ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
ए॒ष च्छाग॑: पु॒रो अश्वे॑न वा॒जिना॑ पू॒ष्णो भा॒गो नी॑यते वि॒श्वदे॑व्यः। अ॒भि॒प्रियं॒ यत्पु॑रो॒ळाश॒मर्व॑ता॒ त्वष्टेदे॑नं सौश्रव॒साय॑ जिन्वति ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । छागः॑ । पु॒रः । अश्वे॑न । वा॒जिना॑ । पू॒ष्णः । भ॒गः । नी॒य॒ते॒ । वि॒श्वऽदे॑व्यः । अ॒भि॒ऽप्रिय॑म् । यत् । पु॒रो॒ळाश॑म् । अर्व॑ता । त्वष्टा॑ । इत् । ए॒न॒म् । सौ॒श्र॒व॒साय॑ । जि॒न्व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष च्छाग: पुरो अश्वेन वाजिना पूष्णो भागो नीयते विश्वदेव्यः। अभिप्रियं यत्पुरोळाशमर्वता त्वष्टेदेनं सौश्रवसाय जिन्वति ॥
स्वर रहित पद पाठएषः। छागः। पुरः। अश्वेन। वाजिना। पूष्णः। भगः। नीयते। विश्वऽदेव्यः। अभिऽप्रियम्। यत्। पुरोळाशम्। अर्वता। त्वष्टा। इत्। एनम्। सौश्रवसाय। जिन्वति ॥ १.१६२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् येन पुरुषेण वाजिनाऽश्वेन सह एष विश्वदेव्यः पूष्णो भागः छागः पुरो नीयते यद्यस्त्वष्टा सौश्रवसायार्वतैनमभिप्रियं पुरोडाशमिज्जिन्वति स सुखी जायते ॥ ३ ॥
पदार्थः
(एषः) प्रत्यक्षः (छागः) (पुरः) पूर्वम् (अश्वेन) तुरङ्गेन (वाजिना) वेगवता (पूष्णः) पुष्टेः (भागः) (नीयते) (विश्वदेव्यः) विश्वेषु सर्वेषु देवेषु दिव्यगुणेषु साधुः (अभिप्रियम्) अभितः कमनीयम् (यत्) यः (पुरोडाशम्) सुसंस्कृतमन्नम् (अर्वता) विज्ञानेन सह (त्वष्टा) सुरूपसाधकः (इत्) एव (एनम्) (सौश्रवसाय) शोभनेष्वन्नेषु भवाय (जिन्वति) प्राप्नोति ॥ ३ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या अश्वानां पुष्टये छागदुग्धं पाययन्ति सुसंस्कृतान्नं च भुञ्जते ते सुखिनो भवन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! जिस पुरुष ने (वाजिना) वेगवान् (अश्वेन) घोड़ा के साथ (एषः) यह प्रत्यक्ष (विश्वदेव्यः) समस्त दिव्य गुणों में उत्तम (पूष्णः) पुष्टि का (भागः) भाग (छागः) छाग (पुरः) पहिले (नीयते) पहुँचाया वा (यत्) जो (त्वष्टा) उत्तम रूप सिद्ध करनेवाला जन (सौश्रवसाय) सुन्दर अन्नों में प्रसिद्ध अन्न के लिये (अर्वता) विशेष ज्ञान के साथ (एनम्) इस (अभिप्रियम्) सब ओर से प्रिय (पुरोडाशम्) सुन्दर बनाये हुए अन्न को (इत्) ही (जिन्वति) प्राप्त होता है, वह सुखी होता है ॥ ३ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य घोड़ों की पुष्टि के लिये छेरी का दूध उनको पिलाते और अच्छे बनाये हुए अन्न को खाते हैं, वे निरन्तर सुखी होते हैं ॥ ३ ॥
विषय
शत्रुच्छेदक [छाग]
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार 'शुद्ध धन व शुद्ध अन्न' का सेवन करनेवाले के लिए कहते हैं कि (एषः छागः) = यह शत्रुओं का छेदन करनेवाला [छो छेदने] (पूष्णः भागः) = पोषक अन्न का ही सेवन करनेवाला [भज सेवायाम्] (विश्वदेव्यः) = अपने में सब दिव्यगुणों को धारण करनेवाला दीर्घतमा [मन्त्र का ऋषि] (अश्वेन) = [अशू व्याप्तौ] सर्वव्यापक (वाजिना) = सर्वशक्तिसम्पन्न प्रभु से (पुरः नीयते) = आगे, अर्थात् उन्नति-पथ पर ले जाया जाता है । २. (अर्वता) = [अर्व हिंसायाम्] सब बुराइयों का संहार करनेवाले प्रभु से (यत्) = जब (प्रियम्) = तृप्ति व कान्ति देनेवाले पुरोळाशम् = (leavings of an oblation) हुतशेष की अभि-ओर (नीयते) ले जाया जाता है, अर्थात् यज्ञशेष का ही सेवन करने के लिए प्रेरित किया जाता है तब (त्वष्टा) = वह देवशिल्पी– संसार निर्माता अथवा [तविष् दीप्तौ] ज्ञान की दीप्तिवाला प्रभु (इत्) = निश्चय से (एनम्) = इसको (सौश्रवसाय) = उत्तम ज्ञान के लिए जिन्वति प्रीणित करता है, उत्तम ज्ञान प्राप्त कराके इसे आनन्दित करता है । वस्तुतः यज्ञशेष का सेवन चित्तशुद्धि के लिए आवश्यक है । शुद्ध चित्त में ज्ञान का प्रकाश होता है और प्रकाश में आनन्द है।
