ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 9
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदश्व॑स्य क्र॒विषो॒ मक्षि॒काश॒ यद्वा॒ स्वरौ॒ स्वधि॑तौ रि॒प्तमस्ति॑। यद्धस्त॑योः शमि॒तुर्यन्न॒खेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ अपि॑ दे॒वेष्व॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अश्व॑स्य । क्र॒विषः॑ । मक्षि॑का । आश॑ । यत् । वा॒ । स्वरौ॑ । स्वऽधि॑तौ । रि॒प्तम् । अस्ति॑ । यत् । हस्त॑योः । श॒मि॒तुः । यत् । न॒खेषु॑ । सर्वा॑ । ता । ते॒ । अपि॑ । दे॒वेषु । अ॒स्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदश्वस्य क्रविषो मक्षिकाश यद्वा स्वरौ स्वधितौ रिप्तमस्ति। यद्धस्तयोः शमितुर्यन्नखेषु सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अश्वस्य। क्रविषः। मक्षिका। आश। यत्। वा। स्वरौ। स्वऽधितौ। रिप्तम्। अस्ति। यत्। हस्तयोः। शमितुः। यत्। नखेषु। सर्वा। ता। ते। अपि। देवेषु। अस्तु ॥ १.१६२.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् क्रविषोऽश्वस्य यद्रिप्तम्मक्षिकाश वा यद्या स्वधितौ स्वरौ स्तः शमितुर्हस्तयोर्यदस्ति यच्च नखेष्वस्ति ता सर्वा ते सन्त्वेद्देवेष्वप्यस्तु ॥ ९ ॥
पदार्थः
(यत्) (अश्वस्य) (क्रविषः) क्रमणशीलस्य। अत्र क्रमधातोरौणादिक इसिः प्रत्ययो वर्णव्यत्येन मस्य वः। (मक्षिका) मशति शब्दायते या सा (आश) अश्नाति (यत्) (वा) (स्वरौ) शब्दोपतापौ (स्वधितौ) स्वेन धृतौ (रिप्तम्) लिप्तम् (अस्ति) (यत्) (हस्तयोः) (शमितुः) यज्ञानुष्ठातुः (यत्) (नखेषु) न विद्यते खमाकाशं येषु तेषु (सर्वा) सर्वाणि (ता) तानि (ते) तव (अपि) (देवेषु) विद्वत्सु (अस्तु) ॥ ९ ॥
भावार्थः
भृत्यैरश्वा दुर्गन्धलेपरहिताः शुद्धा मक्षिकादंशविरहा रक्षणीयाः। स्वहस्तेन रज्ज्वादिना सुनियम्य यथेष्टङ्गमयितव्याः। एवं कृते सति तुरङ्गा दिव्यानि कार्याणि कुर्वन्ति ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (क्रविषः) क्रमणशील अर्थात् चाल से पैर रखनेवाले (अश्वस्य) घोड़ा का (यत्) जिस (रिप्तम्) लिये हुए मल को (मक्षिका) शब्द करती अर्थात् भिनभिनाती हुई माखी (आश) खाती है (वा) अथवा (यत्) जो (स्वधितौ) आप धारण किये हुए (स्वरौ) हींसना और कष्ट से चिल्लाना है (शमितुः) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले के (हस्तयोः) हाथों में (यत्) जो है और (यत्) जो (नखेषु) जिनमें आकाश नहीं विद्यमान है उन नखों में (अस्ति) है (ता) वे (सर्वा) समस्त पदार्थ (ते) तुम्हारे हों तथा यह सब (देवेषु) विद्वानों में (अपि) भी (अस्तु) हो ॥ ९ ॥
भावार्थ
भृत्यों को घोड़े दुर्गन्ध लेप रहित शुद्ध, माखी और डाँश से रहित रखने चाहिये, अपने हाथ तथा रज्जु आदि से उत्तम नियम कर अपने इच्छानुकूल चाल चलवाना चाहिये, ऐसे करने से घोड़े उत्तम काम करते हैं ॥ ९ ॥
विषय
कर्म में लगे रहना
पदार्थ
१. (यत्) = जब (अश्वस्य) = सदा कर्मों में व्याप्त रहनेवाले इस (क्रविष:) = [क्रवि हिंसायाम्] वासनाओं का संहार करनेवाले व्यक्ति के समय को (मक्षिका) = धन सञ्चय [मक्ष = to accumu late] (आश) = खा लेता है, अर्थात् इसका बहुत-सा समय सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक धन की प्राप्ति में खप जाता है और २. बचा हुआ समय (यत् वा) = यदि निश्चय से (स्वरौ) = [स्वृ शब्दे] शब्दशास्त्र के अध्ययन में बीतता है तथा उससे भी बचे समय में (स्वधितौ) = आत्मतत्त्व के धारण में (रिप्तम्) = [लिप्तम्] = लगाव (अस्ति) = है । ३. (शमितुः) = वासनाओं को शान्त करनेवाले इस पुरुष का (यत्) = जो (हस्तयोः) = हाथों में 'कर्मणे हस्तौ विसृष्टौ' अर्थात् हस्तसाध्य कार्यों में लगाव है। मुख्य कार्य को करने के बाद यह किसी उपकार्य [hobby] में लगा रहता है। (यत्) = यदि (नखेषु) = छिद्रों में इसका लगाव नहीं, अर्थात् यह दोषयुक्त कर्मों में व्याप्त नहीं होता तो (सर्वा ता) = वे सब बातें (ते) = तेरे (देवेषु अपि अस्तु) = दिव्यगुणों को उत्पन्न करनेवाली हों । खाली होना ही अवगुणों की उत्पत्ति का कारण बनता है। न यह खाली होता है और न अवगुणों का आधार बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम आवश्यक धन की प्राप्ति में, स्वाध्याय में, ध्यान में व किसी उपयोगी उपकार्य में लगे रहें। ताश खेलना आदि दोषयुक्त कर्मों में न लगें । यही दिव्यगुणों की प्राप्ति का मार्ग है।
