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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 162 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 21
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न वा उ॑ ए॒तन्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ इदे॑षि प॒थिभि॑: सु॒गेभि॑:। हरी॑ ते॒ युञ्जा॒ पृष॑ती अभूता॒मुपा॑स्थाद्वा॒जी धु॒रि रास॑भस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । वै । ऊँ॒ इति॑ । ए॒तत् । म्रि॒य॒से॒ । न । रि॒ष्य॒सि॒ । दे॒वान् । इत् । ए॒षि॒ । प॒थिऽभिः॑ । सु॒ऽगेभिः॑ । हरी॑ इति॑ । ते॒ । युञ्जा॑ । पृष॑ती॒ इति॑ । अ॒भू॒ता॒म् । उप॑ । अ॒स्था॒त् । वा॒जी । धु॒रि । रास॑भस्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वा उ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभि: सुगेभि:। हरी ते युञ्जा पृषती अभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। वै। ऊँ इति। एतत्। म्रियसे। न। रिष्यसि। देवान्। इत्। एषि। पथिऽभिः। सुऽगेभिः। हरी इति। ते। युञ्जा। पृषती इति। अभूताम्। उप। अस्थात्। वाजी। धुरि। रासभस्य ॥ १.१६२.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 21
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यदि यौ ते मन आत्मा वा युञ्जा हरी पृषती अभूतां यस्तावुपास्थात्। रासभस्य धुरि वाजीव भवेस्तर्हि एतत्स्वरूपं प्राप्य न वै म्रियसे न उ रिष्यसि सुगेभिः पथिभिरिदेव देवानेषि ॥ २१ ॥

    पदार्थः

    (न) (वै) निश्चये (उ) वितर्के (एतत्) चेतनस्वरूपम् (म्रियसे) (न) (रिष्यसि) हंसि (देवान्) विदुषो दिव्यान् पदार्थान् वा (इत्) एव (एषि) प्राप्नोषि (पथिभिः) मार्गैः (सुगेभिः) सुखेन गच्छन्ति येषु तैः (हरी) धारणाकर्षणगुणौ (ते) तव (युञ्जा) युञ्जानौ (पृषती) सेक्तारौ जलगुणौ (अभूताम्) भवतः (उप) (अस्थात्) तिष्ठेत् (वाजी) वेगः (धुरि) धारके (रासभस्य) शब्दायमानस्य ॥ २१ ॥

    भावार्थः

    ये योगाभ्यासेन समाहितात्मानो दिव्यान् योगिनः सङ्गस्य धर्म्यमार्गेण गच्छन्तः परमात्मनि स्वात्मानं युञ्जते ते प्राप्तमोक्षा जायन्ते ॥ २१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! यदि जो (ते) तुम्हारे मन वा आत्मा यथायोग्य करने में (युञ्जा) युक्त (हरी) धारण और आकर्षण गुणवाले (पृषती) वा सींचनेवाले जल का गुण रखते हुए (अभूताम्) होते हैं उनका जो (उपास्थात्) उपस्थान करे वा (रासभस्य) शब्द करते हुए रथ आदि की (धुरी) धुरी में (वाजी) वेग तुल्य हो तो (एतत्) इस उक्त रूप को पाकर (न, वै म्रियसे) नहीं मरते (न, उ) अथवा तो न (रिष्यसि) किसी को मारते हो और (सुगेभिः) सुखपूर्वक जिनसे जाते हैं उन (पथिभिः) मार्गों से (इत्) ही (देवान्) विद्वानों वा दिव्य पदार्थों को (एषि) प्राप्त होते हो ॥ २१ ॥

    भावार्थ

    जो योगाभ्यास से समाहित चित्त दिव्य योगी जनों को अच्छे प्रकार प्राप्त हो धर्म-युक्त मार्ग से चलते हुए परमात्मा में अपने आत्मा को युक्त करते हैं, वे मोक्ष पाये हुए होते हैं ॥ २१ ॥

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    विषय

    मर्त्यलोक से देवलोक में

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार 'गृध्नु: अविशस्ता' आचार्य से शरीर व आत्मा का विवेक प्राप्त २. करनेवाला शिष्य मृत्युशय्या पर भी व्याकुल न होता हुआ अपने को प्रेरणा देता है कि वै उ निश्चय से (एतत्) = यह तू (न म्रियसे) = मरता नहीं, न रिष्यसि तू तो हिंसित होता ही नहीं । यदि यह शरीर छूट भी जाए तो (इत्) = निश्चय से (सुगेभिः पथिभिः) = सरल व अकुटिल मार्गों पर चलने से तू (देवान् एषि) = देवों को प्राप्त होता है, अर्थात् इस मर्त्यलोक में जन्म न लेकर देवलोक में जन्म लेनेवाला बनता है। यह मरना नहीं है, उत्कृष्ट लोक में जन्म लेना है। देवलोक में जन्म लेने का अधिकारी तू इसलिए बन सका कि ते तेरे ये हरी कर्मेन्द्रिय व ज्ञानेन्द्रियरूप (अश्व युञ्जा) = सदा कर्मों में लगे रहनेवाले तथा पृषती (पृष सेचने) तेरे जीवन को ज्ञान से सिक्त करनेवाले (अभूताम्) = हुए हैं। ३. यह इसलिए हो सका कि (रासभस्य) = [गृ शब्दे से गुरु, रास् शब्दे से रासभ] गुरुओं के (धुरि) = अग्रभाग में (वाजी) = [वाज- शक्ति, ज्ञान, त्याग व क्रिया] शक्तिशाली, ज्ञानी व त्यागपूर्वक क्रियाओं को करनेवाला (अगृध्नु) आचार्य (आस्थात्) = तुझे प्राप्त हुआ। ऐसे आचार्य की कृपा से ही ज्ञानी व ज्ञानपूर्वक क्रियाओं को करनेवाला बनकर तू देवलोक का अधिकारी बना है। =

