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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अनु॑त्त॒मा ते॑ मघव॒न्नकि॒र्नु न त्वावाँ॑ अस्ति दे॒वता॒ विदा॑नः। न जाय॑मानो॒ नश॑ते॒ न जा॒तो यानि॑ करि॒ष्या कृ॑णु॒हि प्र॑वृद्ध ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑त्तम् । आ । ते॒ । म॒घ॒व॒न् । नकिः॑ । नु । न । त्वाऽवा॑न् । अ॒स्ति॒ । दे॒वता॑ । विदा॑नः । न । जाय॑मानः । नश॑ते । न । जा॒तः । यानि॑ । क॒रि॒ष्या । कृ॒णु॒हि । प्र॒ऽवृ॒द्धः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुत्तमा ते मघवन्नकिर्नु न त्वावाँ अस्ति देवता विदानः। न जायमानो नशते न जातो यानि करिष्या कृणुहि प्रवृद्ध ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनुत्तम्। आ। ते। मघवन्। नकिः। नु। न। त्वाऽवान्। अस्ति। देवता। विदानः। न। जायमानः। नशते। न। जातः। यानि। करिष्या। कृणुहि। प्रऽवृद्धः ॥ १.१६५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मघवन् ते तवाऽनुत्तं नकिर्विद्यते त्वावानन्यो देवता विदानो नास्ति जायमानो नु न नशते जातो न नशते। हे प्रवृद्ध त्वं यानि करिष्या सन्ति तानि न्वाकृणुहि ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (अनुत्तम्) अप्रेरितम् (आ) समन्तात् (ते) तव (मघवन्) परमधनयुक्त (नकिः) निषेधे (नु) शीघ्रे (न) (त्वावान्) त्वया सदृशः (अस्ति) (देवता) दिव्यगुणः (विदानः) विद्वान् (न) (जायमानः) उत्पद्यमानः (नशते) नश्यति (न) (जातः) उत्पन्नः (यानि) (करिष्या) कर्त्तुं योग्यानि। अत्र सुपां सुलुगिति डादेशः। (कृणुहि) कुरु (प्रवृद्ध) अतिशयेन विद्यया प्रतिष्ठित ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    यथाऽन्तर्यामिण ईश्वरात्किंचिदव्याप्तं न विद्यते न कश्चित्तत्सदृशो जायते न जातो न जनिष्यते न नश्यति कर्त्तव्यानि कार्याणि करोति तथैव विद्वद्भिर्भवितव्यं वेदितव्यं च ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मघवन्) परमधनवान् विद्वान् ! (ते) आपका (अनुत्तम्) न प्रेरणा किया हुआ (नकिः) नहीं कोई विद्यमान है और (त्वावान्) तुम्हारे सदृश और (देवता) दिव्य गुणवाला (विदानः) विद्वान् (न) नहीं (अस्ति) है। तथा (जायमानः) उत्पन्न होनेवाला (नु) शीघ्र (न) नहीं (नशते) नष्ट होता (जातः) उत्पन्न हुआ भी (न) नहीं नष्ट होता। हे (प्रवृद्ध) अत्यन्त विद्या से प्रतिष्ठा को प्राप्त आप (यानि) जो (करिष्या) करने योग्य काम हैं उनको शीघ्र (आ कृणुहि) अच्छे प्रकार करिये ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    जैसे अन्तर्यामी ईश्वर से अव्याप्त कुछ भी नहीं विद्यमान है, न कोई उसके सदृश उत्पन्न होता न उत्पन्न हुआ और न होगा न वह नष्ट होता है किन्तु ईश्वरभाव से अपने कर्त्तव्य कामों को करता है, वैसे ही विद्वानों को होना और जानना चाहिये ॥ ९ ॥

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    विषय

    'अनुपम' प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवान् प्रभो ! (नु) = निश्चय से अनुत्तम आपसे अप्रेरित (नकि:) = कुछ भी नहीं है। इस ब्रह्माण्ड में एक-एक कण आपसे ही प्रेरित हो रहा है। चराचर के प्रेरक आप ही हैं। (त्वावान्) = आप जैसा (विदान:) = ज्ञानी, देवता कोई भी देव न नहीं है। प्रभु सर्वज्ञ हैं, अपने ज्ञान से सबको दीप्त कर रहे हैं । २. प्रवृद्ध हे सब गुणों से बढ़े हुए प्रभो! आप (यानि) = जिन करिष्या वृत्रवधादिरूप कर्मों को आकृणुहि सम्यक् करते हैं, उन्हें (न जायमानः) = न तो उत्पन्न होनेवाला और न जातः =न उत्पन्न हुआ हुआ नशते व्याप्त करता है । आपके समान न किसी की शक्ति है, न ज्ञान है, अतः कोई भी आपके कर्मों का व्यापन नहीं कर सकता। आपका सब-कुछ अनुपम है। आपका बनकर मैं भी वृत्रवधादि कार्य करूँ। आपके सहाय से मैं इन वासनाओं का विनाश क्यों न कर पाऊँगा ! भावार्थ- ब्रह्माण्ड में प्रभु से अप्रेरित कुछ भी नहीं। उनके कर्मों का कोई भी व्यापन नहीं कर सकता।

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    विषय

    सर्वोपरि अनुपम प्रभु, स्वामी ।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! ( मघवन् ) पूज्य गुणों से युक्त ! समृद्धिमान् राजन् ! परम आत्मन् ! निश्चय से कुछ भी ( ते अनुत्तमा न किः ) कोई भी पदार्थ या कार्य तेरी प्रेरणा के बिना नहीं है और ( त्वावान् ) तेरे जैसा (विदानः ) ज्ञानवान् विद्वान् ( देवता ) दानशील, कामनावान्, तेजस्वी भी ( न ) कोई और नहीं । हे ( प्रवृद्ध ) सबसे अधिक बढ़े हुए ! तू (यानि) (करिष्या) कर्त्तव्यों और अद्भुत कर्मों को ( कृणुहि ) करता है उनको (न जायमानुः) न उत्पन्न होने वाला ही कोई ( नशते ) कर सकता है और ( न जातः नशते ) न उत्पन्न हुआ ही कोई कर सकता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ४, ५, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप । २, ८,९ त्रिष्टुप्। १३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १४ भुरिक् पङ्क्तिः । १५ पङ्क्तिः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे अंतर्यामी ईश्वरापासून अव्याप्त काही नाही. त्याच्यासारखा कोणी उत्पन्न होत नाही व उत्पन्न झालेला नाही, उत्पन्न होणार नाही, नष्ट होणार नाही. जसा ईश्वर कर्तव्य कर्म करतो तसे विद्वानांनी असले पाहिजे व जाणले पाहिजे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lord of bounty, wealth and power, there is nothing initiated, inspired and made to move except by you. There is none like you who commands light, knowledge and generosity in abundance. There is none bom or emerging into prominence who can attain to your grandeur. Lord thriving and exalted, do whatever things are to be done, for no one can rival you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The human beings should follow the God's path.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Lord! there is nothing in the universe which is not inspired and pervaded by you. There is no divinity, wisdom and power parallel to you. None was or is ever born matching you, nor will ever be such in future. Neither in past or in present, nor in future, one would excel you ever in power. None can ever surpass Your glory, O the greatest of all !

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is nothing in the universe which is not pervaded by God, Who is the Innermost Universal Spirit. There never was, is and will ever be any one equal to God and His Glorious deeds. So wisemen should understand that God is Incomparable and they should try to surpass all the other beings in knowledge and other virtues.

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