विषय
राष्ट्र के ऐश्वर्य के प्रबन्ध को विद्वानों के अधीन रखने का उपदेश ।
भावार्थ
( यत् ) जो भाग ( ऋविषः अश्वस्य ) विजय करने योग्य राष्ट्र की (मक्षिका) उपदेश या शिक्षा का कार्य करने वाली, विद्वत्सभा या रोष का कार्य करने वाली सेना ( आश ) खा जाती है, ( यद् वा ) और जो अंश ( स्वरौ ) तापदायक और शत्रु संन्तापक और (स्वधितौ) वज्र आदि शस्त्रास्त्र बल में ( रिप्तम् अस्ति ) लग जाता है। और जो भाग ( शमितुः ) शान्ति कराने वाले मध्यस्थ पुरुष या दुष्टों के उपद्रव शान्त करने वाले वीर पुरुष के ( हस्तयोः ) हाथों अर्थात् हनन करने के साधनों और उपायों में लग जाता है, ( यत् नखेषु ) जो राष्ट्र के ऐश्वर्य का अंश छिद्र रहित राष्ट्र के प्रबन्ध कार्यों में और प्रबन्धकर्त्ताओं में, व्यय हो जाता है ( ता सर्वा ) वे सब कार्य ( ते ) तुझ राष्ट्र और राष्ट्र पति के ( देवेषु अपि अस्तु ) देवों के अधीन ही हुआ करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सेवकांनी घोड्याला दुर्गंधलेपरहित शुद्ध, माशा व डासरहित ठेवावे. आपल्या हाती लगाम ठेवून इच्छेप्रमाणे व्यवस्थित चालविले पाहिजे. असे केल्याने घोडे उत्तम काम करतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Whatever the fly eats of the sweat or ointment of the horse of rhythmic motion, i.e., the nation on the march, or whatever smears the voice or sword of the nation, and whatever soils the hands and nails of the performers of national yajna, all these things should be under control of the brilliant and generous leaders of the nation for you, i.e., the people and the nation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of horses is further developed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man! the fly Catch the flesh and blood of a fast running horse. The Vedic utterances in a Yajna are like thunderbolt, part of the oblation adhered to the hands and nails of the performer of the Yajna. May all this be with you and the learned.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the attendants to keep horse free from all bad smell, pure and free from the bite of the flies. They should be made to go by controlling them properly with one's own hands and use of the bridle. By so doing, the horses can accomplish divine purposes. The horses should be cleaned to remove the dirt from their body.
Foot Notes
(क्रविष:) क्रमशीलस्य अन ऋमुघातोरौणादिक: इसि प्रत्ययः = Of the pacing horse. (स्वरौ ) शब्दोपतापौ = The noise and pain. स्वधितौ स्वेन धूतौ = Belonging to one self. It was wrong on the part of Prof. Maxmuller Prof. Wilson and Griffith to translate (ऋविष:) here as the flesh. It is the objective of अश्वस्य and derived from क्रमु-पादविक्षेपे. Hence it means of the pacing horse and not of the flesh. शमितु: has been translated by Prof. Maxmuller and Wilson as of the immolator. Griffith has translated it as 'of a slayer'. But etymologically शम्-अलोचने means 'to look at' (with love and peace) and should mean of a person who looks at the living beings with love and peace and not slayer. Rishi Dayananda Sarasvati has aptly interpreted as यज्ञानुष्ठातु: i.e. of the performer of a Yajna.
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