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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 162 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यद्ध॑वि॒ष्य॑मृतु॒शो दे॑व॒यानं॒ त्रिर्मानु॑षा॒: पर्यश्वं॒ नय॑न्ति। अत्रा॑ पू॒ष्णः प्र॑थ॒मो भा॒ग ए॑ति य॒ज्ञं दे॒वेभ्य॑: प्रतिवे॒दय॑न्न॒जः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यद् । ह॒वि॒ष्य॑म् । ऋ॒तु॒ऽशः । दे॑व॒ऽयानम् । त्रिः । मानु॑षाः । परि॑ । अश्व॑म् । नय॑न्ति । अत्र॑ । पू॒ष्णः । प्र॒थ॒मः । भा॒गः । ए॒ति॒ । य॒ज्ञम् । दे॒वेभ्यः॑ । प्र॒ति॒ऽवे॒दय॑न् । अ॒जः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्धविष्यमृतुशो देवयानं त्रिर्मानुषा: पर्यश्वं नयन्ति। अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञं देवेभ्य: प्रतिवेदयन्नजः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यद्। हविष्यम्। ऋतुऽशः। देवऽयानम्। त्रिः। मानुषाः। परि। अश्वम्। नयन्ति। अत्र। पूष्णः। प्रथमः। भागः। एति। यज्ञम्। देवेभ्यः। प्रतिऽवेदयन्। अजः ॥ १.१६२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यद्ये मानुषा ऋतुशो हविष्यं देवयानमश्वं त्रिः परिणयन्ति योऽत्र देवेभ्यः पूष्णः भागः प्रतिवेदयन्नजो यज्ञमेति तानेतं च सर्वे सज्जनाः सत्कुर्वन्तु ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (यत्) ये (हविष्यम्) हविष्षु ग्रहणेषु साधुम् (ऋतुशः) बहुषु ऋतुषु (देवयानम्) देवानां विदुषां यात्रासाधकम् (त्रिः) (मानुषाः) मनुष्याः (परि) सर्वतः (अश्वम्) आशुगामिनम् (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (अत्र) अस्मिन् जगति। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (पूष्णः) पोषकस्य (प्रथमः) आदिमः (भागः) भजनीयः (एति) प्राप्नोति (यज्ञम्) संगन्तुमर्हम् (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः (प्रतिवेदयन्) स्वगुणं प्रत्यक्षतया प्रज्ञापयन् (अजः) प्राप्तव्यश्छागः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    ये सर्वर्त्तुसुखसाधकानि यानानि रचयित्वाऽश्वाऽजादीन् पशून् वर्द्धयित्वा जगद्धितं संपादयन्ति ते शरीरात्ममनोऽनुकूलं त्रिविधं सुखमश्नुवते ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जो (मानुषाः) मनुष्य (ऋतुशः) बहुत ऋतुओं में (हविष्यम्) ग्रहण करने योग्य पदार्थों में उत्तम (देवयानम्) विद्वानों की यात्रा सिद्ध करनेवाले (अश्वम्) शीघ्रगामी रथ को (त्रिः) तीन बार (परिणयन्ति) सब ओर से प्राप्त होते अर्थात् स्वीकार करते हैं वा जो (अत्र) इस जगत् से (देवेभ्यः) दिव्य गुणों के लिये (पूष्णः) पुष्टि करनेवाले का (प्रथमः) पहिला (भागः) सेवने योग्य भाग (प्रतिवेदयन्) अपने गुण को प्रत्यक्षता से जनाता हुआ (अजः) पाने योग्य छाग (यज्ञम्) सङ्ग करने योग्य व्यवहार को (एति) प्राप्त होता है उनको और इस छाग को सब सज्जन यथायोग्य सत्कारयुक्त करें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जो समस्त ऋतुओं के सुख सिद्ध करनेवाले यानों को रच घोड़े और बकरे आदि पशुओं को बढ़ा कर जगत् का हित सिद्ध करते हैं, वे शारीरिक, वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    यज्ञिय जीवन

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (हविष्यम्) = [हविषि उत्तमम्] जीवन दानपूर्वक अदन में उत्तम होता है, अर्थात् दान देकर यज्ञशेष को ही खाने की वृत्ति होती है, २. (ऋतुशः) = ऋतु के अनुसार (देवयानम्) = देवताओं के मार्ग से चलना होता है, अर्थात् ऋतुचर्या का ध्यान रखते हुए सत्य को ही अपनाना होता है तथा ३. (मानुषा:) = [मत्वा कर्माणि सीव्यति] विचारपूर्वक कर्म करनेवाले (अश्वम्) = उस सर्वव्यापक प्रभु को (त्रिः) = प्रातः, माध्यन्दिन और सायंतन = इन तीन सवनों में (परिनयन्ति) = अपने विचारों में प्राप्त कराते हैं, अर्थात् सर्वव्यापक प्रभु का ध्यान करते हैं, (अत्र) = तो, ऐसा होने पर (पूष्णः) = पूषा का प्रथमो (भाग:) = सर्वोत्तम भाग (एति) = इन्हें प्राप्त होता है, अर्थात् इन्हें उत्तम पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं और इनका शरीर उत्तम पुष्टिवाला होता है । ४. अब (अजः) = कभी भी जन्म न लेनेवाला प्रभु अथवा सब प्रेरणाओं (गतियों) को प्राप्त करानेवाला प्रभु (देवेभ्यः) = इन देव वृत्तिवाले पुरुषों के लिए (यज्ञं प्रतिवेदयन्) = यज्ञों को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम दानपूर्वक अदन करने (खाने) वाले हों, देवयान मार्ग से चलें, दिन के आदि, मध्य व अन्त में प्रभु-स्मरण करनेवाले हों, शरीर को पुष्ट करें और प्रभु से दिये गये यज्ञ को अपनाएँ ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे संपूर्ण ऋतुत सुख सिद्ध करणारी याने तयार करतात व घोडे, बकरे इत्यादी पशूंची वाढ करून जगाचे हित करतात, त्यांना शारीरिक, वाचिक व मानसिक तिन्ही प्रकारचे सुख मिळते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When men take this horse out and around for grooming thrice according to the seasons, then this horse, prime gift of nature’s generosity, fit for the noblest heroes to ride to the yajna of the battle of rectitude, leading pioneer, goes forward first proclaiming its act of advance in the battle for the noble warriors to hear, here in the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The importance of animal and carriers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Honorable are those men who own well trained good horses. It takes the learned and brave persons during all seasons to distant places thrice around the altar during the Ashvamedha Yajna. Equally honorable is the leader who is to be primarily ordered by a King. Such a person gives good instructions to all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who manufacture various vehicles suitable for all seasons and make horses and goats etc. (animal power) strong they deliver goods to all and enjoy physical, mental and spiritual happiness.

    Foot Notes

    (हविष्यम् ) हविषु ग्रहणेषु साधुम् = Good virtuous or well trained. (पूष्ण:) पोषकस्य = Of the king who nourishes or supports all. (अज:) A learned person who leads to happiness and prosperity And who drives away all evils.

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