ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 14
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नि॒क्रम॑णं नि॒षद॑नं वि॒वर्त॑नं॒ यच्च॒ पड्बी॑श॒मर्व॑तः। यच्च॑ प॒पौ यच्च॑ घा॒सिं ज॒घास॒ सर्वा॒ ता ते॒ अपि॑ दे॒वेष्व॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठनि॒ऽक्रम॑णम् । नि॒ऽसद॑नम् । वि॒ऽवर्त॑नम् । यत् । च॒ । पड्बी॑शम् । अर्व॑तः । यत् । च॒ । प॒पौ । यत् । च॒ । घा॒सिम् । ज॒घास॑ । सर्वा॑ । ता । ते॒ । अपि॑ । दे॒वेषु॑ । अ॒स्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
निक्रमणं निषदनं विवर्तनं यच्च पड्बीशमर्वतः। यच्च पपौ यच्च घासिं जघास सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठनिऽक्रमणम्। निऽसदनम्। विऽवर्तनम्। यत्। च। पड्बीशम्। अर्वतः। यत्। च। पपौ। यत्। च। घासिम्। जघास। सर्वा। ता। ते। अपि। देवेषु। अस्तु ॥ १.१६२.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्वशिक्षक अर्वतो यन्निक्रमणं निषदनं विवर्त्तनं पड्वीशं चास्ति। अयं यच्च पपौ यद् घासिं च जघास ता सर्वा ते सन्तु एतत्सर्वं देवेष्वप्यस्तु ॥ १४ ॥
पदार्थः
(निक्रमणम्) निश्चितं पादविहरणम् (निषदनम्) निश्चितमासनम् (विवर्त्तनम्) विविधं वर्त्तनम् (यत्) (च) (पड्वीशम्) पादबन्धनमाच्छादनं वा (अर्वतः) शीघ्रं गन्तुरश्वस्य (यत्) (च) (पपौ) पिबति (यत्) (च) (घासिम्) अदनम् (जघास) अत्ति (सर्वा) सर्वाणि (ता) तानि (ते) तव (अपि) (देवेषु) (अस्तु) ॥ १४ ॥
भावार्थः
यथा सुशिक्षिता अश्वाः सुशीलाः सुगतयो भवन्ति तथा विद्वच्छिक्षिता जनाः सभ्या जायन्ते यथाश्वा मितं पीत्वा भुक्त्वा जरयन्ति तथा विचक्षणा जना अपि स्युः ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे घोड़े के सिखानेवाले ! (अर्वतः) शीघ्र जानेवाले घोड़े का (यत्) जो (निक्रमणम्) निश्चित चलना, (निषदनम्) निश्चित बैठना, (विवर्त्तनम्) नाना प्रकार से चलाना-फिराना (पड्वीशम्, च) और पिछाड़ी बाँधना तथा उसको उढ़ाना है और यह घोड़ा (यत्, च) जो (पपौ) पीता (यत्, घासिम्, च) और जो घास को (जघास) खाता है (ता) वे (सर्वा) समस्त उक्त काम (ते) तुम्हारे हों और यह समस्त (देवेषु) विद्वानों में (अपि) भी (अस्तु) हो ॥ १४ ॥
भावार्थ
जैसे सुन्दर सिखाये हुए घोड़े सुशील अच्छी चाल चलनेवाले होते हैं, वैसे विद्वानों की शिक्षा पाये हुए जन सभ्य होते हैं। जैसे घोड़े आहार भर पी खाके पचाते हैं, वैसे विचक्षण बुद्धि विद्या से तीव्र पुरुष भी हों ॥ १४ ॥
विषय
क्रियाओं में संयम व अमांस भोजन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार इस सुन्दर शरीर में स्थित होकर तेरा निक्रमणम् बाहर आनाजाना, (निषदनम्) = उठना-बैठना, (निवर्तनम्) = विविध चेष्टाएँ करना (यत् च) = और जो (अर्वतः) = वासनाओं का संहार करनेवाले का (पड्बीशम्) = पाद - बन्धन, अर्थात् गति का नियमन है, (ते) = तेरी (ता सर्वा) = वे सब बातें (देवेषु अपि अस्तु) = दिव्यगुणों के निमित्त ही हों, अर्थात् अनावश्यक रूप में घर से बाहर न जाकर घर में ही उठना-बैठना, क्लबों में न जाना- सज्जनों के साथ ही उठना-बैठना, हँसी व प्यार में भी अनुपयुक्त चेष्टा न करना तथा सब क्रियाओं पर नियन्त्रण तुझे उत्तम, दिव्य स्वभाववाला बनाए । २. (यत् च पपौ) = और तू जो जल पीता है, (यत् च) = और जो (घासिम्) = घास (जघास) = खाता है, अर्थात् मांस-भोजन से दूर रहकर वानस्पतिक भोजन ही करता है, यह तुझमें दिव्यगुणों की उन्नति का कारण बने । मांस-भोजन मानव-स्वभाव में क्रूरता लानेवाला होता है, अतः देव इससे दूर ही रहते हैं। 'पिशितं [मांसम्] अश्नाति इति पिशाचः, क्रव्यं अत्ति इति क्रव्यादः' इन व्युत्पत्तियों से यह स्पष्ट है कि मांस-भोजन पिशाचों व क्रव्यादों, अर्थात् राक्षसों का ही काम है।
