ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 3
कुत॒स्त्वमि॑न्द्र॒ माहि॑न॒: सन्नेको॑ यासि सत्पते॒ किं त॑ इ॒त्था। सं पृ॑च्छसे समरा॒णः शु॑भा॒नैर्वो॒चेस्तन्नो॑ हरिवो॒ यत्ते॑ अ॒स्मे ॥
स्वर सहित पद पाठकुतः॑ । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । माहि॑नः । सन् । एकः॑ । या॒सि॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ । किम् । ते॒ । इ॒त्था । सम् । पृ॒च्छ॒से॒ । स॒म्ऽअ॒रा॒णः । शु॒भा॒नैः । वो॒चेः । तत् । नः॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । यत् । ते॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुतस्त्वमिन्द्र माहिन: सन्नेको यासि सत्पते किं त इत्था। सं पृच्छसे समराणः शुभानैर्वोचेस्तन्नो हरिवो यत्ते अस्मे ॥
स्वर रहित पद पाठकुतः। त्वम्। इन्द्र। माहिनः। सन्। एकः। यासि। सत्ऽपते। किम्। ते। इत्था। सम्। पृच्छसे। सम्ऽअराणः। शुभानैः। वोचेः। तत्। नः। हरिऽवः। यत्। ते। अस्मे इति ॥ १.१६५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र सत्पते माहिन एकः सँस्त्वं सूर्य इव कुतो यासि त इत्था किमस्ति। हे हरिवः समराणस्त्वं यत्ते मनस्यस्मे वर्त्तते तच्छुभानैर्नोऽस्मान् वोचेर्यतस्त्वं संपृच्छसे च ॥ ३ ॥
पदार्थः
(कुतः) कस्मात् (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (माहिनः) महिमायुक्तः। अत्र महेरिनण् चेत्युणादौ सिद्धः। (सन्) (एकः) असहायः (यासि) गच्छसि (सत्पते) सतां पालक (किम्) (ते) (इत्था) अनेन (हेतुना) (सम्) (पृच्छसे) (समराणः) सम्यक् प्राप्नुवन् (शुभानैः) शुभैर्वचनैः (वोचेः) उच्याः (तत्) (नः) अस्मान् (हरिवः) प्रशस्ता हरयो हरणगुणा विद्यन्ते यस्मिँस्तत्सम्बुद्धौ (यत्) (ते) तव (अस्मे) अस्माकम् ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य एकाकी सर्वानाकृष्य प्रकाशते। यथाऽऽप्तो विद्वान् सर्वत्र भ्राम्यन् सर्वान् सत्यपालकान् करोति तथा त्वं क्व गच्छसि कस्मादायासि किं करोषीति पृच्छामि। वदस्वोत्तरम्। धर्म्ये मार्गे गच्छामि। गुरुकुलादायामि। अध्यापनमुपदेशञ्च करोमीति समाधानम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (सत्पते) सज्जनों के पालनेवाले ! (माहिनः) महिमायुक्त (एकः) इकिले (सन्) होते हुए (त्वम्) आप सूर्य के समान (कुतः) कहाँ से (यासि) जाते हैं (ते) आपका (इत्था) इस प्रकार से (किम्) क्या है। हे (हरिवः) प्रशंसित गुणोंवाले ! (समराणः) अच्छे प्रकार प्राप्त हुए आप (यत्) जो (ते) आपके मन में (अस्मे) हम लोगों के लिये वर्त्तता है (तत्) उसको (शुभानैः) उत्तम वचनों से (नः) हम लोगों के प्रति (वोचेः) कहो जिससे आप (सं पृच्छसे) सम्यक् पूछते भी हैं अर्थात् हमारी व्यवस्था आप पूछते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य एकाएकी सबको खींचके आप प्रकाशमान होता है वा जैसे आप्त विद्वान् सर्वत्र भ्रमण करता हुआ सबको सत्य पालनेवाले करता है, वैसे तू कहाँ जाता है ? कहाँ से आता है ? क्या करता है ? यह पूछता हूँ, उत्तर कह। धर्मयुक्त मार्गों को जाता हूँ। गुरुकुल से आता हूँ। पढ़ाना वा उपदेश करता हूँ। यह समाधान है ॥ ३ ॥
विषय
भक्त का उपालम्भ
