ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 7
भूरि॑ चकर्थ॒ युज्ये॑भिर॒स्मे स॑मा॒नेभि॑र्वृषभ॒ पौंस्ये॑भिः। भूरी॑णि॒ हि कृ॒णवा॑मा शवि॒ष्ठेन्द्र॒ क्रत्वा॑ मरुतो॒ यद्वशा॑म ॥
स्वर सहित पद पाठभूरि॑ । च॒क॒र्थ॒ । युज्ये॑भिः । अ॒स्मे इति॑ । स॒मा॒नेभिः॑ । वृ॒ष॒भ॒ । पौंस्ये॑भिः । भूरी॑णि । हि । कृ॒णवा॑म । श॒वि॒ष्ठ॒ । इन्द्र॑ । क्रत्वा॑ । म॒रु॒तः॒ । यत् । वशा॑म ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूरि चकर्थ युज्येभिरस्मे समानेभिर्वृषभ पौंस्येभिः। भूरीणि हि कृणवामा शविष्ठेन्द्र क्रत्वा मरुतो यद्वशाम ॥
स्वर रहित पद पाठभूरि। चकर्थ। युज्येभिः। अस्मे इति। समानेभिः। वृषभ। पौंस्येभिः। भूरीणि। हि। कृणवाम। शविष्ठ। इन्द्र। क्रत्वा। मरुतः। यत्। वशाम ॥ १.१६५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे वृषभ यथा त्वं समानेभिर्युज्येभिः पौंस्येभिरस्मे भूरि सुखं चकर्थ। तस्मै तुभ्यं वयं भूरीणि सुखानि कृणवाम। हे शविष्ठेन्द्र यथा त्वं क्रत्वाऽस्मान् विदुषः करोषि तथा वयं तव सेवां कुर्याम। हे मरुतो यूयं यत् कामयिष्यध्वे तद्वयमपि वशाम हि कामयेमहि ॥ ७ ॥
पदार्थः
(भूरि) बहु (चकर्थ) करोषि (युज्येभिः) योजनीयैः कर्मभिः (अस्मे) अस्मभ्यम् (समानेभिः) तुल्यैः (वृषभ) उपदेशवर्षक (पौंस्येभिः) पुरुषार्थैः (भूरीणि) बहूनि (हि) किल (कृणवाम) कुर्याम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (शविष्ठ) बलिष्ठ (इन्द्र) सर्वसुखप्रद (क्रत्वा) प्रज्ञया (मरुतः) विद्वांसो मनुष्याः (यत्) यम् (वशाम) कामयेमहि ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेह विद्वांसो पुरुषार्थेन सर्वान् विद्यासुशिक्षायुक्तान् कुर्वन्ति तथैतान् सर्वे सत्कुर्युः। ये सर्वविद्याऽध्यापकाः सर्वेषां सुखं कामुकाः स्युस्तेऽध्यापनोपदेशयोः प्रधाना भवन्तु ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वृषभ) उपदेश की वर्षा करनेवाले ! जैसे आप (समानेभिः) समान तुल्य (युज्येभिः) योग्य कर्मों वा (पौंस्येभिः) पुरुषार्थों से (अस्मे) हमारे लिये (भूरि) बहुत सुख (चकर्थ) करते हैं उन आपके लिये हम लोग (भूरीणि) बहुत सुख (कृणवाम) करें। हे (शविष्ठ) बलवान् (इन्द्र) सबको सुख देनेवाले ! जैसे आप (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि से हम लोगों को विद्वान् करते हैं वैसे हम लोग आपकी सेवा करें। हे (मरुतः) विद्वान् मनुष्यो ! तुम (यत्) जिसकी कामना करो उसकी हम भी (वशाम, हि) कामना ही करें ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इस संसार में विद्वान् जन पुरुषार्थ से सबको विद्या और उत्तम शिक्षा से युक्त करते हैं, वैसे इनको सब सत्कारयुक्त करें। जो सब विद्याओं के पढ़ाने और सबके सुख को चाहनेवाले हों, वे पढ़ाने और उपदेश करने में प्रधान हों ॥ ७ ॥
विषय
‘शक्तिप्रदाता' प्रभु
पदार्थ
