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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    एक॑स्य चिन्मे वि॒भ्व१॒॑स्त्वोजो॒ या नु द॑धृ॒ष्वान्कृ॒णवै॑ मनी॒षा। अ॒हं ह्यु१॒॑ग्रो म॑रुतो॒ विदा॑नो॒ यानि॒ च्यव॒मिन्द्र॒ इदी॑श एषाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑स्य । चि॒त् । मे॒ । वि॒ऽभु । अ॒स्तु॒ । ओजः॑ । या । नु । द॒धृ॒ष्वान् । कृ॒णवै॑ । म॒नी॒षा । अ॒हम् । हि । उ॒ग्रः । म॒रु॒तः॒ । विदा॑नः । यानि॑ । च्यव॑म् । इन्द्रः॑ । इत् । ई॒शे॒ । ए॒षा॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकस्य चिन्मे विभ्व१स्त्वोजो या नु दधृष्वान्कृणवै मनीषा। अहं ह्यु१ग्रो मरुतो विदानो यानि च्यवमिन्द्र इदीश एषाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकस्य। चित्। मे। विऽभु। अस्तु। ओजः। या। नु। दधृष्वान्। कृणवै। मनीषा। अहम्। हि। उग्रः। मरुतः। विदानः। यानि। च्यवम्। इन्द्रः। इत्। ईशे। एषाम् ॥ १.१६५.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मरुतो यथैकस्य चिन्मे विभ्वोजोऽस्तु या दधृष्वानहं तथा तद्धि वोऽस्तु तानि सहत यथाहं मनीषा नु विद्या कृणवै उग्रो विदान इन्द्रः सन् यानि च्यवमेषामिदीशे च तथा यूयं वर्त्तध्वम् ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (एकस्य) (चित्) अपि (मे) मम (विभु) व्यापकम् (अस्तु) भवतु (ओजः) बलम् (या) यानि (नु) सद्यः (दधृष्वान्) प्रसोढा (कृणवै) कर्त्तुं शक्नुयाम् (मनीषा) प्रज्ञया (अहम्) (हि) किल (उग्रः) तीव्रः (मरुतः) मरुद्वद्वर्त्तमानाः (विदानः) विद्वान् (यानि) (च्यवम्) प्राप्नुयाम् (इन्द्रः) दुःखच्छेत्ता (इत्) एव (ईशे) (एषाम्) प्राणिनाम् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जगदीश्वरोऽनन्तपराक्रमवान् व्यापकोऽस्ति तथा विद्वांसः सर्वेषु शास्त्रेषु धर्मकृत्येषु च व्याप्नुवन्तु न्यायाधीशा भूत्वैतेषां मनुष्यादीनां सुखं संपादयन्तु ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) पवनों के समान वर्त्तमान सज्जनो ! जैसे (एकस्य) एक (चित्) ही (मे) मेरे को (विभु) व्यापक (ओजः) बल (अस्तु) हो और (या) जिनको (दधृष्वान्) अच्छे प्रकार सहनेवाला मैं होऊँ वैसे वह बल (हि) निश्चय से तुम्हारा हो और उनका सहन तुम करो। जैसे (अहम्) मैं (मनीषा) बुद्धि से (नु) शीघ्र (कृणवै) विद्या कर सकूँ और (उग्रः) तीव्र (विदानः) विद्वान् (इन्द्र) दुःख का छिन्न-भिन्न करनेवाला होता हुआ (यानि) जिन पदार्थों को (च्यवम्) प्राप्त होऊँ और (एषाम्, इत्) इन्हीं प्राणियों का (ईशे) स्वामी होऊँ वैसे तुम वर्त्तो ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जगदीश्वर अनन्त पराक्रमी और व्यापक है, वैसे विद्वान् जन समस्त शास्त्र और धर्मकृत्यों में व्याप्त होवें और न्यायाधीश होकर इन मनुष्यादि के सुखों को संपादन करें ॥ १० ॥