भावार्थ
भावार्थ- सब क्रियाओं में संयम तथा मद्य-मांस से रहित वानस्पतिक भोजन हममें दिव्यगुणों की वृद्धि का कारण बने ।
विषय
राष्ट्र की अश्व से तुलना। उसके सब कार्यों पर विद्वानों की अध्यक्षता ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( अर्वतः ) अश्व का ( निक्रमणं ) नियम पूर्वक पैरों का उठा उठा कर रखना ( निषदनं ) नियम पूर्वक खड़ा होना, उस पर बैठना, (विवर्त्तनम् ) विविध प्रकार की चेष्टा करना, और ( पड्बीशम् ) चरण आदि का बांधना और वस्त्रादि का आच्छादन करना, और ( यत् च पपौ ) वह जो कुछ पीता है ( यत् च घासिं जघास ) वह जो घास आदि खाता है वह सब (देवेषु) व्यवहारकुशल और विज्ञ पुरुषों के अधीन रहता है। उसी प्रकार ( अर्वतः ) अश्व सैन्य, शत्रु नाशकारी राजा के भी ( निक्रमणं ) चलना फिरना, ( निषदनं ) बैठना उठना, ( पड्बीशम् ) आचरणादि नियम बंधन, और जो भी वह (पपौ) पीवे ( घासिं जघास ) जो भी वह अन्न खावे ( सर्वा ता ) वे सब तेरे काम हे ज्ञानवन् ! (देवेषु अस्तु) ऐश्वर्य ज्ञान और मान देने वाले गुरुजनों के अधीन हों । ( २ ) इसी प्रकार राष्ट्र को निकलने के मार्ग, ( निषदनं ) राजसभा आदि के अधिवेशन होने के स्थान, पदाधिकार के योग्य नियुक्ति, प्रजा के मान योग्य जल और अन्न इन सबका निरीक्षण विद्वान् पुरुषों के अधीन रहे । ( यजु० २५ । २८ )।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे प्रशिक्षित घोडे उत्तम चालीने चालतात, तसे विद्वानांकडून शिक्षण घेतलेले लोक सभ्य असतात. जसे घोडे आहार, खाणे-पिणे पचवितात तसे विशेष बुद्धीने माणसांनी विद्या प्राप्त करावी. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The horse’s forward march, the nation launching on action on the highway, its halting and settling for rest on the way, the U-turn and circulation in progression, the fetter control of law and the centre- hold of values for stability, what it drinks for pleasure and excitement and what it eats for nourishment: all these should be under control of the men of vision and brilliance for you all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The learned persons should act like good horse trainers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O trainer of the horse ! the starting, sitting, rolling and fastening of the horse, its drinking and diet all should be controlled by intelligent and learned persons, like you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The well-trained horses are prompt and well-behaved. Likewise men trained by the enlightened persons become cultured and civilized. As the horses eat and drink moderately and temperately and digest it well, so should intelligent persons do.
Foot Notes
It is thus quite clear that the mantra deals. mainly with the subject of training the horses and not sacrificing them, as has very erroneously been supposed by many Western and some of Eastern scholars.
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