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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अतो॑ व॒यम॑न्त॒मेभि॑र्युजा॒नाः स्वक्ष॑त्रेभिस्त॒न्व१॒॑: शुम्भ॑मानाः। महो॑भि॒रेताँ॒ उप॑ युज्महे॒ न्विन्द्र॑ स्व॒धामनु॒ हि नो॑ ब॒भूथ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अतः॑ । व॒यम् । अ॒न्त॒मेभिः॑ । यु॒जा॒नाः । स्वऽक्ष॑त्रेभिः । त॒न्वः॑ । शुम्भ॑मानाः । महः॑ऽभिः । एता॑न् । उप॑ । यु॒ज्म॒हे॒ । नु । इन्द्र॑ । स्व॒धाम् । अनु॑ । हि । नः॒ । ब॒भूथ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतो वयमन्तमेभिर्युजानाः स्वक्षत्रेभिस्तन्व१: शुम्भमानाः। महोभिरेताँ उप युज्महे न्विन्द्र स्वधामनु हि नो बभूथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतः। वयम्। अन्तमेभिः। युजानाः। स्वऽक्षत्रेभिः। तन्वः। शुम्भमानाः। महःऽभिः। एतान्। उप। युज्महे। नु। इन्द्र। स्वधाम्। अनु। हि। नः। बभूथ ॥ १.१६५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र यतस्त्वं हि नस्स्वधामनु बभूथैतानुप युङ्क्षेऽतो वयमेतांश्च युजानाः स्वक्षत्रेभिस्तन्वः शुम्भमाना अन्तमेभिर्महोभिर्नूप युज्महे ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (अतः) अस्माद्धेतोः (वयम्) (अन्तमेभिः) समीपस्थैः। अन्तमानामित्यन्तिकना०। निघं० २। १६। (युजानाः) (स्वक्षत्रेभिः) स्वकीयै राज्यैः (तन्वः) तनूः (शुम्भमानाः) शुभगुणाढ्याः सम्पादयन्तः (महोभिः) महत्तमैः (एतान्) (उप) (युज्महे) समादधीमहि। अत्र बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक्। (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (स्वधाम्) अन्नमुदकं वा (अनु) (हि) किल (नः) अस्माकम् (बभूथ) भवसि ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये शरीरेण बलारोग्ययुक्ता धार्मिकैर्बलिष्ठैर्विद्वद्भिः सर्वाणि कर्माणि समादधानाः सर्वेषां सुखाय वर्त्तमाना महद्राज्यन्यायायोपयुञ्जते ते सद्यो धर्मार्थकाममोक्षसिद्धिमाप्नुवन्ति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त पुरुष ! जिस कारण आप (हि) ही (नः) हमारे (स्वधाम्) अन्न और जल का (अनु, बभूथ) अनुभव करते हैं (अतः) इससे (वयम्) हम लोग (एतान्) इन पदार्थों को (युजानाः) युक्त और (स्वक्षत्रेभिः) अपने राज्यों में (तन्वः) शरीरों को (शुम्भमानाः) शुभगुणयुक्त करते हुए (अन्तमेभिः) समीपस्थ (महोभिः) अत्यन्त बड़े कामों से (नु) शीघ्र (उप, युज्महे) उपयोग लेते हैं ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो शरीर से बल और आरोग्ययुक्त धार्मिक बलिष्ठ विद्वानों से सब कामों का समाधान करते हुए सबके सुख के लिये वर्त्तमान अत्यन्त राज्य के न्याय के लिये उपयोग करते हैं, वे शीघ्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    इन्द्रियों का निरोध व आत्मशक्ति से अपने को अलंकृत करना

