ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
होता॑ध्व॒र्युराव॑या अग्निमि॒न्धो ग्रा॑वग्रा॒भ उ॒त शंस्ता॒ सुवि॑प्रः। तेन॑ य॒ज्ञेन॒ स्व॑रंकृतेन॒ स्वि॑ष्टेन व॒क्षणा॒ आ पृ॑णध्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑ । अ॒ध्व॒र्युः । आऽव॑याः । अ॒ग्नि॒म्ऽइ॒न्धः । ग्रा॒व॒ऽग्रा॒भः । उ॒त । शंस्ता॑ । सुऽवि॑प्रः । तेन॑ । य॒ज्ञेन॑ । सुऽअ॑रङ्कृतेन । सुऽइ॑ष्टेन । व॒क्षणाः॑ । आ । पृ॒ण॒ध्व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
होताध्वर्युरावया अग्निमिन्धो ग्रावग्राभ उत शंस्ता सुविप्रः। तेन यज्ञेन स्वरंकृतेन स्विष्टेन वक्षणा आ पृणध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठहोता। अध्वर्युः। आऽवयाः। अग्निम्ऽइन्धः। ग्रावऽग्राभः। उत। शंस्ता। सुऽविप्रः। तेन। यज्ञेन। सुऽअरङ्कृतेन। सुऽइष्टेन। वक्षणाः। आ। पृणध्वम् ॥ १.१६२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यो होताऽध्वर्युरावयाऽग्निमिन्धो ग्रावग्राभ उतापि शंस्ता सुविप्रो विद्वानस्ति तेन साकं स्विष्टेन स्वरङ्कृतेन यज्ञेन वक्षणा यूयमापृणध्वम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(होता) यज्ञसाधकः (अध्वर्युः) आत्मनोऽध्वरमहिंसनमिच्छुः (आवयाः) यः समन्ताद्यजति संगच्छते सः (अग्निमिन्धः) अग्निप्रदीपकः (ग्रावग्राभः) यो ग्राव्णः स्तावकान् गृह्णाति सः (उत) (शंस्ता) प्रशंसिता (सुविप्रः) सुष्ठुमेधावी (तेन) (यज्ञेन) (स्वरङ्कृतेन) सुष्ठुपूर्णेन कृतेन (स्विष्टेन) (वक्षणाः) नदीः (आ) (पृणध्वम्) पूरयध्वम् ॥ ५ ॥
भावार्थः
सर्वे मनुष्या दुर्गन्धनिवारणाय सुखोन्नतये च यज्ञाऽनुष्ठानं कृत्वा सर्वत्र देशेषु सुगन्धिता अपो वर्षयित्वा नदीः पूरयेयुः ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (होता) यज्ञ सिद्ध कराने (अध्वर्युः) अपने को नष्ट न होने की इच्छा करने (आवयाः) अच्छे प्रकार मिलने (अग्निमिन्धः) अग्नि को प्रकाशित करने (ग्रावग्राभः) प्रशंसकों को ग्रहण करने (उत) और (शंस्ता) प्रशंसा करनेवाला (सुविप्रः) सुन्दर बुद्धिमान् विद्वान् है (तेन) उसके साथ (स्विष्टेन) उत्तम चाहे और (स्वरङ्कृतेन) सुन्दर पूर्ण किये हुए (यज्ञेन) यज्ञकर्म से (वक्षणाः) नदियों को तुम (आ, पृणध्वम्) अच्छे प्रकार पूर्ण करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
सब मनुष्य दुर्गन्ध के निवारने और सुख की उन्नति के लिये यज्ञ का अनुष्ठान कर सर्वत्र देशों में सुगन्धित जलों को वर्षा कर नदियों को परिपूर्ण करें अर्थात् जल से भरें ॥ ५ ॥
विषय
जीवन – सप्तहोता यज्ञ
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अन्तिम शब्दों के अनुसार प्रभु ने यज्ञ प्राप्त कराया। अब प्रभु कहते हैं कि (तेन) = उस (स्वरंकृतेन) = उत्तमता से अलंकृत (स्विष्टेन) = उत्तम भावना से किये गये (यज्ञेन) = यज्ञ से तुम (वक्षणा) = अपनी सब प्रकार की उन्नतियों को [वक्ष् to grow] (आपृणध्वम्) = पूर्ण करनेवाले बनो ! हम यज्ञों को उत्तमता तथा उत्तम भावना से करेंगे तो हमारी सब कामनाएँ पूर्ण होंगी और हमारी खूब उन्नति हो सकेगी। २. उस समय हमारा जीवन मन्त्र के पूर्वार्द्ध में वर्णित सात गुणोंवाला होगा - [क] (होता) = हम दानपूर्वक अदन करनेवाले बनेंगे, [ख] (अध्वर्युः) = अहिंसात्मक कर्मों को अपने साथ जोड़नेवाले होंगे, [ग] (आवया:) = [अवयजति] अशुभवृत्तियों को अपने से दूर करेंगे, [घ] (अग्निमिन्धः) = अग्निहोत्रादि कर्मों को करनेवाले अथवा ज्ञानाग्नि को अपने में दीप्त करनेवाले होंगे, [ङ] (ग्राव-ग्राभ:) = स्तुति की वृत्ति को ग्रहण करनेवाले, अर्थात् सदा प्रभुस्तवन करनेवाले होंगे, [च] (उत) = और शंस्ता उत्तम कर्मों का शंसन करनेवाले [छ] (सुविप्रः) = उत्तम ज्ञानी बन पाएँगे। इन सात गुणों से युक्त होने पर हमारा जीवन यज्ञमय बनेगा और यह जीवनरूप सप्त होताओंवाला यज्ञ सुन्दरता से चलेगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम जीवन को सप्त होताओंवाला यज्ञ बना डालें। इस यज्ञ को उत्तम भावना से व उत्तम प्रकार से करते हुए हम अपनी सब उन्नतियों को सिद्ध करें ।
