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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कस्य॒ ब्रह्मा॑णि जुजुषु॒र्युवा॑न॒: को अ॑ध्व॒रे म॒रुत॒ आ व॑वर्त। श्ये॒नाँ इ॑व॒ ध्रज॑तो अ॒न्तरि॑क्षे॒ केन॑ म॒हा मन॑सा रीरमाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कस्य॑ । ब्रह्मा॑णि । जु॒जु॒षुः॒ । युवा॑नः । कः । अ॒ध्व॒रे । म॒रुतः॑ । आ । व॒व॒र्त॒ । श्ये॒नान्ऽइ॑व । ध्रज॑तः । अ॒न्तरि॑क्षे । केन॑ । म॒हा । मन॑सा । री॒र॒मा॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कस्य ब्रह्माणि जुजुषुर्युवान: को अध्वरे मरुत आ ववर्त। श्येनाँ इव ध्रजतो अन्तरिक्षे केन महा मनसा रीरमाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कस्य। ब्रह्माणि। जुजुषुः। युवानः। कः। अध्वरे। मरुतः। आ। ववर्त। श्येनान्ऽइव। ध्रजतः। अन्तरिक्षे। केन। महा। मनसा। रीरमाम ॥ १.१६५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये मरुतइव युवानो विद्वांसः कस्य ब्रह्माणि जुजुषुः। कोऽस्मिन्नध्वर आववर्त्त वयं केन महा मनसा ध्रजतो श्येनानिव कान् गृहीत्वाऽन्तरिक्षे रीरमाम ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (कस्य) (ब्रह्माणि) बृहन्ति यानि धनान्यन्नानि वा तानि। ब्रह्मेति धनना०। निघं० २। १०। अन्ननाम च० निघं० २। ७। (जुजुषुः) सेवन्ते। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (युवानः) ब्रह्मचर्येण विद्यया च प्राप्तयौवनाः (कः) (अध्वरे) अहिंसनीये धर्म्ये व्यवहारे (मरुतः) वायव इव (आ) समन्तात् (ववर्त्त) वर्त्तते। अत्रापि शपः श्लुस्तस्य स्थाने तप् च। (श्येनानिव) अश्वानिव। श्येनास इत्यश्वना०। निघं० १। १४। (ध्रजतः) गच्छतः (अन्तरिक्षे) आकाशे (केन) (महा) महता (मनसा) (रीरमाम) सर्वान् रमयेम ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा वायवो जगत्स्थान् पदार्थान् सेवन्ते तथा ब्रह्मचर्यविद्याबोधाभ्यां परमश्रियं सेवन्ताम्। यथाऽन्तरिक्षे उड्डीयमानान् श्येनादीन् पक्षिणः पश्यन्ति तथैव सभूगोला वयमाकाशे रमेमहि सर्वान् रमयामः। एतत् ज्ञातुं विद्वांस एव शक्नुवन्ति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (मरुतः) पवनों के समान वेगयुक्त (युवानः) ब्रह्मचर्य और विद्या से युवावस्था को प्राप्त विद्वान् (कस्य) किसके (ब्रह्माणि) वृद्धि को प्राप्त होते जो अन्न वा धन उनको (जुजुषुः) सेवते हैं और (कः) कौन इस (अध्वरे) न नष्ट करने योग्य धर्मयुक्त व्यवहार में (आ, ववर्त्त) अच्छे प्रकार वर्त्तमान है, हम लोग (केन) कौन (महा) बड़े (मनसा) मन से (ध्रजतः) जानेवाले (श्येनानिव) घोड़ों के समान किनको लेकर (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (रीरमाम) सबको रमावें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वायु संसारस्थ पदार्थों को सेवन करते हैं, वैसे ब्रह्मचर्य और विद्या के बोध से परम श्री को सेवें। जैसे अन्तरिक्ष में उड़ते हुए श्येनादि पक्षियों को देखते हैं, वैसे ही भूगोल के साथ हम लोग आकाश में रमें और सबको रमावें, इसको विद्वान् ही जान सकते हैं ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रसादसम्पन्न विशाल हृदय

