ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 14
आ यद्दु॑व॒स्याद्दु॒वसे॒ न का॒रुर॒स्माञ्च॒क्रे मा॒न्यस्य॑ मे॒धा। ओ षु व॑र्त्त मरुतो॒ विप्र॒मच्छे॒मा ब्रह्मा॑णि जरि॒ता वो॑ अर्चत् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यत् । दु॒व॒स्यात् । दु॒वसे॑ । न । का॒रुः । अ॒स्मान् । च॒क्रे । मा॒न्यस्य॑ । मे॒धा । ओ इति॑ । सु । व॒र्त्त॒ । म॒रु॒तः॒ । विप्र॑म् । अच्छ॑ । इ॒मा । ब्रह्मा॑णि । ज॒रि॒ता । वः॒ । अ॒र्च॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यद्दुवस्याद्दुवसे न कारुरस्माञ्चक्रे मान्यस्य मेधा। ओ षु वर्त्त मरुतो विप्रमच्छेमा ब्रह्माणि जरिता वो अर्चत् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। यत्। दुवस्यात्। दुवसे। न। कारुः। अस्मान्। चक्रे। मान्यस्य। मेधा। ओ इति। सु। वर्त्त। मरुतः। विप्रम्। अच्छ। इमा। ब्रह्माणि। जरिता। वः। अर्चत् ॥ १.१६५.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मरुतो यद्दुवस्याद्दुवसे नास्मभ्यं प्राप्ता मान्यस्य कारुर्मेधाऽस्मान् कारूनाचक्रेऽतो यूयं विप्रमो षु वर्त्त किमर्थं तत्राह जरिताऽच्छेमा ब्रह्माणि संगृह्याच्छ वोऽर्चत् ॥ १४ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यत्) यस्मात् (दुवस्यात्) सेवमानात् (दुवसे) दुवस्यते परिचरते (न) इव (कारुः) शिल्पकार्यसाधिका (अस्मान्) (चक्रे) करोति (मान्यस्य) माननीयस्य योग्यस्य (मेधा) प्रज्ञा (ओ) आभिमुख्ये (सु) (वर्त्त) वर्त्तध्वम् (मरुतः) विद्वांसः (विप्रम्) मेधाविनम् (अच्छ) (इमा) इमानि (ब्रह्माणि) वेदान् (जरिता) स्तोता (वः) युष्मान् (अर्च्चत्) सत्कुर्यात् ॥ १४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा शिल्पिनः शिल्पविद्यासिद्धानि वस्तूनि सेवन्ते तथा वेदार्थास्तज्ज्ञानं च सर्वैः सेवितव्यम्। नहि वेदविद्यया विना पूज्यतमो विद्वान् स्यात् ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मरुतः) विद्वानो ! (यत्) जिस कारण (दुवस्यात्) सेवन करनेवाले से (दुवसे) सेवन करनेवाले अर्थात् एक से अधिक दूसरे के लिये जैसे (न) वैसे हम लोगों के लिये प्राप्त हुई (मान्यस्य) मानने योग्य योग्यता को प्राप्त सज्जन की (कारुः) शिल्प कार्यों को सिद्ध करनेवाली (मेधा) बुद्धि (अस्मान्) हम लोगों को (आ, चक्रे) करती है अर्थात् शिल्पकार्यों में निपुण करती है इससे तुम (विप्रम्) मेधावी धीरबुद्धिवाले पुरुष के (ओ, षु, वर्त्त) सम्मुख वर्त्तमान होओ, किसलिये (जरिता) स्तुति करनेवाला (इमा) इन (ब्रह्माणि) वेदों को संग्रह कर (अच्छ) अच्छे प्रकार (वः) तुम लोगों को (अर्चत) सेवे ॥ १४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शिल्पीजन शिल्पविद्या से सिद्ध की हुई वस्तुओं का सेवन करते हैं, वैसे वेदार्थ और वेदज्ञान सबको सेवने चाहिये, जिस कारण वेदविद्या के विना अतीव सत्कार करने योग्य विद्वान् नहीं होता ॥ १४ ॥
विषय
'बुद्धिप्रदाता' प्रभु
पदार्थ