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    विषय

    ओज, शत्रुधर्षण व बुद्धि

    पदार्थ

    १. प्रभु प्राणसाधकों से कहते हैं कि एकस्य चित् मे अद्वितीय जो मैं, उसकी ओजः शक्ति विभु व्यापक अस्तु हो । दधृष्वान् शत्रुधर्षक मैं नु- अब या= जिन भी कर्मों को कृणवै = करता हूँ, उन्हें मनीषा बुद्धिपूर्वक ही करता हूँ। प्रभु की प्रत्येक कृति में बुद्धि प्रतिभासित होती है। वेदों की वाक्य-रचना भी बुद्धिपूर्वक है। कर्मों की पूर्ण सफलता का रहस्य तीन बातों में ही है- (क) ओज, (ख) शत्रुधर्षण, (ग) बुद्धि । जो भी मनुष्य इन तीन बातों को सिद्ध करके कर्म करेगा, वह अवश्य सफल होगा। ३. हे प्राणसाधको! अहम् - मैं हि निश्चय से उग्रः=तेजस्वी हूँ, विदान:- ज्ञानी हूँ, यानि-जिन भी वसुओं की ओर मैं च्यवम् जाता हूँ (एषाम्) = इन सबका (ईश:) = ईश इत् ही होता हूँ । (इन्द्रः) = मैं ही तो इन्द्र हूँ, परमैश्वर्यशाली हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की उपासना से 'ओज, शत्रुधर्षण व बुद्धि' को सिद्ध करके हम प्रत्येक कर्म को सलतापूर्वक करनेवाले बनें ।

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    विषय

    अद्वितीय शासक ।

    भावार्थ

    ( एकस्य चित् ) एक, अद्वितीय ही ( मे ) मेरा ( विभुः ) व्यापक, विशेष ( ओजः ) बल, पराक्रम ( अस्तु ) हो । मैं ( या ) जिन कर्मों को भी ( मनीषा ) मन की शक्ति से, या संकल्प की शक्ति से ( दधृष्वान् ) वश कर लेता हूं उनको ( कृणवै ) करने में समर्थ होता हूँ । हे ( मरुतः ) वीरो ! विद्वान् पुरुषो ! ( अहं हि ) मैं निश्चय से ( उग्रः ) बलवान् ( विदानः ) और विद्वान् होकर ( यानि ) जिनको भी ( च्यवम् ) प्राप्त कर लेता हूं, मैं ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता, ऐश्वर्यवान् (एषाम् इत् ईशे) उन पर ही अपना प्रभुत्व करता हूं । इसी प्रकार परमेश्वर का बल व्यापक है । वह अद्वितीय ही अपने व्यापक बल से सृष्टि के कार्य करता, वह ज्ञानवान्, बलवान्, जिन पदार्थों में व्यापक है उन सब पर वह वशी है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा जगदीश्वर अनन्त पराक्रमी व व्यापक आहे तसे विद्वान लोकांनी संपूर्ण शास्त्र व धर्मकृत्यात व्याप्त व्हावे व न्यायाधीश बनून माणसांना सुख द्यावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I am one and independent, may my vigour and splendour grow and spread all round since, bold and daring, whatever I do and want to do, I do with all my mind and soul. O Maruts, heroes of the winds and tempests, I am bright and lustrous, I am Indra, master of my own powers. I am knowledgeable, I know what I know. Wherever I move, whatever I achieve, surely I rule and govern.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Men should try to inculcate the Divine qualities.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    God says – O mighty men ! My power is all-pervading and irresistible. I overcome and surpass all. I quickly accomplish whatever I desire. I give all wisdom and all knowledge. I am Omnipotent, Omniscient and Omnipresent and the lord of all. I am also the destroyer of miseries and am fierce for the wicked unrighteous persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God is Omnipotent and Omnipresent, let the learned persons wade through all the shastras (be well-versed in them) and be engaged in all righteous actions. Being dispensers of justice, let them bring about the welfare of all men and other beings.

    Foot Notes

    (इन्द्रः) दुःखच्छेत्ता = Destroyer of all miseries.

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