विषय
राष्ट्ररूप यज्ञ का वर्णन, अध्यात्म यज्ञ का स्वरूप
भावार्थ
जिस प्रकार यज्ञ में होता, अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, आग्नीध्र, ग्रावस्तुत्, प्रशास्ता और ब्रह्मा ये ऋत्विज् होते हैं उसी प्रकार राष्ट्र रूप यज्ञ में ( होता ) अधिकारों का प्रदाता, ( अध्वर्युः ) समस्त प्रजा पालन के तन्त्र को चलाने हारा, महामात्र, ( आवयाः ) सर्वत्र व्यापक सबको अपने अधीन योग्यतानुसार कलपुर्जों के समान जोड़ने वाला, (अग्निमिन्धः ) राजादि अग्रणी नायकों और विद्वान् ब्राह्मणों को मान, दान आदर से सदा उत्साहित और उत्तेजित करने वाला, (ग्रावग्राभः) विद्वानों और शस्त्रास्त्र बल को अपने वश में रखने वाला, (शंस्ता) उत्तम प्रशंसक, सन्मार्ग का उपदेष्टा, या ( सुविप्रः ) उत्तम विद्वान् मेधावी, सबकी न्यूनताओं को पूर्ण करने हारा सभापति हो । हे विद्वान् पुरुषो ! आप सब (तेन) उस ( स्विष्टेन ) सुव्यवस्थित, सुचालित, ( सु-अरङ्केृन ) उत्तम रीति से सुशोभित, खूब क्रिया कुशल, सुअभ्यस्त ( यज्ञेन ) प्रजापालक राजा वा उत्तम राष्ट्र से ( वक्षणाः ) यज्ञ से उत्पन्न जलों से नदियों के समान और उत्तम पति से प्राप्त पुत्र द्वारा भार्या की कुक्षियों के समान, धनैश्वर्य और अन्न द्वारा प्रजा की कुक्षियों तथा दिशावासिनी राष्ट्र को वहन करने वाली प्रजाओं और सेनाओं को ( आपृणध्वम् ) सब प्रकार से पूर्ण, समृद्ध करो । (२) अध्यात्म में—सातों प्राण सात ऋत्विग् हैं। यज्ञ आत्मा है, उसको उपासना के जल से नदियों के समान धर्ममेघ, आनन्दघन में रम रम कर सब कामनाएं पूर्ण करो । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी दुर्गंधाचे निवारण करण्यासाठी व सुखाची वाढ होण्यासाठी यज्ञाचे अनुष्ठान करावे व सर्व स्थानी सुगंधित जलाची वृष्टी करवून नद्या जलाने परिपूर्ण कराव्यात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The man of yajna, the high-priest of love and non-violence, the faithful giver of oblations, the lighter of the holy fire, the grinder of soma, the singer of the hymns, and the noble scholar Brahmana, all ye yajakas in unison, light up the fire, and with that yajna gracefully completed with love, faith and expertise, fill the streams of life and the land with waters and prosperity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of the Yajnas.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May the Hota-performer of the Yajna, Adhvaryu - (non-violent officiating priest) Avayah-unifier of all, Agnimindhah (Kindler of fire) Gravagrabhah (Acceptor of the praises), Shansta-admirer of noble virtues, Suvipra (a wise and very most desirable Yajna well and intelligent person) perform the because of that fill he embankments of the rivers with pure water.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of all to perform Yajnas for the removal of foul smell and for the advancement of happiness and health. Thereby, they should make clean water fragrant and fill up the streams, rivers etc. with them.
Foot Notes
(आवयाः) यः समन्ताह् यजति संगच्छते सः = He who unifies all. ( ग्रावग्राम: ) यः गुणा: स्नादकाम गृह्णातिसः = He who accepts or encourages the praises. (वक्षणा:) नदी = Rivers or streams.
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