१. (न) = अब [न सम्प्रत्यर्थे] (यत्) = जब (कारु:) = कुशलता से कर्मों को करनेवाला (दुवसे) = [दुवस्-wealth] धन प्राप्ति के लिए (दुवस्यात्) = प्रभु की परिचर्या करता है [दुवस्यति = worships] तो उस समय (मान्यस्य) = पूजा-योग्य प्रभु की (मेधा) = बुद्धि (अस्मान्) = हमें आचक्रे [to help, give aid] सहायता देती है, अर्थात् जब भी एक पुरुषार्थी प्रभु का उपासन करता है तो प्रभु उसे बुद्धि प्राप्त कराते हैं और यह बुद्धि उसे धनादि प्राप्त कराने में सहायक होती है। २. हे (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो! तुम (उ) = निश्चय से (विप्रम्) = विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्रभु की अच्छ- ओर सु-अच्छी प्रकार आवर्त आवृत्त होओ। तुम प्रभु के सदा अभिमुख होओ, कभी उससे पराङ्मुख न होओ। ३. जरिता [जरिते=come near) सबको समीपता से प्राप्त होनेवाला वह प्रभु (इमा ब्रह्माणि) = इन ज्ञान की वाणियों को (वः) = तुम्हारे लिए (अर्चत्) = [to cause to shine] दीप्त करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासक को प्रभु बुद्धि देते हैं, ज्ञान की वाणियों को उसके लिए दीप्त करते हैं।
विषय
परस्पर ज्ञानदान और बल प्राप्ति ।
भावार्थ
( दुवस्यात् दुवसे कारुः न मेधा ) सेवा शुश्रूषा करने योग्य पुरुष से जिस प्रकार परिचर्या करने वाले पुरुष को शिल्पसाधिका बुद्धि प्राप्त होकर उसे भी शिल्प करने में कुशल कर देती है। उसी प्रकार ( मान्यस्य मेधा ) माननीय, आदर योग्य पुरुष की बुद्धि भी ( अस्मान् ) हमें योग्य ( चक्रे ) बनावे । हे ( मरुतः ) मनुष्यो ! आप लोग ( विप्रम् ) विद्वान् पुरुष के समीप ( अच्छ ) उसके समक्ष ( ओ सु वर्त्त ) जाकर उसका सत्संग करो। और वह विद्वान् ( जरिता ) उपदेष्टा ( वः ) आप लोगों को ( ब्रह्माणि ) नाना प्रकार के वेद ज्ञानों को दानों के समान ( अर्चत् ) आदर पूर्वक प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे कारागीर शिल्पविद्येने सिद्ध केलेल्या वस्तूंचा अंगीकार करतात तसे वेदार्थ व वेदज्ञान सर्वांनी स्वीकारले पाहिजे. वेदविद्येशिवाय कुणीही पूज्य विद्वान सत्कार करण्यायोग्य नसतो. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as honour and celebration moves on from the honoured to the honourable in succession in the advancement of knowledge, so let the intelligence and expertise of the eminent scientist and technologist come to benefit us. O Maruts, leaders and pioneers of knowledge, turn in appreciation and recognition to the scholar expert, since the celebrant offers these hymns of praise, discovery and invention to you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of Vedic knowledge is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! a venerable sage accomplishes well all the works of art and makes us artists. Likewise, a person should serve another learned man, who himself has learnt earlier by serving a greater scholar. Drawn to this conclusion, you should humbly serve a higher learned and intelligent man, who is an admirer of good virtues. Such a seeker of knowledge of the Vedas then honors you well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All should assemble to acquire the knowledge and meaning of the Vedas, as the artists gather. None can become the most venerable scholar without the knowledge of the Vedas.
Foot Notes
(दुवस्यात् ) सेवमानान् = From a person who serves scholars. (कारु:) शिल्पकार्यसाधिका = Accomplisher of the work of art.
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