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (अतः) = इस प्रकार-गत मन्त्र के अनुसार आपसे दिये गये ज्ञान, बुद्धि और बल के द्वारा (वयम्) = हम (अन्तमेभिः) = अन्तिकतम-समीप रहनेवाली-विषयों में न भटकनेवालीइन्द्रियों से (युजाना) = युक्त होते हुए तथा (स्वक्षेत्रेभिः) = आत्मिक बलों से (तन्वः) = शरीरों को (शुम्भमानाः) = शोभित करते हुए (महोभिः) = उपासना व पूजा के द्वारा प्राप्त तेजों के द्वारा (एतान्) = इन इन्द्रियाश्वों को (उपयुज्महे) = समीपता से अपने साथ सङ्गत करते हैं। इनको भटकने न देकर हम अन्दर ही धारण करते हैं। उपनिषत् के शब्दों में 'आवृत्तचक्षु' बनते हैं । २. (नु) = अब-इन्द्रियों को अपने अन्दर धारण करने पर (इन्द्र) = हे परमात्मन् ! (स्व-धाम्-अनु) = आत्मतत्त्व के धारण के अनुसार हि निश्चय से आप (नः) = हमारे (बभूथ) = होते हो। जितना जितना हम आत्मा का धारण करते हैं, उतना उतना हम प्रभु के होते जाते हैं। प्राकृतिक भोगों की ओर जाना प्रकृति का हो जाना है। इन भोगों से ऊपर उठकर आत्मतत्त्व को अपनाना ही प्रभु का बन जाना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इन्द्रियों को अन्दर ही निरुद्ध करें। आत्मशक्तियों से अपने को शोभित करें। यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है।

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    विषय

    वीरोंवत् मुमुक्षुओं वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( हि ) क्योंकि तू ( नः ) हमारे (स्वधाम्) ‘स्व’ अर्थात् शरीर को धारण करने योग्य वृत्ति को (अनु बभूथ ) प्रदान करता है ( अतः ) इस लिये ( वयम् ) हम सैनिक लोग ( तन्वः शुम्भमानाः ) देहों को चमकाते और सुशोभित करते और ( अन्तमेभिः ) अपने समीप के (महोभिः) बड़े बड़े ( स्वक्षत्रेभिः ) अपने बलों, सैन्यों और राष्ट्रों सहित (युजानाः ) तेरा साथ देते हुए ( एतान् ) इन समस्त पदार्थों को (उपयुज्महे) हम अपने उपयोग में लेते हैं। अथवा ( एतान् ) इन गतिशील अश्वों को रथों में लगाते हैं । अध्यात्म में—हे परमेश्वर ! तू हमारे (स्वधाम् अनु बभूविथ) जीवात्मा में भी व्यापक है । हम भीतरी ( स्वक्षत्रेभिः ) अपने आत्मिक बलों से अपने आपको सुशोभित करते हुए, योग समाधि का अभ्यास करते हुए ( एतान् ) इन गति युक्त प्राणों को वश में करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्यांचे शरीर व बल आरोग्ययुक्त असते ते धार्मिक बलवान विद्वानांकडून सर्व कामांबद्दल शंका निरसन करून घेतात. सर्वांच्या सुखासाठी व महान राज्याच्या न्यायासाठी त्याचा उपयोग करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाची सिद्धी प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus possessed of our most intimate powers and the grandeur of our social order, raising the beauty and grace of our body politic, we may use these powers and energies of nature. Indra, lord of grace and power, be favourable to us in consonance with our own essential strength, power and virtue of character.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Those who serve deserving persons with their physical strength and mental faculties achieve the Purushastha. (aims of human life).

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (prosperous person)! you se kindly accept with pleasure my hospitality of food and water. I did it all with noble desires. Decorating our bodies and minds with nice faculties with all our splendor associated with all great neighbors, let us use all things properly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons soon accomplish Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kama (noble desires) and Moksha (emancipation) who are endowed with physical strength and health, doing all good deeds in association with righteous and mighty learned persons. Moreover, they do their best to deliver justice in their great country.

    Foot Notes

    (अन्तमेभिः) समीपस्थैः अन्तमानामित्यान्तिक नाम (NG 2'16) = With neighbors (स्वधाम् ) अन्नम् उदकं वा = Food or water.

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