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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वधीं॑ वृ॒त्रं म॑रुत इन्द्रि॒येण॒ स्वेन॒ भामे॑न तवि॒षो ब॑भू॒वान्। अ॒हमे॒ता मन॑वे वि॒श्वश्च॑न्द्राः सु॒गा अ॒पश्च॑कर॒ वज्र॑बाहुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वधी॑म् । वृ॒त्रम् । म॒रु॒तः॒ । इ॒न्द्रि॒येण॑ । स्वेन॑ । भामे॑न । त॒वि॒षः । ब॒भू॒वान् । अ॒हम् । ए॒ताः । मन॑वे । वि॒श्वऽच॑न्द्राः । सु॒ऽगाः । अ॒पः । च॒क॒र॒ । वज्र॑ऽबाहुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वधीं वृत्रं मरुत इन्द्रियेण स्वेन भामेन तविषो बभूवान्। अहमेता मनवे विश्वश्चन्द्राः सुगा अपश्चकर वज्रबाहुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वधीम्। वृत्रम्। मरुतः। इन्द्रियेण। स्वेन। भामेन। तविषः। बभूवान्। अहम्। एताः। मनवे। विश्वऽचन्द्राः। सुऽगाः। अपः। चकर। वज्रऽबाहुः ॥ १.१६५.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मरुतो वज्रबाहुर्बभूवानहं यथा सूर्यो वृत्रं हत्वाऽपः सुगाः करोति तथा स्वेन भामेनेन्द्रियेण तविषश्च शत्रून् वधीं मनवे विश्वश्चन्द्रा एताश्श्रियश्चकर ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (वधीम्) हन्मि (वृत्रम्) मेघम् (मरुतः) प्राणवत् प्रियाः (इन्द्रियेण) मनसा (स्वेन) स्वकीयेन (भामेन) क्रोधेन (तविषः) बलात् (बभूवान्) भविता (अहम्) (एताः) (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (विश्वश्चन्द्राः) विश्वानि चन्द्राणि सुवर्णानि याभ्यस्ताः (सुगाः) सुष्ठुगच्छन्ति ताः (अपः) जलानि (चकर) करोमि (वज्रबाहुः) वज्रो बाहौ यस्य सः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यप्रेरितया वृष्ट्या सर्वं जगज्जीवति तथा शत्रुविघ्ननिवारणेन सर्वे प्राणिनो जीवन्ति ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) प्राण के समान प्रिय विद्वानो ! (वज्रबाहुः) जिसके हाथ में वज्र है (बभूवान्) ऐसा होनेवाला (अहम्) मैं जैसे सूर्य (वृत्रम्) मेघ को मार (अपः) जलों को (सुगाः) सुन्दर जानेवाले करता है वैसे (स्वेन) अपने (भामेन) क्रोध से और (इन्द्रियेण) मन से (तविषः) बल से शत्रुओं को (वधीम्) मारता हूँ और (मनवे) विचारशील मनुष्य के लिये (विश्वश्चन्द्राः) समस्त सुवर्णादि धन जिनसे होते (एताः) उन लक्ष्मियों को (चकर) करता हूँ ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य से प्रेरित वर्षा से समस्त जगत् जीवता है, वैसे शत्रुओं से होते हुए विघ्नों को निवारने से सब प्राणी जीवते हैं ॥ ८ ॥

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    विषय

    'सुगाः, विश्वश्चन्द्राः' आपः

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो! (स्वेन इन्द्रियेण) = [इन्द्रियम्=वीर्यं, बलम्] अपनी शक्ति से (वृत्रं वधीम्) = मैंने वासना को नष्ट किया है। मैं (भामेन) तेजो दीप्ति से (तविष:) = बलवान् (बभूवान्) = हुआ हूँ। प्रभु महादेव हैं । इन्द्र के रूप में वे वृत्र का विनाश करनेवाले हैं। जीव भी 'इन्द्र' है। इसे भी वासनारूप वृत्र को नष्ट करके अपने नाम को सार्थक करना है। २. प्रभु कहते हैं कि अहम् = मैं वज्रबाहुः सदा क्रियाशील हाथोंवाला (एता:) = इन (सुगा:) = उत्तम गति के कारणभूत (अपः) = रेतः कणरूप जलों को (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए (विश्वश्चन्द्रः) = सब प्रकार से आह्लादजनक चकर करता हूँ। ये रेत:कण 'सुगा:' उत्तम गति का कारण हैं, ‘विश्वश्चन्द्राः' आह्लाद को प्राप्त करानेवाले हैं। इनके रक्षण के लिए 'वज्रबाहु:'- क्रियाशील हाथोंवाला होना आवश्यक है। 'मनवे' शब्द यह संकेत कर रहा है कि इन रेत: कणों के महत्त्व का मनन करनेवाला ही इनका रक्षण करेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ – क्रियाशीलता के द्वारा वासना को नष्ट करके हम उत्तम गतिवाले व आनन्दमय शक्तिशाली जीवनवाले बनें ।

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    विषय

    राजा के राष्ट्र में उत्तम कार्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( इन्द्रियेण वृत्रं ) इन्द्र अर्थात् विद्युत् के बल से सूर्य ( स्वेन भामेन तविषः बभूवान् ) अपनी उग्रता से बलवान् हो कर ( वज्रबाहुः ) तेजो रूप विद्युत् वज्र से मेघों को पीड़ित करने वाला होकर ( विश्वचन्द्राः अपः सुगा चकर) समस्त संसार को आल्हाद करने वाले जल धाराओं को सुख से नीचे बहा देता है, उसी प्रकार हे ( मरुतः ) वीर सैनिको ! मैं ( स्वेन भामेन ) अपने क्रोध, उग्रता से ( तविषः बभूवान् ) बलवान् होकर ( वृत्रं वधीम् ) राष्ट्र को घेरने और अपने से बढ़ने वाले शत्रु को नाश करने में समर्थ होता हूं। और ( अहम् ) मैं ( वज्रबाहुः ) शस्त्रास्त्र और यन्त्र कलादि हाथ में धारण कर, उनसे बाधक कारणों को दूर करते हुए, सबका नायक हो ( मनवे ) मननशील विद्वान् प्रजाजन के हित के लिये ( एताः ) इन नाना प्रकार की ( अपः ) जलों, जल धाराओं, नदी तड़ाग आदि को आह्लादजनक और ( सुगाः) सुख से बहने वाले नहर आदि रूप में और सुख से भोगने योग्य तीर्थ आदि द्वारा ( चकर ) बनाता हूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी सूर्यामुळे वृष्टी होऊन संपूर्ण जग जगते. तसे शत्रूंचे निवारण करून सर्व प्राणी जिवंत राहतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, heroes of furious energy and power, I break the clouds of darkness with my own might, being powerful by my own passion for what is right, and, holding the thunderbolt in hand, I do these acts of universal wealth and beauty for the sake of humanity, acts which clear the paths for future progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the learned are detailed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise men ! You are dear to me like my own Pranas (life ). Armed with my thunder-bolt or powerful weapons, I, the king (or Commander-in-chief) destroy my enemies with my wrath. My strength of senses, mind and soul are like the sun who thrashes all the clouds and makes the blocked water-currents gently flowing. The thoughtful persons get easily the riches full of gold.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the whole world lives happily by the rain caused by the sun, similarly all beings live happily after the removal of the obstacles caused by enemies.

    Foot Notes

    (भामेन) क्रोधेन = with wrath. (विश्वश्चन्द्राः) विश्वानि चन्द्राणि सुवर्णानि याभ्यस्ता: = Riches full of all gold.

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