्वधितिः ) शस्त्र बल ( ते तन्वः ) तेरे शरीर पर ( मा आतिष्ठिपत् ) अधिकार न करले, आघात न पहुंचावे । हे विद्वन् ! (अविशस्ता) विशेष ज्ञान के शासन या शिक्षा करने में अकुशल पुरुष ( गृध्नुः ) लोभी होकर ( ते छिद्राणि अतिहाय ) तेरे दोषों की उपेक्षा करके ( असिना ) शस्त्रादि से ( गात्राणि ) देह के अंगों का (मा मिथू कः) कभी छिन्न भिन्न या पीड़ित न करे । अर्थात् तुझे सच्चा शिक्षक प्राप्त हो। हे राजन् ! ( अविशस्ता ) शत्रु का नाश करने में असमर्थ या अविद्वान् ( गृध्नुः ) लोभी पुरुष ( ते गात्राणि छिद्रा मिथू मा कः ) तेरे देहों के अवयवों को व्यर्थ न काटे फाटे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे योगाभ्यास करतात ती मृत्यूरोगाने पीडित होत नाहीत व त्यांना जीवनात रोगही दुःखी करीत नाहीत. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Spirit and genius of the nation, while you are on your path of progress to divinity, may your soul never cause any sense of self-guilt, nor must your own power and pride nor external force strain or terrorize your mind and body. Nor must any greedy or malicious power or person, unmindful of the hurt and cruelty, wound or mutilate your body.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The benefits of Yoga exercises.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! let not your God loving soul torment you, at the demise. Let not the hatchet linger in your body. Let not a greedy, clumsy immolator cut with sword your vulnerable limbs.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who practice Yoga, are not tormented or frightened by death and do not suffer from diseases in their life time.

    Foot Notes

    (अपियन्तम् ) म्रियमाणम् = Dying or leaving body. (स्वघिति:) वज्रवत विद्युत = Electricity like the thunderbolt.

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