ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 9
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
बृ॒हत्स्वश्च॑न्द्र॒मम॑व॒द्यदु॒क्थ्य१॒॑मकृ॑ण्वत भि॒यसा॒ रोह॑णं दि॒वः। यन्मानु॑षप्रधना॒ इन्द्र॑मू॒तयः॒ स्व॑र्नृ॒षाचो॑ म॒रुतोऽम॑द॒न्ननु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठबृ॒हत् । स्वऽच॑न्द्रम् । अम॑ऽवत् । यत् । उ॒क्थ्य॑म् । अकृ॑ण्वत । भि॒यसा॑ । रोह॑णम् । दि॒वः । यत् । मानु॑षऽप्रधनाः । इन्द्र॑म् । ऊ॒तयः॑ । स्वः॑ । नृ॒ऽसाचः॑ । म॒रुतः॑ । अम॑दन् । अनु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहत्स्वश्चन्द्रममवद्यदुक्थ्य१मकृण्वत भियसा रोहणं दिवः। यन्मानुषप्रधना इन्द्रमूतयः स्वर्नृषाचो मरुतोऽमदन्ननु ॥
स्वर रहित पद पाठबृहत्। स्वऽचन्द्रम्। अमऽवत्। यत्। उक्थ्यम्। अकृण्वत। भियसा। रोहणम्। दिवः। यत्। मानुषऽप्रधनाः। इन्द्रम्। ऊतयः। स्वः। नृऽसाचः। मरुतः। अमदन्। अनु ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
ये मानुषप्रधना नृषाचो मरुत इन्द्रं प्राप्य यद्बृहत्स्वश्चन्द्रममवदुक्थ्यं स्वः सुखं चाकृण्वत कुर्वन्ति यद्ये भियसा दुःखभयेन दिवः प्रकाशमानस्य मोक्षसुखस्यारोहणमूतयो भूत्वाऽन्वमदन्ननुमोदन्ते ते सुखिनः स्युः ॥ ९ ॥
पदार्थः
(बृहत्) महत् (स्वश्चन्द्रम्) स्वेन प्रकाशेनाह्लादकारकेण युक्तं सुवर्णम्। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) अत्र हस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे। (अष्टा०६.१.१५१) अनेन सुडागमः। (अमवत्) अमः प्रशस्तो बोधः सम्भागो यस्मिँस्तत् (यत्) गुणप्रकाशकम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (अकृण्वत) कुर्वन्ति (भियसा) भयेन (रोहणम्) आरोहन्ति येन तत् (दिवः) प्रकाशमानस्य (यत्) यम् (मानुषप्रधनाः) मनुष्याणां प्रकृष्टानि धनानि याभ्यस्ताः (इन्द्रम्) विद्युतम् (ऊतयः) रक्षणाद्याः (स्वः) सुखम् (नृषाचः) ये नॄन् सचन्ति समवयन्ति ते (मरुतः) प्राणादयः (अमदन्) हर्षन्ति (अनु) आनुकूल्ये ॥ ९ ॥
भावार्थः
विद्याधनं राज्यं पराक्रमो बलं पुरुषसहायश्च यं धार्मिकं विद्वासं प्राप्नुवन्ति, तमुत्तमं सुखं जनयन्ति ॥ ९ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
जो (मानुषप्रधनाः) मनुष्यों को उत्तम धन प्राप्त करने तथा (नृषाचः) मनुष्यों को कर्म में संयुक्त करनेवाले (मरुतः) प्राण आदि हैं वे (इन्द्रम्) बिजुली को प्राप्त होकर (यत्) जिस (बृहत्) बड़े (स्वश्चन्द्रम्) अपने आह्लादकारक प्रकाश से युक्त (अमवत्) उत्तम ज्ञान (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (स्वः) सुख को (अकृण्वत) सम्पादन करते हैं और (यत्) जो (भियसा) दुःख के भय से (दिवः) प्रकाशमान मोक्ष सुख का (रोहणम्) आरोहण (ऊतयः) रक्षा आदि होती हैं, उनको करके (अन्वमदन्) उसके अनुकूल आनन्द करते हैं, वे मनुष्य मुख्य सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ९ ॥
भावार्थ
विद्याधन, राज्य, पराक्रम, बल वा पुरुषों की सहायता ये सब जिस धार्मिक विद्वान् मनुष्य को प्राप्त होते हैं, उसको उत्तम सुख उत्पन्न कराते हैं ॥ ९ ॥
विषय
प्रभुस्तवन प्राणसाधना
पदार्थ
