ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 8
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद्वा॒जिनो॒ दाम॑ सं॒दान॒मर्व॑तो॒ या शी॑र्ष॒ण्या॑ रश॒ना रज्जु॑रस्य। यद्वा॑ घास्य॒ प्रभृ॑तमा॒स्ये॒३॒॑ तृणं॒ सर्वा॒ ता ते॒ अपि॑ दे॒वेष्व॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒जिनः॑ । दाम॑ । स॒म्ऽदान॑म् । अर्व॑तः । या । शी॒र्ष॒ण्या॑ । र॒श॒ना । रज्जुः॑ । अ॒स्य॒ । यत् । वा॒ । घ॒ । अ॒स्य॒ । प्रऽभृ॑तम् । आ॒स्ये॑ । तृण॑म् । सर्वा॑ । ता । ते॒ । अपि॑ । दे॒वेषु । अ॒स्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वाजिनो दाम संदानमर्वतो या शीर्षण्या रशना रज्जुरस्य। यद्वा घास्य प्रभृतमास्ये३ तृणं सर्वा ता ते अपि देवेष्वस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। वाजिनः। दाम। सम्ऽदानम्। अर्वतः। या। शीर्षण्या। रशना। रज्जुः। अस्य। यत्। वा। घ। अस्य। प्रऽभृतम्। आस्ये। तृणम्। सर्वा। ता। ते। अपि। देवेषु। अस्तु ॥ १.१६२.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वन् अस्यार्वतो वाजिनो यत्सन्दानं दाम या शीर्षण्या रशना रज्जुर्यद्वास्य घास्ये तृणं प्रभृतमस्तु तत्सर्वा ते देवेष्वपि सन्तु ॥ ८ ॥
पदार्थः
(यत्) (वाजिनः) बलवतोऽश्वस्य (दाम) दमनसाधनम् (सन्दानम्) सम्यक् दीयते यत्तत् (अर्वतः) शीघ्रं स्थानान्तरं प्राप्नुतः (या) (शीर्षण्या) शीर्ष्णि साधुः (रशना) व्यापिका (रज्जुः) (अस्य) (यत्) (वा) पक्षान्तरे (घ) एव (अस्य) (प्रभृतम्) प्रकृष्टतया धृतम् (आस्ये) (तृणम्) (सर्वा) सर्वाणि (ता) तानि (ते) तव (अपि) (देवेषु) (अस्तु) भवतु ॥ ८ ॥
भावार्थः
येऽश्वान् सुशिक्षितान् सुदमनानुत्तमाभरणान् पुष्टान् कृत्वैतैः कार्य्याणि साध्नुवन्ति ते सर्वाणि विजयादीनि साधितुं शक्नुवन्ति ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (अस्य) इस (अर्वतः) शीघ्र दूसरे स्थान को पहुँचानेवाले (वाजिनः) बलवान् घोड़ा की (यत्) जो (संदानम्) अच्छे प्रकार दी जाती (दाम) और घोड़ों को दमन करती अर्थात् उनके बल को दाबती हुई लगाम है (या) जो (शीर्षण्या) शिर में उत्तम (रशना) व्याप्त होनेवाली (रज्जुः) रस्सी है (यत् वा) अथवा जो (अस्य, घ) इसी के (आस्ये) मुख में (तृणम्) तृणवीरुध घास (प्रभृतम्) अच्छे प्रकार भरी (अस्तु) हो (ता) वे (सर्वा) समस्त (ते) तुम्हारे पदार्थ (देवेषु) विद्वानों में (अपि) भी हों ॥ ८ ॥
भावार्थ
जो घोड़ों को सुशिक्षित अच्छे इन्द्रिय दमन करनेवाले उत्तम गहनों से युक्त और पुष्ट कर इनसे कार्यों को सिद्ध करते हैं, वे समस्त विजय आदि व्यवहारों को सिद्ध कर सकते हैं ॥ ८ ॥
विषय
बन्धन व दिव्यता
पदार्थ
१. (यत्) = जो (वाजिनः) = शक्तिशाली पुरुष की (दाम) = ग्रीवा- बन्धन रज्जु है, अर्थात् ग्रीवा व कण्ठ का संयम है, बोल-चाल में युक्तचेष्ट है और २. (अर्वतः) = वासनाओं को हिंसित करनेवाले का (सन्दानम्) = पाद-बन्धन है। ‘पद गतौ' से बनकर 'पाद' शब्द गति का प्रतीक है। इस अर्वा की सब गति बड़ी संयत है। कर्मों में यह युक्त पुरुष की (शीर्षण्या) = शिर:-प्रदेश में होनेवाली संयमवाला है। सब ज्ञानेन्द्रियों को संयत करके = चेष्टावाला है। ३. (या) = जो (अस्य) = इस संयमी (रज्जुः) = रज्जु है, अर्थात् विचारों में भी यह यह पवित्र ज्ञानवाला बनता है और जो इसकी (रशना) = कटिप्रदेश में होनेवाली रज्जु है, इसका उदर का संयम है। पेट को संयत करके यह दामोदर बना है। ४. (यत् वा घ) = और जो निश्चय से (अस्य आस्ये) = इसके मुख में (तृणं प्रभृतम्) = तृण, अर्थात् वानस्पतिक भोजन ही प्रकर्षेण प्राप्त कराया गया है तो (ते) = तेरी (सर्वा ता) = ये सब बातें (अपि) = बहुत सम्भव करके [most probably] (देवेषु अस्तु) = दिव्यगुणों की उत्पत्ति का निमित्त बनें ।