    पदार्थ

    १. (युवानः) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] अपने साथ अच्छाई का मिश्रण करनेवाले व बुराई को अपने से दूर करनेवाले युवक कस्य उस आनन्दमय प्रभु के (ब्रह्माणि) = स्तोत्रों का (जुजुषुः) = सेवन करते हैं और वह (कः) = आनन्दमय प्रभु (मरुतः) = इन प्राणसाधकों को (अध्वरे) = अहिंसात्मक यज्ञरूप कर्मों में (आववर्त) = आवृत्त करता है- प्रभु इन साधकों को विषयों से पराङ्मुख करके यज्ञप्रवण करते हैं । २. प्रभु सदा यह ध्यान करते हैं कि (अन्तरिक्षे) = [अन्तरा क्षि] मध्यमार्ग में (श्येनान् इव ध्रजतः) = गतिशील बाज़ नामक पक्षियों के समान गति करते हुए इन प्राणसाधकों को केन आनन्दयुक्त – प्रसादयुक्त महा - विशाल मनसा-मन से रीरमाम= नितराम् आनन्दित करें। प्रभुकृपा से उन व्यक्तियों का मन आनन्दित तथा विशाल होता है जो सदा क्रियाशील जीवन बिताते हैं और मध्यमार्ग में चलते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु अपने स्तोताओं की वृत्तियों को यज्ञिय बनाते हैं, इनके हृदयों को प्रसाद व विशालता प्रदान करते हैं ।

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    विषय

    सूर्य वा प्रभुवत् गुरु की और देह में प्राणों पर आत्मा की स्थिति ।

    भावार्थ

    ( मरुतः कस्य ब्रह्माणि जुजुषुः ) वायु गण किसके बड़े बल को या जलों को प्राप्त करते हैं ? (अन्तरिक्ष ध्रजतः श्येनान् इव कः आववर्त्त) घोड़ों या बाजों के समान, वेग से जाते हुए उनको कौन लौटा सकता है ? (केन महामनसा) किस बड़े भारी स्तम्भन बल से वे ठहर जाते हैं ? उत्तर—( कस्य ) उस प्रजापति परमेश्वर या सब कर्मों के कर्त्ता सूर्य के । ( २ ) उसी प्रकार हे ( युवानः मरुतः ) युवा विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( कस्य ब्रह्माणि ) किसके पास से ब्रह्म अर्थात् वेद मन्त्रों के ज्ञान और नाना प्रकार के ऐश्वर्यों को ( जुजुषुः ) प्राप्त कर सकते हो ? ( अन्तरिक्षे श्येनान् इव ध्रजतः ) अन्तरिक्ष में वेग से जाते हुए बाजों के समान भोग्य व्यसनों या विषयों के प्रति जाते हुए तुम लोगों को ( अध्वरे ) अहिंसामय, शान्तिमय वेदाध्ययनादि यज्ञ कार्य में (कः) कौन ( आववर्त्त ) तुम्हें वेदाभ्यास कराता है ? (केन महा मनसा) किस बड़े ज्ञानवान् पुरुष से हम सब मनुष्य ( रीरमाम ) अति आनन्द लाभ कर सकते हैं। उत्तर——( कस्य ) उस प्रजापति तुल्य, सर्वोपदेशक गुरु से वेद ज्ञान प्राप्त करें, वही हमें सत्पथ में चलावे, उसी से हम सुप्रसन्न रहें । अध्यात्म में—( १ ) मरुतः प्राण गण हैं । एक ही देह में आश्रित रहकर समान वायु की चेष्टा से देह में आरोग्य सुख वर्षण करते हैं । ( वसूया ) वसु आत्मा की शक्ति से ही सब बलवान् मुख्य प्राण के आश्रय रहते हैं । (२) वे उसीके बलों को सेवते हैं। वही उन पर वश करता है । उसी के ज्ञान और स्तम्भन बल से देह में रमण करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वायू जगातील पदार्थांचे सेवन करतात तसे ब्रह्मचर्य व विद्या यांच्या बोधाने परम श्रीचा स्वीकार करावा. जसे अंतरिक्षात उडणाऱ्या श्येन इत्यादी पक्ष्यांना (आम्ही) पाहतो तसेच भूगोलावरही आम्ही आकाशात रमावे व सर्वांना रमवावे, हे विद्वानच जाणू शकतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whose wealth do they, ever young, love and delight in? Who enjoins the Maruts to visit and join the yajna of love and non-violence? The Maruts traverse the spaces like eagles sweeping across the skies. With what great mind shall we serve and please them?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The query further deepens.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Who are the youthful learned persons by the observance of Brahmacharya and acquisition of knowledge ? They are mighty like the winds. Whose wealth and food do they accept with love? Who is it that conducts himself properly in a nonviolent righteous dealing? With what means we may enjoy travel in the air like the speedy hawks/horses with singular attention?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Like the winds associated with the objects of the world, men should also acquire prosperity by the observance of Brahmacharya and knowledge. As we see the hawks and other birds flying in the sky, likewise we may travel in the air and help others to do so. It is only the enlightened persons that are capable to know all this and not the others.

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