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (माहिनः सन्) = अत्यन्त महिमावाले होते हुए (कुतः) = क्यों (एकः यासि) = अकेले ही गति कर रहे हो ? हमें भी तो अपने पीछे आने दीजिए। और (सत्पते) = हे सज्जनों के रक्षक! (किम्) = क्या ते आपका यह एकाकी विचरण इत्था ठीक है ? इस प्रकार आप सज्जनों के रक्षक भी कैसे कहला सकते हैं? सज्जनों से मिलने पर ही तो आप उनका रक्षण करेंगे। (समराणः) = [सम् ऋ) हमसे संगत होते हुए आप संपृच्छसे हमसे इस प्रकार प्रार्थना किये जाते हो कि (हरिवः) = हे उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले – उत्तम इन्द्रियाश्वों को हमारे लिए प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (यत्) = जो ते आपका ज्ञान (अस्मे) = हमारे लिए है (तत्) = उसे (नः) = हमारे लिए (शुभानैः) = शुभ शब्दों से (वोचे:) = प्रतिपादित कीजिए। आपसे इस ज्ञान को प्राप्त करके ही हम अपने कल्याण को सिद्ध कर सकेंगे।
भावार्थ
भावार्थ – प्रभु की महिमा इसी में है कि वे सज्जनों के रक्षण में प्रवृत्त हैं और जिज्ञासुओं के लिए शुभ ज्ञान प्राप्त करा रहे हैं ।
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1156
ओ३म् कुत॒स्त्वमि॑न्द्र॒ माहि॑न॒: सन्नेको॑ यासि सत्पते॒ किं त॑ इ॒त्था ।
सं पृ॑च्छसे समरा॒णः शु॑भा॒नैर्वो॒चेस्तन्नो॑ हरिवो॒ यत्ते॑ अ॒स्मे ॥
ऋग्वेद 1/165/3
राजा कहलाते हो
ना कोई है अङ्ग रक्षक
ना सवारी पे आते हो
सम्राट हो विश्व के तुम
एकाकी विचरते हो
ना सुरक्षक ना सैनिक
तुम भय को भगाते हो
राजा कहलाते हो
ना ज़रूरत है रक्षा की
तुम खुद दया-वर्षक हो
करते हो सारे प्रबन्ध
तुम सत्पति रक्षक हो
कैसा अद्भुत शासन
तुम अकेले करते हो
ना ही भूल कोई करते
प्रजा पालन करते हो
राजा कहलाते हो
हे महेन्द्र ! सम्राट हो तुम
हम प्रजा तुम्हारी हैं
'हरिवान्' हो गुणकारी
दया-दृष्टि सुखारी है
सत्कर्मों के उत्साहक
और प्रेरणादायक हो
कर्तव्य उपदेश करो
मार्गदर्शन करते रहो
राजा कहलाते हो
केवल तव आश्रय है
हमें पाप दुरित से बचा
कल्याण की राह सुझा
सत्कर्म की राह चला
आश्रय जग का शंकित
क्या क्यों कब देंगे भला
हर कष्ट विपद् दु:ख में
तुम रक्षा करते हो
राजा कहलाते हो
ना कोई है अङ्ग रक्षक
ना सवारी पे आते हो
सम्राट हो विश्व के तुम
एकाकी विचरते हो
ना सुरक्षक ना सैनिक
तुम भय को भगाते हो
राजा कहलाते हो
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- ४.१०.२०२१ १८.२५सायं
राग :- यमन कल्याण
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- राजा होते हुए भी अकेला 🎧733वां वैदिक भजन👏🏽
*तर्ज :- *
00141-741
एकाकी = अकेला
सत्पति = श्रेष्ठ और विलक्षण रक्षक
हरिवान = मनोहर गुण कर्म वाले
सुखारी = सुख देने वाले
दुरित = दुष्कृत, बुरे काम
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
राजा होते हुए भी अकेला
संसार में हम देखते हैं कि जो जितना अधिक प्रतिष्ठित और महान होता है उतने ही अधिक कर्मचारी और सेवक उसके साथ विद्यमान रहते हैं। किसी राजा की जब सवारी निकलती है तो अमात्य, परामर्शदाता प्रधान अंगरक्षक सुरक्षा सैनिक आदि सैकड़ों लोग आगे पीछे चलते हैं। परन्तु हे परब्रह्म परमात्मा! तुम विश्व के महान चक्रवर्ती सम्राट होते हुए भी एकाकी (अकेले) विचरते हो इसमें क्या रहस्य है? क्या तुम्हें किसी का भय नहीं है? तुम जो अपने विश्व- साम्राज्य के दौरे करते हो व्यवस्था देखते हो समुचित प्रबन्ध करते हो, वह तुम अकेले कैसे कर लेते हो? तुम भी प्रदर्शन के लिए ही सही अपने साथ सैकड़ों अनुचरों को साथ लेकर क्यों नहीं चलते? नहीं, हम भूल करते हैं। तुम तो 'सत्पति' हो श्रेष्ठ और विलक्षण रक्षक हो जो दूसरों की रक्षा करने का सामर्थ्य रखता है वह अपनी रक्षा के लिए पराश्रित क्यों होगा? तुम्हें किसी का भय नहीं है। कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। तुम शोभा के साथ एकाकी विचरते हो ।