    भावार्थ

    - भावार्थ - ज्ञानी पुरुष शरीरत्याग को मृत्यु समझकर भयभीत नहीं होता, उसे तो निश्चय है कि 'वह जन्म भी लेगा तो उत्कृष्ट लोक में लेगा', अतः भय का प्रश्न ही नहीं रहता।

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    विषय

    ज्ञानी विद्वान् और राष्ट्रपति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! ( वा उ ) निश्चय तू ( एतत् ) यह सत्य तत्व होने से कभी ( न म्रियसे ) मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। ( न रिष्यसि ) न तू कभी मारा जा सकता है। तू अमर होकर ( सुगेभिः पथिभिः ) सुख से गमन करने योग्य ज्ञान मार्गों से ( देवान् इत् ) ज्ञानप्रद तेजस्वी प्रिय विद्वानों को ही ( एषि ) प्राप्त हो । ( ते ) तेरे ( युञ्जा ) परस्पर संयुक्त, और योग द्वारा एकाग्र चित्त हुए ( हरी ) आगे बढ़ने वाले आत्मा और मन, प्राण और अपान दोनों ( पृषती ) सुख और ब्रह्मानन्द रस के वर्षण करने वाले ( अभूताम् ) होवें । और ( वाजी ) ज्ञान ऐश्वर्य से युक्त विद्वान् पुरुष ( रासभस्य ) अन्तर्नाद करने वाले परम उपदेष्टव्य आत्मा के ( धुरि ) मुख्य, परम, धारक स्वरूप में ( उप अस्थात् ) अवस्थिति करे । तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम् । योगसूत्र १ । ४॥ ( २ ) राष्ट्र पक्ष में—हे राष्ट्र ( एतत् नवा उ म्रियसे न रिष्यसि ) इस प्रकार सुव्यवस्था से तू कभी न मरे, न पीड़ित हो। ( सुगेभिः पथिभिः देवान् इत् एषि ) उत्तम, सुख से गमन करने योग्य मार्गों और उपायों से उत्तम व्यवहारों और योद्धाओं को प्राप्त हो । ( ते हरी पृषती युंजा अभूतां ) रथ में हृष्ट पुष्ट घोड़ों के समान दो योग्य नायक नियुक्त हो । ( वाजी ) ऐश्वर्यवान् ज्ञानी पुरुष ( रासभस्य धुरि उपअस्थात् ) उपदेष्टा आज्ञापक के धुरा अर्थात् मुख्य पद पर उपस्थित हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे योगाभ्यासाने समाहित चित्त असलेल्या दिव्य योगी लोकांचा चांगल्या प्रकारे संग करतात व धर्मयुक्त मार्गाने क्रमण करीत परमात्म्यात आपल्या आत्म्याला युक्त करतात त्यांनाच मोक्ष मिळतो. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Spirit of humanity, genius of the nation, soul of the individual, this you are, and such as you are, you shall not die, nor be hurt, nor hurt anyone, since you move in the direction of divinity by paths which are straight and sure. Two are the horses yoked to your resounding chariot: love of the Lord that attracts you, and Grace that holds you in stability. And the horse that is yoked to the centre-pole is faster than light and instant as the mind.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The efficacy of the Yoga and ideal life is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Soul has no relation with the digestive trouble, nor is it injured. Performing noble acts, it attains the state of enlightened persons. May the attributes of holding fast and attracting others, mildness and purity be yoked in your mind and soul with Yoga. May you be like a fast horse yoked in the chariot and which makes sound while moving.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons attain emancipation who perform meditation on God through the practice of Yoga, and associating with the Yogis: They yoke themselves with God, always treading upon the path of righteousness.

    Foot Notes

    (एतत् ) चेतनस्वरूपम् = The conscious nature of soul. (देवान्) विदुषो दिव्यान् पदार्थान् वा = For enlightened persons or divine articles. (हरी) धारणाकर्षणगुणौ = The attributes of holding fast and attraction. ( रासभस्य ) शब्दायमानस्य रथस्य = Of the chariot making sound while moving. (पृषती ) सेक्तारौ जलगुणौ = The attributes of water-mildness and purity. The mantra clearly establishes that the soul is immortal. Kathopanishad 2. 18 also devel ops this theme. न जायते म्रियते वायं विपश्चिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: and the Gita reinforces it — नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चनं क्लेदयन्त्यापो न च शोषयति मारुतः ॥

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