भावार्थ
भावार्थ- कण्ठ, पाद, मस्तिष्क व उदर के संयम तथा वानस्पतिक भोजन से हम अपने जीवन में दिव्यगुणों का विकास करनेवाले बनें ।
विषय
अश्व के बन्धनों के समान राष्ट्रपति की मर्यादाएं ।
भावार्थ
( यत् वाजिनः दाम ) जिस प्रकार वेग से जाने वाले अश्व के दमन करने वाला बन्धन, (संदानम्) उत्तम पग आदि का बन्धन, ( शीर्षण्या रशना ) सिर पर बांधने वाली रस्सी और ( रज्जुः ) गले की रस्सी आदि होती है और जिस प्रकार ( प्रभृतम् तृणम् आस्ये ) उत्तम पुष्टिकारक घास आदि तृण मुख में दिया जाता है वह सब (देवेषु) विद्वान् व्यवहारकुशल पुरुषों के हाथ में होना चाहिए इसी प्रकार ( यत ) जो ( वाजिनः ) ज्ञानवान् और ऐश्वर्यवान् और बलवान् पुरुष का ( दाम ) दमन साधन, यम नियम पालन, और व्यवस्था हो, ( संदानम् ) उसका दान आदि करने का धन वैभव और दण्ड बल, अथवा ( दाम संदानम् ) सुन्दर बन्धन, शिरोवेष्ठन, मुकुट, पेटी आदि हो, और (या) जो ( अस्य अर्वतः ) इस ज्ञानी, बलवान् पुरुष की और अश्व सैन्य की ( शीर्षण्या ) मुख्य अंग या पद पर शोभा देने वाली (रशना) सर्वत्र राष्ट्र में व्यापक, ( रज्जुः ) सर्जनकारिणी या व्यवस्था निर्मात्री शक्ति या अधिकार हैं, ( यद् वा घ ), और जो ( अस्य आस्ये ) इसके प्रमुख स्थान पर ( तृणम् ) शत्रु और संकटों के काटने में समर्थ बलवान् सैन्य, ( प्रभृतम् ) अच्छी प्रकार से वेतन पर नियत है हे पुरुष ! ( ते ) तेरे (ता) वे सब पदार्थ ( देवेषु ) विद्वान् वीर पुरुषों के अधीन और उनके हित के लिये ( अपि अस्तु ) हुआ करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे घोड्यांना प्रशिक्षित करून चांगल्या प्रकारे दमन करून उत्तम अलंकारांनी युक्त व पुष्ट करून त्यांच्याकडून कार्य सिद्ध करून घेतात, ते संपूर्ण विजय प्राप्त करून घेऊ शकतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The law that controls the onward movement of this dynamic social order, symbolised by the foot-band of the mighty and tempestuous horse, is the law of self- restraint and Dharma. The reins and bridle which control it over the head and shoulders symbolise thought, wisdom and self-guidance. And the grass which is held in the mouth symbolises the nourishment and health of the nation. May all these be of holy nature and character fit for the divinities among humanity, and let all these be dedicated to the divinities that support life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The horse power should be powerful.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The fleet of horses is controlled by holding of bridles and saddles placed thereon. To make it strong, the grass and cereals are fed to them. Likewise, the learned people control and regulate their power of senses and take nourishing diet.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons can achieve success and victory etc. who train their horses well, who control them properly and keep them strong and in proper shape.
Foot Notes
(दाम) दमनसाधनम् = The means of control the rein, ( रशना ) व्यापका = Vast. (अर्वत:) शीघ्र स्थानान्तरं प्राप्नुवत: = Of the fleet steed or horse.
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