हे महेन्द्र! तुम सम्राट हो हम तुम्हारी प्रजा हैं। तुम हमसे मिलकर प्यार भरे शुभ वचनों से हमारा कुशलक्षेम पूछते हो हमारे सुख-दुख का प्रतिवेदन सुनते हो हमारे कर्मों एवं आचरणों को देखते हो सब कर्मों के लिए हमें उत्साहित करते हो और जहां कहीं त्रुटि देखते हो उसके सुधार की प्रेरणा करते हो। तुम 'हरिवान' हो मनोहर गुण कर्मों वाले हो। हमारी तुम से प्रार्थना है कि हमारे प्रति तुम्हारा जो कर्तव्य- उपदेश है उसे तुम हमें सदा कहते रहो। जब कभी हम कुराह पर चलने लगें तब तुम मार्ग दर्शक बनकर हमें कर्तव्य पथ पर अग्रसर करते रहो। जिसके प्रति हमारा जो कर्तव्य है,वह तुम हमें निर्दिष्ट करते रहो। अन्यथा कुसंगति आदि में पड़कर हम मार्ग भ्रष्ट हो जाएंगे,और ना अपना कल्याण कर पाएंगे, ना ही जगत् को कल्याण दे पाएंगे। हे राजा होते हुए भी अकेले रहने वाले देवाधिदेव! हम तुम्हारा ही आश्रय पकड़ना चाहते हैं,क्योंकि वे बड़े लोग भला हमें क्या सहारा दे सकेंगे जो स्वयं अपनी रक्षा के लिए परावलम्बी बने हुए हैं।
विषय
अद्वितीय शक्ति के विषय में प्रश्न ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! विद्वन् ! प्रभो ! ( त्वम् ) तू ( माहिनः ) सबसे अधिक महान्, पूजनीय होकर ( एकः ) एक, अद्वितीय होकर ( कुतः ) किस बल पर ( यासि ) गमन करता है ? हे ( सत्पते ) सज्जनों के पालक ( ते इत्था किम् ) तेरा ऐसा बल क्यों कर है ? हे विद्वन् ! तू ( समराणः ) हमसे मिलता हुआ ही ( संपृच्छसे ) अच्छी प्रकार कुशल आदि प्रश्न किया करता है । अतः हे ( हरिवः ) उत्तम आकर्षक गुणों से युक्त, दुखहारी साधनों से युक्त ! वेगवान् रथ आदि साधनों से सम्पन्न ! वा मनुष्यों के स्वामिन् ! (ते) तेरा ( यत् ) जो भी ( अस्मे ) हमारे लिये हितकारी वचन हो वह (शुभानैः) उत्तम उत्तम उपायों से ( नः ) हमें ( वोचेः ) उपदेश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य एकटा सर्वांना आकर्षित करून स्वतः प्रकाशमान होतो, जसा आप्त विद्वान सर्वत्र भ्रमण करून सर्वांना सत्यपालन करायला लावतो, तसे तू कुठे जातोस? कुठून येतोस? काय करतोस हे विचारल्यावर उत्तर सांग की धर्ममार्गाने चालतो. गुरुकुलाहून येतो. अध्यापन व उपदेश करतो हे त्याचे निराकरण आहे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of might and grandeur, protector of truth and right, you are so great, unique, still you go all alone by yourself, without attendant, assistant or retinue? Wherefrom? Where to? This way? What does it mean? We ask you, friend and comrade, lord of sunbeams, whatever is in your mind for us, pray speak in good words.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The inquisitiveness of a person seeking truth is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O prosperous protector of the good people ! where do you go alone like the sun ? Why do you behave like this or what is your motive of future program me ? O man of charming nature! tell us in sweet words when you approach us and are questioned by us ? What is in your mind about us?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun illuminates and attracts the people, and as an absolutely truthful learned person transforms others by visiting everywhere for preaching truth, so where do you go ? From which place you come and what do you do? These are the questions, that I put to you. I go on the path righteousness, came from the Gurukula and I teach and preach, are the answers.
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