१. (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (स्वश्चन्द्रम्) = स्वकीय आह्लादक प्रकाश से युक्त (अमवत्) = शत्रु - विनाशक बलवाले (दिवः रोहणम्) = स्वर्ग के आरोहण के साधनभूत (उक्थ्यम्) = स्तुति के योग्य प्रभु को (यत्) = जब (भियसा) = कामादि असुरों के भय से (अकृण्वत) = हृदय में प्रतिष्ठित करते हैं, अर्थात् अध्यात्म - संग्राम में जब काम - क्रोधादि वासनाओं का प्रबल आक्रमण होता है तब उस आक्रमण - भय से भयभीत स्तोता प्रभु का स्तवन करते हैं । ये प्रभु ही स्तोता की वृद्धि का कारण होते हैं, उसे आह्लादक प्रकाश से युक्त करते हैं, वासनाओं से लड़ने की शक्ति प्राप्त कराते हैं और उसके जीवन को स्वर्गमय बनाते हैं । २. यह स्तवन का समय वह होता है (यत्) = जब (इन्द्रम्) = जीव को (मरुतः) = प्राण (ननु) = निश्चय से (अमदन्) = हर्षित करते हैं । वे प्राण जो (मानुष - प्रधनाः) मानव - हितसाधक संग्राम करते हैं, (स्वः ऊतयाः) = प्रकाश का रक्षण करनेवाले हैं और (नृषाचः) = उन्नति - पथ पर चलनेवाले मनुष्यों का सेवन करते हैं । प्राणसाधना से यह अध्यात्म - संग्राम मनुष्य के लिए हितकर होता है, क्योंकि वासनाओं का पराजय व हमारी विजय इस प्राणसाधना पर ही तो आश्रित है । वासनाओं का विनाश करके ये प्राण ज्ञान पर पर्दे को नहीं आने देते और इस प्रकार हमारा जीवन दीप्त बना रहता है । प्राणों की यही सबसे बड़ी सेवा है कि वे हमारी बुद्धियों को सुस्थिर रखते हैं । ३. एवं, प्रभुस्तवन के साथ प्राणसाधना जुड़ जाती है तो हमें कामादि शत्रुओं का भय नहीं रहता । प्रभुस्तवन का हमारे जीवन में वही स्थान है जोकि रामायण में हनुमान् का । राम के बिना रामायण का कोई आधार ही नहीं, उसी प्रकार प्रभुस्तवन ही जीवन का भी मूलाधार है । जैसे हनुमान के बिना रामायण अधूरी ही रहती है, वैसे ही प्राणसाधना के बिना जीवन भी अधूरा रह जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अपने जीवन में प्रभुस्तवन और प्राणसाधना का समन्वय करके चलें, यही स्वर्ग - प्राप्ति का अभय मार्ग है ।
विषय
और उनके कर्तव्यों और सामर्थ्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( यत् ) जो ( भियसा ) सांसारिक दुःखों से भय खाकर ( मानुष-प्रधनाः ) मनुष्यों के हितार्थ उत्तम २ धनों का संग्रह करनेहारे सम्पन्न पुरुष ( बृहत् ) उस महान् ( स्व-चन्द्रम् ) स्वयं स्वभाव से आह्लादकारक, (अमवत् ) उत्तम ज्ञान सम्पन्न, सब दुःखों के काटनेहारे, (उक्थ्यं) स्तुति योग्य ब्रह्म की ( अकृण्वत ) स्तुति करते हैं तब वे (दिवः रोहणम् ) आकाश के बीच उदय होने वाले सूर्य के समान देदीप्यमान एवं ( दिवः आरोहणं ) ज्ञान और प्रकाश के प्रदान करनेवाले ( इन्द्रम् ) परमेश्वर को वे (नृषाचः) अपने समस्त प्राणों पर वश करनेहारे, उनको एकाग्र करने वाले (मरुतः) विद्वान्जन (अनु) साक्षात् कर ( स्वः अमदन् ) बड़े प्रसन्न, हर्ष, आनन्द और सुख अनुभव करते हैं । इसी प्रकार ( मानुष-प्रधनाः ) मनुष्यों में धनसम्पन्न पुरुष (ऊतयः) प्रजाओं के रक्षक ( मरुतः ) विद्वान् और वीर लोग ( नृषाचः ) बहुतसे मनुष्यों का समवाय बनाकर, अथवा नेताओं पर आश्रित होकर ( भियसा ) शत्रु के भय से ( यत् यत् ) जब जब भी ( बृहत् ) अपने में से बड़े, ( स्वचन्द्रम् ) अपने अनुयायी प्रजा के आह्लादक, प्रजारंजक, ( उक्थ्यम् ) स्तुति योग्य, पुरुष को ( दिवः आरोहणम्) समस्त विजयशील सेना और ज्ञान युक्त सभा के ऊपर, आकाश में उदय होते हुए सूर्य के समान तेजस्वी शासक रूप से बना देते हैं तब वे ( इन्द्रम् अनु स्वः अमदन् ) उस ऐश्वर्यवान् स्वामी के साथ साथ ही स्वयं भी बड़े सुख, या स्वर्ग समान समृद्ध राष्ट्र का उपभोग करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह मनुष्य क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