१. हे (वृषभ) = शक्तिशालिन् ! हमपर सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभो! आपने (युज्येभिः) = हमारे साथ संगत होनेवाले (समानेभिः) = [सम् आनयति] हमें सम्यक् प्राणित करनेवाले (पौंस्येभिः) = बलों से (अस्मे) = हमारे लिए (भूरि चकर्थ) = बहुत कुछ दिया है। हमें इन बलों को देकर आपने जीवनयात्रा में सफल होने योग्य बनाया है। २. हे (शविष्ठ) = शक्तिशालिन् ! (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! हम इन शक्तियों को प्राप्त करके हि निश्चय से भूरीणि पालन व पोषणात्मक कर्मों को कृणवाम करनेवाले बनें [भूरि-भृ धारणपोषणयोः] । शक्ति का प्रयोग हम सदा पालन व पोषणात्मक कर्मों में करें। ३. हम (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले (यत्) = जो (वशाम) = चाहें [wish] वह (कृत्वा) = कर्म के द्वारा ही चाहें । हमारी प्रार्थनाएँ पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त ही हों।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें शक्ति देते हैं। शक्ति प्राप्त करके हम पालनात्मक कर्मों में व्यापृत हों। हमारी प्रार्थना पुरुषार्थ के साथ हो ।
विषय
विद्युत्वत् प्रबल नायक ।
भावार्थ
हे ( शविष्ठ ) हम में सबसे अधिक बलवन् ! हे ज्ञानवन् ! हे ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( वृषभ ) जलों के वर्षाने वाले सूर्य के समान तेजस्विन् ! तू ( अस्मे ) हमारे लिये, और हमारे ही ( युज्येभिः ) परस्पर ! सहयोग से होने वाले ( समानेभिः ) एक समान ( पौंस्येभिः ) पुरुषोचित बलों से ही तू ( भूरि चकर्थ ) बहुत काम करता है । और ( भूरीणि हि ) हम बहुत से कार्य ( यद् वशाय ) जो भी हम ( मरुतः ) मरुद् गण, सैनिक गण चाहें वह ( क्रत्वा ) तेरे कर्म और ज्ञान सामर्थ्य से ( कृणवाम ) करने में समर्थ होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात विद्वान लोक पुरुषार्थाने सर्वांना विद्या व उत्तम शिक्षणाने युक्त करतात. त्यांचा सर्वांनी सत्कार करावा. जे सर्व विद्येचे अध्यापन व सर्वांच्या सुखाची कामना करणारे असतात, ते अध्यापन व उपदेश यात मुख्य असावेत. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power and generosity, with nature’s energy harnessed for acts of general, universal and humane value, you have done us proud with many useful, equal and valorous acts of nobility. Indra, lord of highest valour and peace, and Maruts, heroes of tempestuous speed and performance, let us too do a lot of great things and achieve what we want with noble yajnic acts of love and generosity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The learned persons should study and teach both.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wise men ! you shower good sermons. You bestow upon us happiness with your equally good schemes and initiated through your wisdom. You take pains for it. Likewise, we also make you happy. O mighty Indra ! as you make us learned, so let us serve you well. O learned persons ! the way you think for our benefit, likewise, let us also have the same urge for you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As learned persons endow all with their wisdom and good education, likewise we should honor them. Those scholars should hold prominent positions in the fields of teaching and preaching. The teachers of all disciplines earnestly desire the welfare and happiness of all.
Foot Notes
(युज्येभिः) योजनीयैः कर्मभिः = With good schemes. (वृषभ:) उपदेशवर्षकः = Showerer of good sermons.
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