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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वेदे॒ते प्रति॑ मा॒ रोच॑माना॒ अने॑द्य॒: श्रव॒ एषो॒ दधा॑नाः। सं॒चक्ष्या॑ मरुतश्च॒न्द्रव॑र्णा॒ अच्छा॑न्त मे छ॒दया॑था च नू॒नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । इत् । ए॒ते । प्रति॑ । मा॒ । रोच॑मानाः । अने॑द्यः । श्रवः॑ । आ । इषः॑ । दधा॑नाः । स॒म्ऽचक्ष्य॑ । म॒रु॒तः॒ । च॒न्द्रऽव॑र्णाः । अच्छा॑न्त । मे॒ । छ॒दया॑थ । च॒ । नू॒नन्म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवेदेते प्रति मा रोचमाना अनेद्य: श्रव एषो दधानाः। संचक्ष्या मरुतश्चन्द्रवर्णा अच्छान्त मे छदयाथा च नूनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। इत्। एते। प्रति। मा। रोचमानाः। अनेद्यः। श्रवः। आ। इषः। दधानाः। सम्ऽचक्ष्य। मरुतः। चन्द्रऽवर्णाः। अच्छान्त। मे। छदयाथ। च। नूनम् ॥ १.१६५.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मरुतो यथेष आदधाना मेत्प्रति रोचमाना एते यूयमनेद्यः श्रवः संचक्ष्य चन्द्रवर्णास्सन्तो मामच्छान्त तथैवेदानीं च नूनं मे छदयाथ ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (एव) निश्चये (इत्) एव (एते) (प्रति) (मा) माम् (रोचमानाः) (अनेद्यः) प्रशस्यम्। अनेद्य इति प्रशस्यना०। निघं० ३। ८। (श्रवः) शृण्वन्ति येन तच्छास्त्रम् (आ) (इषः) इच्छाः (दधानाः) धरन्तः (संचक्ष्य) सम्यगध्याप्योपदिश्य वा। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (मरुतः) प्राणवत् प्रिया विद्वांसः (चन्द्रवर्णाः) चन्द्रस्य वर्ण इव वर्णो येषान्ते (अच्छान्त) विद्यया अच्छादयन्तः (मे) मम (छदयाथ) अविद्यां दूरीकुरुत (च) विद्यां दत्त (नूनम्) निश्चितम् ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्त्रीपुरुषान्विद्यासु प्रदीप्य प्रशस्तगुणकर्मस्वभावान् कृत्वा धर्म्येषु प्रयुञ्जते ते विश्वस्याऽलङ्कर्त्तारस्स्युः ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) प्राणों के समान प्रिय विद्वान् जनो ! जैसे (इषः) इच्छाओं को (आ, दधानाः) अच्छे प्रकार धारण किये हुए (मा, इत्) मेरे ही (प्रति, रोचमानाः) प्रति प्रकाशमान होते हुए (एते) ये तुम (अनेद्यः) प्रशंसनीय (श्रवः) सुनने के साधन शास्त्र को (संचक्ष्य) पढ़ा वा उसका उपदेशमात्र कर (चन्द्रवर्णाः) चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कान्तिवाले हुए मुझे (अच्छान्त) विद्या से ढाँपते हुए वैसे (एव) ही अब (च) भी (नूनम्) निश्चय से (मे, छदयाथ) विद्याओं से आच्छादित करो, मेरी अविद्या को दूर करो और विद्या देओ ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्त्री-पुरुषों को विद्याओं में प्रकाशित और उन्हें प्रशंसित गुण, कर्म, स्वभाववाले कर धर्मयुक्त व्यवहारों में लगाते हैं, वे सबके सुभूषित करनेवाले हों ॥ १२ ॥

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    विषय

    प्रभु में प्रीतिवाले

    पदार्थ

    १. (एव) = गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से स्तवन करने पर (इत्) = निश्चय से (एते) = ये (मरुतः) = प्राणसाधक पुरुष (मा प्रति रोचमानाः) = मेरे प्रति प्रीति- [रुचि]- वाले होते हुए (अनेद्यः श्रवः) = प्रशस्त ज्ञान को (दधानाः) = धारण करनेवाले और (इषः) = मेरी प्रेरणाओं को (आदधाना:) = सर्वथा धारण करनेवाले बनते हैं । २. (संचक्ष्या) = उन प्रेरणाओं से अपने कर्त्तव्यों को ठीक प्रकार से देखकर ये (मरुत् चन्द्रवर्णाः) = [चदि आह्लादे] आह्लादमय वर्णवाले होते हुए, सदा प्रसन्नवदन रहते हुए अच्छान्त अपने को यश से आच्छादित करते हैं (च) = और (नूनम्) = निश्चय से हे (मरुतः) = मरुतो ! तुम इस प्रकार (छदयाथ) = अपने को पापों से अपवारित करते हो, तुमपर पापों का आक्रमण नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारी प्रभु में प्रीति हो। हम प्रशस्त ज्ञान को धारण करें, प्रभु-प्रेरणाओं को सुनते हुए अपने कर्त्तव्यों को जानें। सदा प्रसन्नवदन, यशस्वी व पापों से अनाक्रान्त बनें ।

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    विषय

    विद्वानों, वीरों का राष्ट्र में, देह में प्राणवत् कर्त्तव्य । (

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) प्राणों के समान राष्ट्र में जीवन सञ्चार करने वाले प्रिय विद्वान् पुरुषो ! ( एते ) वे आप सब लोग ( मा प्रति रोचमानाः एव इत् ) मेरे प्रति अति स्नेहवान् होकर रहो ! और ( अनेद्यः ) उत्तम ( श्रवः ) गुरु उपदेश, वेद ज्ञान और ( इषः ) उत्तम इच्छाओं और शक्तियों को ( आ दधानाः ) धारण करते हुए ( चन्द्र-वर्णाः ) चन्द्र या सुवर्ण के समान उत्तम वर्ण वाले, तेजस्वी, और शुद्ध चरित्रवान् होकर ( संचक्ष्या ) उत्तम रीति से अन्यों को उपदेश करके और उत्तम रीति से अपने तत्वों का आलोचन करके ( अच्छान्त ) अपने को आच्छादित करो, अपने को अन्न वस्त्रादि से सुभूषित करो और सुरक्षित रखो । और ( मे च ) मेरे राष्ट्र की भी ( नूनम् ) अवश्य ( छदयाथ ) रक्षा करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्त्री-पुरुषांना विद्येमध्ये प्रकाशित करून त्यांना श्रेष्ठ गुण, कर्म स्वभावाचे बनवतात व धर्मयुक्त व्यवहारात लावतात, त्यांनी सर्वांना विभूषित करावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus may these friends, leaders and you, O Maruts, golden glorious all, loving and kind toward me, holding and commanding admirable foods, energies and noble desires, wealth, honour and holy songs, holding me in high esteem, happily disposed, overwhelm me with honour and joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The motivators to nice actions are praised.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! you are dear to me like Pranas-my own life. You entertain noble desires and are loving to me. With moon-like color, you cover me with knowledge. You also dispel my ignorance by teaching and preaching the most glorious shastra (Veda). Likewise, I also propose to do it to others.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who enlighten men and women by giving them good knowledge are like the ornaments of the world. Such leaders motivate others to offer their services for righteous deeds. It makes these persons of admirable merits, actions and habits.

    Foot Notes

    (अनेघ:) प्राशस्यम् अनेघ इति प्राशस्यनाम् (NG. 3-8.) = Having taught or preached well. (श्रवः) शृण्वन्ति येन तत्शास्त्रम् = Shastra that is listened to.

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