ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 10
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्यौश्चि॑द॒स्याम॑वाँ॒ अहेः॑ स्व॒नादयो॑यवीद्भि॒यसा॒ वज्र॑ इन्द्र ते। वृ॒त्रस्य॒ यद्ब॑द्बधा॒नस्य॑ रोदसी॒ मदे॑ सु॒तस्य॒ शव॒साभि॑न॒च्छिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्यौः । चि॒त् । अ॒स्य॒ । अम॑ऽवान् । अहेः॑ । स्व॒नात् । अयो॑यवीत् । भि॒यसा॑ । वज्रः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । वृ॒त्रस्य॑ । यत् । ब॒द्ब॒धा॒नस्य॑ । रो॒द॒सी॒ इति॑ । मदे॑ । सु॒तस्य॑ । शव॑सा । अभि॑नत् । शिरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यौश्चिदस्यामवाँ अहेः स्वनादयोयवीद्भियसा वज्र इन्द्र ते। वृत्रस्य यद्बद्बधानस्य रोदसी मदे सुतस्य शवसाभिनच्छिरः ॥
स्वर रहित पद पाठद्यौः। चित्। अस्य। अमऽवान्। अहेः। स्वनात्। अयोयवीत्। भियसा। वज्रः। इन्द्र। ते। वृत्रस्य। यत्। बद्बधानस्य। रोदसी इति। मदे। सुतस्य। शवसा। अभिनत्। शिरः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे सेनेश ! यद्यस्य ते तवास्य सूर्यस्य द्यौरहेर्बद्बधानस्य सुतस्य वृत्रस्यावयवानयोयवीच्चिदिवामवान् वज्रो यस्य शवसा स्वनादरयः पलायन्ते रोदसी इव मदे वर्त्तमानस्य शत्रोः शिरोऽभिनत् स भवानस्माकं पालको भवतु ॥ १० ॥
पदार्थः
(द्यौः) प्रकाशः (चित्) इव (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (अमवान्) बलवान् (अहेः) मेघस्य (स्वनात्) शब्दात् (अयोयवीत्) पुनः पुनर्मिश्रयत्यमिश्रयति वा (भियसा) भयेन (वज्रः) शस्त्रास्त्रसमूहः (इन्द्र) परमैश्वर्यहेतो (ते) तव (वृत्रस्य) मेघस्य (यत्) यस्य (बद्बधानस्य) बन्धकस्य। अत्र बन्धधातोश्चानश्। बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः हलादिशेषाऽभावश्च। (रोदसी) द्यावापृथिवी (मदे) हर्षकारके व्यवहारे (सुतस्य) उत्पन्नस्य (शवसा) बलेन (अभिनत्) भिनत्ति (शिरः) उत्तमाङ्गम् ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यकिरणा विद्युच्च मेघं प्रति प्रवर्त्तन्ते, तथैव सेनापत्यादिभिर्भवितव्यम् ॥ १० ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य के हेतु सेनापति ! जो (अस्य) इस (ते) आप का और इस सूर्य्य का (द्यौः) प्रकाश (अहेः) (बद्बधानस्य) रोकनेवाले मेघ के (सुतस्य) उत्पन्न हुए (वृत्रस्य) आवरणकारक जल के अवयवों को (अयोयवीत्) मिलाता वा पृथक् करता है (चित्) वैसे (अमवान्) बलकारी (वज्रः) वज्र के (स्वनात्) शब्दों से (भियसा) और भय से (शवसा) बल के साथ शत्रु लोग भागते हैं (रोदसी) आकाश और पृथिवी के समान (मदे) आनन्दकारी व्यवहार में वर्त्तमान शत्रु का (शिरः) शिर (अभिनत्) काटते हैं, सो आप हम लोगों का पालन कीजिये ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के किरण और बिजुली मेघ के साथ प्रवृत्त होती हैं, वैसे ही सेनापति आदि के साथ सेना को होना चाहिये ॥ १० ॥
विषय
वासनाशिरोभेदन व स्वस्थ प्रज्ञा
पदार्थ
१. (अस्य अहेः) = [आहन्ति इति] इस प्रबल रूप से आक्रमण करनेवाले वृत्र कामासुर के (स्वनात्) = गर्जन से, अर्थात् जब यह कामासुर गर्जना करता हुआ आक्रमण करता है तब (अमवान्) = शक्ति से युक्त (द्यौः चित्) = ज्ञान का प्रकाश भी (भियसा अयोयवीत्) = भय के कारण हमसे पृथक् हो जाता है [यु अमिश्रण] अर्थात् काम के आक्रमण से बड़े - बड़े ज्ञानी भी ज्ञान को खो बैठते हैं । वासना के आक्रमण से बचना आसान नहीं है । २. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (यत्) = जो (ते वज्रः) = तेरा क्रियामय जीवनरूप वज्र है वही (सुतस्य मदे) = शरीर में उत्पन्न सोम - वीर्यकों के हर्ष में (शवसा) = बल के द्वारा (वृत्रस्य) = इस कामासुर के (शिरः अभिनत्) = सिर को विदीर्ण करता है । उस वृत्र के सिर को जो (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को - मस्तिष्क व शरीर दोनों को ही (बद्बधानस्य) = अत्यन्त पीड़ित करनेवाला है । ३. वासना ज्ञान पर तो पर्दा डाल देती है यह शरीर की शक्तियों को भी क्षीण कर देती है । क्रियाशीलता के द्वारा ही इस वासना का सिर कुचला जाता है और तभी हमारी बुद्धि सुस्थिर हो पाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम क्रियाशीलता के द्वारा वासना का विनाश करें और स्वस्थ बुद्धिवाले हों ।