भावार्थ
भावार्थ - हम काम-क्रोधादि का छेदन करें। इसके लिए पोषक अन्न का ही सेवन करें। यज्ञशेष का सेवन करते हुए जीवन को दीप्त बनाएँ ।
विषय
सेनापति के योग्य पुरुष, अश्व मेध के अश्व के आगे छाग आदि लाने का रहस्य ।
भावार्थ
(एषः) यह ( विश्वदेव्यः ) समस्त विजयी, व्यवहारकुशल अपने चाहने वाले तथा विद्वान् पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ और उनका हितकारी ( छागः ) शत्रुओं को छेदन भेदन करने हारा, शस्त्र विद्या और युद्ध में निपुण तथा राष्ट्र को भिन्न भिन्न भागों में बांटने वाला, वीर पुरुष (वाजिना) वेगवान् ( अश्वेन ) अश्व सैन्य और ( वाजिना अश्वेन ) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र के साथ ( पूष्णः ) सर्वपोषक सूर्य और पृथिवी के ( भागः ) तेज और ऐश्वर्ण को भोग करने वाला होकर (पुरः नीयते) सब से आगे आगे सेनापति के मुख्य पद पर स्थापित किया जाता है तब ( त्वष्टा इत् ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष ही ( अर्वता ) विद्वान् जन और अश्व सैन्य के सहित (अभिप्रियम्) सर्वप्रिय, ( पुरोडाशम् ) सब के समक्ष, सबके सन्मुख देने योग्य प्रधान पद को प्राप्त (एनं) इस नायक को (सौश्रवसाय) उत्तम कीर्ति और ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये ( जिन्वति ) परिपुष्ट करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे घोड्याच्या पुष्टीसाठी बकरीचे दूध त्यांना पाजवितात व संस्कारित अन्न खातात ती निरन्तर सुखी होतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This undaunted horse blest with all noble quality, gift of nature’s generosity, is taken along with the fast war horse by the driver in advance for the training of the warrior’s favourite so that the expert cavalry trainer may prepare the loved grooming for the steed for his victory.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The horses (automation equipment) be powerful.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The goat is possessed of useful properties. It yields milk as a nutritive food for the horses. The best cereal made into pleasant food is possible only when cooked by an. expert cook according to the techniques prescribed. (Based on Pt. Guru Datta's M.A.'s translation in the Terminology of the Vedas and European Scholars).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men enjoy happiness who make horse drink, the milk of the goats and take well prepared and nutritious food.
Foot Notes
(पूष्णः) पुष्ट: = Of strength. (विश्वदेव्य:) विश्वेषु सर्वेषु देवेषु दिव्य गुणेषु साधु = Possessing good attributes. ( पुरोलाशम् ) सुसंस्कृतम् अन्नम् = Well cooked good food. (अर्वता) विज्ञानेन सह = With knowledge.. (सौश्रवसाय ) शोभनेष्वन्नेषु भवाय = For good food.
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