विषय
और उनके कर्तव्यों और सामर्थ्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) राजन् ! सेनापते ! ( अमवान् द्यौः चित्) बलवान् सूर्य का प्रकाश जिस प्रकार (अहे: वृत्रस्य अयोयवीत् ) मेघ के जल को छिन्न भिन्न कर देता और नीचे गिरा देता है। और (अस्य ) इस वज्र विद्युत् के ( स्वनाद् ) शब्द को सुनकर (भियसा) मारे भय के मानो मेघ भी कांप जाता है। उसी प्रकार हे राजन् ! (ते) तेरा ( द्यौः ) तेजस्वी ( अमवान् ) बलवान् ( वज्रः ) सेनाबल, शस्त्रास्त्रबल ( रोदसी बद् बधानस्य ) आकाश और भूतल दोनों को बांधने या घेरनेवाले ( वृत्रस्य ) बल में बढ़ते हुए शत्रु के ( शिरः ) शिर, मुख्य भाग को ( सुतस्य मदे ) राजैश्वर्य के हर्ष में ही उत्पन्न ( शवसा ) बल से ( अभिनत् ) तोड़ दे । राजैश्वर्य के सुख के निमित्त शत्रु के मुख्य बल में भी भेद नीति का प्रयोग करे । और ( अस्य स्वनाद् भियसा अहेः अयोयवीत् ) इस बलवान् वज्र या शस्त्रास्त्र बल के कड़कड़ाते शब्द से, भय द्वारा छिन्न भिन्न करे । शत्रु को दान और दण्ड भय दोनों उपायों से तोड़े । इति त्रयोदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह सेनापति क्या करे, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सेनेश ! यद् यस्य ते तव अस्य सूर्यस्य द्यौः अहेः बद्बधानस्य सुतस्य वृत्रस्य अवयवान् अयोयवीत् चित् इव अमवान् वज्रः यस्य शवसा स्वनात् अरयः पलायन्ते रोदसी इव मदे वर्त्तमानस्य शत्रोः शिरः अभिनत् स भवान् अस्माकं पालकः भवतु ॥ १० ॥
पदार्थ
हे (सेनेश)= सेनापति ! (यत्) यस्य=जिसके, (ते) तव=आप, (अस्य) वक्ष्यमाणस्य=कहे हुए, (सूर्यस्य)= सूर्य के, (द्यौः) प्रकाशः= प्रकाश, (अहेः) मेघस्य=बादल के, (बद्बधानस्य) बन्धकस्य= बंधन का, (सुतस्य) उत्पन्नस्य=उत्पन्न के, (वृत्रस्य) मेघस्य= बादल के, (अवयवान्)=अङ्ग, (अयोयवीत्) पुनः पुनर्मिश्रयत्यमिश्रयति वा=बार बार मिश्रित करता है और बार बार अमिश्रित करता है, [भियसा] भयेन=भय से, (चित्) इव=जैसे, (अमवान्) बलवान्= बलवान्, (वज्रः) शस्त्रास्त्रसमूहः= शस्त्र और अस्त्रों के समूह, [इन्द्र] परमैश्वर्यहेतो=परम् ऐश्वर्य के लिये, (यस्य)=इसके, (शवसा) बलेन=बल से, (स्वनात्) शब्दात्=शब्दों से, (अरयः)=शत्रु, (पलायन्ते)=भाग जाते हैं, (रोदसी) द्यावापृथिवी=द्यौ और पृथिवी के (इव) =समान, (मदे) हर्षकारके व्यवहारे=प्रसन्नता के व्यवहार में, (वर्त्तमानस्य)= वर्त्तमान, (शत्रोः)=शत्रु, (शिरः) उत्तमाङ्गम्= उत्तम अङ्ग को, (अभिनत्) भिनत्ति=तोड़ देता है, (सः)=वह, (भवान्)=आप, (अस्माकम्)=हमारे, (पालकः)= पालक, (भवतु)=होओ ॥ १० ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के किरण और बिजली बादल के साथ व्यवहार करते हैं, वैसे ही व्यवहार सेनापति आदि के साथ होना चाहिये ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सेनेश) सेनापति ! (यत्) जिस (ते) आपके (अस्य) कहे हुए, (सूर्यस्य) सूर्य के (द्यौः) प्रकाश से (अहेः) बादल के (बद्बधानस्य) बंधन के (सुतस्य) उत्पन्न, (वृत्रस्य) बादल के (अवयवान्) अङ्ग, (अयोयवीत्) बार बार मिश्रित करता है और बार बार अमिश्रित करता है। [भियसा] भय से (चित्) जैसे (अमवान्) बलवान् (वज्रः) शस्त्र और अस्त्रों के समूह को [इन्द्र] परम् ऐश्वर्य के लिये, (यस्य) इसके (शवसा) बल से [और] (स्वनात्) शब्दों से (अरयः) शत्रु (पलायन्ते) भाग जाते हैं। (रोदसी) द्यौ और पृथिवी के (इव) समान (मदे) प्रसन्नता के व्यवहार में (वर्त्तमानस्य) वर्त्तमान (शत्रोः) शत्रु के (शिरः) शिर को (अभिनत्) तोड़ देता है। (सः) वह, (भवान्) आप (अस्माकम्) हमारे (पालकः) पालक (भवतु) होओ ॥ १० ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (द्यौः) प्रकाशः (चित्) इव (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (अमवान्) बलवान् (अहेः) मेघस्य (स्वनात्) शब्दात् (अयोयवीत्) पुनः पुनर्मिश्रयत्यमिश्रयति वा (भियसा) भयेन (वज्रः) शस्त्रास्त्रसमूहः (इन्द्र) परमैश्वर्यहेतो (ते) तव (वृत्रस्य) मेघस्य (यत्) यस्य (बद्बधानस्य) बन्धकस्य। अत्र बन्धधातोश्चानश्। बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुः हलादिशेषाऽभावश्च। (रोदसी) द्यावापृथिवी (मदे) हर्षकारके व्यवहारे (सुतस्य) उत्पन्नस्य (शवसा) बलेन (अभिनत्) भिनत्ति (शिरः) उत्तमाङ्गम् ॥ १० ॥ विषयः- पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सेनेश ! यद्यस्य ते तवास्य सूर्यस्य द्यौरहेर्बद्बधानस्य सुतस्य वृत्रस्यावयवानयोयवीच्चिदिवामवान् वज्रो यस्य शवसा स्वनादरयः पलायन्ते रोदसी इव मदे वर्त्तमानस्य शत्रोः शिरोऽभिनत् स भवानस्माकं पालको भवतु ॥ १० ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यकिरणा विद्युच्च मेघं प्रति प्रवर्त्तन्ते, तथैव सेनापत्यादिभिर्भवितव्यम् ॥१०॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी सूर्याबरोबर किरणे व मेघांबरोबर विद्युत असते तसे सेनापतीबरोबर सेना असली पाहिजे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of power and ruler of the world, when under the inspiration of soma your thunderbolt with terrible force breaks open the peak of Vritra, the cloud overcasting the earth and skies, then with thunder and lightning, the powerful heavens shaking in the operation catalyse and turn the vapours into rain showers.
Subject of the mantra
Then what should that commander do? This topic is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (seneśa) =commander,! (yat) =which, (te) =your, (asya) =said,, (sūryasya) =of the Sun, (dyauḥ) =by light, (aheḥ) =of cloud, (badbadhānasya) =of bonds, (sutasya) utpanna, (vṛtrasya) bādala ke (avayavān) aṅga, (ayoyavīt) =unite and disunite again and again, [bhiyasā] = with fear, (cit) =like, (amavān) =strong, (vajraḥ)=to the group of weapons and missiles, [indra]= for supreme glory, (yasya) =its, (śavasā) =by power, [aura]=and, (svanāt) =by words, (arayaḥ) =enemy, (palāyante) =run away,| (rodasī) =of outer space and earth, (iva) =like, (made)= in happy behavior, (varttamānasya) varttamāna (śatroḥ) śatru ke (śiraḥ) =to the head, (abhinat)=breaks, (saḥ) =that, (bhavān) =you, (asmākam) =our, (pālakaḥ)= nourishe, (bhavatu)=be.
English Translation (K.K.V.)
O commander! Which, according to you, is produced by the bond of the cloud with the light of the sun, the parts of the cloud, connect and disconnect again and again. Enemies run away from fear as from the group of weapons and missiles to the supreme glory, from its power and words. He breaks the head of the present enemy in the behaviour of happiness like of outer space and earth. That, you be our nourisher.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as sunrays and lightning behave with clouds, the same should be done with commanders et cetera.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Indra do is taught further in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Commander of the Army, as the mighty light of the sun cuts into pieces the water of the cloud and makes it fall down on the earth, and by the sound of the lightning, the cloud trembles so to speak, in the same manner, as thou strikest off the head of a mighty foe waxing in his intoxication who is the obstructor of heaven and earth, with thy powerful weapon and with thy sound, all enemies run away, be thou our protector.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( द्यौः) प्रकाशः दिवु-धुतौ = Light. (अहे: ) मेघस्य हरिति मेघनाम ( निघ० १.१० ) = Of the cloud. ( वृत्रस्य) मेघस्य वृत्र इति मेघनाम ( निघ १.१० ) मेघसदृशस्य शत्रोश्च = Of the enemy like the cloud.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Commander of the Army and others should behave towards their enemies like the rays of the sun and the cloud, tearing them off.
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