ये मानुषप्रधना नृषाचः मरुत इन्द्रं प्राप्य यत् वृहत् स्वः चन्द्रम् अमवत् उक्थ्यं स्वः सुखं च अकृण्वत कुर्वन्ति यत् ये भियसा दुःखभयेन दिवः प्रकाशमानस्य मोक्षसुखस्य आरोहणम् ऊतयः भूत्वा अनु अमदन् अनुमोदन्ते ते सुखिनः स्युः ॥ ९ ॥
पदार्थ
(ये)=जो, (मानुषप्रधनाः) मनुष्याणां प्रकृष्टानि धनानि याभ्यस्ताः=मनुष्यों केप्रकृष्ट धन हैं, उनसे (नृषाचः) ये नॄन् सचन्ति समवयन्ति ते=जो साथ में ले जाते हैं, (मरुतः) प्राणादयः=प्राण आदि को, (इन्द्रम्) विद्युतम्=विद्युत् को, (प्राप्य) =प्राप्त करके, (यत्) यम्=जो, (बृहत्) महत्=बड़े, (स्वश्चन्द्रम्) स्वेनप्रकाशेनाह्लादकारकेण युक्तं सुवर्णम्=अपने प्रकाश से प्रसन्नता से युक्त सुवर्ण, (अमवत्) अमः प्रशस्तो बोधः सम्भागो यस्मिँस्तत्= प्रशस्त ज्ञानवाला, (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम्=प्रशंसनीय, (च)=और, (स्वः) सुखम् =सुख को, (अकृण्वत) कुर्वन्ति=[प्रदान] करते हैं, (यत्) गुणप्रकाशकम्=जो गुणों का प्रकाश करनेवाला हैं, (ये) =जो, (भियसा) भयेन=भय से, (दुःखभयेन)=दुःख के भय से, (दिवः) प्रकाशमानस्य=प्रकाशमान के, (मोक्षसुखस्य ) मोक्ष सुख का, (अनु) आनुकूल्ये =अनुकूलता में, (रोहणम्) आरोहन्ति येन तत्=जिससे चढ़ते हैं, (ऊतयः) रक्षणाद्याः=रक्षण आदि, (भूत्वा) =होकर, (अनु) =साथ-साथ, (अमदन्) हर्षन्ति= प्रसन्न होते है, (ते)=वे, (सुखिनः)=सुखी, (स्युः)=होवें ॥ ९ ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
विद्या रूपी धन, राज्य, पराक्रम, बल और पुरुषों की सहायता, ये सब जिस धार्मिक विद्वान् मनुष्य को प्राप्त होते हैं, उसको उत्तम सुख उत्पन्न कराते हैं ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(ये) जो (मानुषप्रधनाः) मनुष्यों के प्रकृष्ट धनों को (नृषाचः) साथ में ले जानेवाले, (मरुतः) प्राण आदि और (इन्द्रम्) विद्युत् को (प्राप्य) प्राप्त करके, (यत्) जो (बृहत्+ स्वश्चन्द्रम्) अपने महान् प्रकाश से प्रसन्नता से युक्त सुवर्ण, (अमवत्) प्रशस्त ज्ञानवाले (च) और (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय हैं, [वे] (स्वः) सुख को (अकृण्वत) [प्रदान] करते हैं। (यत्) जो गुणों का प्रकाश करनेवाले हैं, (ये) जो (दुःखभयेन) दुःख के भय से (दिवः) प्रकाशमान के (मोक्षसुखस्य) मोक्ष सुख की (अनु) अनुकूलता में, (रोहणम्) जिससे चढ़ते हैं, [उसका] (ऊतयः) रक्षण आदि (भूत्वा) होकर (अनु) साथ-साथ (अमदन्) प्रसन्न होते हैं। (ते) वे (सुखिनः) सुखी (स्युः) होवें ॥ ९ ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (बृहत्) महत् (स्वश्चन्द्रम्) स्वेन प्रकाशेनाह्लादकारकेण युक्तं सुवर्णम्। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) अत्र हस्वाच्चन्द्रोत्तरपदे मन्त्रे। (अष्टा०६.१.१५१) अनेन सुडागमः। (अमवत्) अमः प्रशस्तो बोधः सम्भागो यस्मिँस्तत् (यत्) गुणप्रकाशकम् (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (अकृण्वत) कुर्वन्ति (भियसा) भयेन (रोहणम्) आरोहन्ति येन तत् (दिवः) प्रकाशमानस्य (यत्) यम् (मानुषप्रधनाः) मनुष्याणां प्रकृष्टानि धनानि याभ्यस्ताः (इन्द्रम्) विद्युतम् (ऊतयः) रक्षणाद्याः (स्वः) सुखम् (नृषाचः) ये नॄन् सचन्ति समवयन्ति ते (मरुतः) प्राणादयः (अमदन्) हर्षन्ति (अनु) आनुकूल्ये ॥ ९ ॥ विषयः- पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- ये मानुषप्रधना नृषाचो मरुत इन्द्रं प्राप्य यद्बृहत्स्वश्चन्द्रममवदुक्थ्यं स्वः सुखं चाकृण्वत कुर्वन्ति यद्ये भियसा दुःखभयेन दिवः प्रकाशमानस्य मोक्षसुखस्यारोहणमूतयो भूत्वाऽन्वमदन्ननुमोदन्ते ते सुखिनः स्युः ॥ ९ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्याधनं राज्यं पराक्रमो बलं पुरुषसहायश्च यं धार्मिकं विद्वासं प्राप्नुवन्ति, तमुत्तमं सुखं जनयन्ति ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्याधन, राज्य, पराक्रम, बल व पुरुषाचे साह्य ज्या धार्मिक विद्वान माणसांना प्राप्त होतात, त्यांना उत्तम सुख मिळते. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
When humanity, stricken with fear of Vritra and drought, raises great, heavenly, beautiful, enlightened and powerful songs of praise and prayer rising to the heavens in honour of Indra, and when the protective forces of nature such as winds and pranic energy fighting for humanity move into action and bring showers of joy from heaven for humanity on earth, then all these forces and humanity rejoice with thanks and praise to Indra.
Subject of the mantra
Then what should that person do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye) =Those, (mānuṣapradhanāḥ)= to the great wealth of human beings, (nṛṣācaḥ)= carry along, (marutaḥ) =by life breath etc., (indram) =to the electricity, (prāpya) =having obtained, (yat) =those, (bṛhat+ svaścandram)=gold full of happiness with its great light, (amavat)=having extensive knowledge, (ca) =and, (ukthyam) =are praise worthy, [ve]=they, (svaḥ) =to the delight, (akṛṇvata)=do, [pradāna] =provide, (yat) =those who illuminate the virtues, (ye) =those, (duḥkhabhayena) =out of fear of sadness, (divaḥ) =of the luminous, (mokṣasukhasya) =bliss of salvation, (anu)=in compatibility, (rohaṇam)=by which climb, [usakā]=of that, (ūtayaḥ) =protection etc., (bhūtvā) =having achieved, (anu) =together, (amadan)= are happy, (te) =they, (sukhinaḥ) =happy, (syuḥ) =must be.
English Translation (K.K.V.)
He who carries with him the great wealth of human beings, having obtained life etc. and electricity, who is golden with happiness with his great light, has vast knowledge and is praiseworthy, He bestows happiness. Those who shine the light of virtues, who are happy at the same time by being the protection of the one from whom they climb, in favour of the happiness of salvation from the fear of sorrow. May they be happy.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Wealth in the form of knowledge, kingdom, valour, strength and help of men, all these give great happiness to the righteous scholar who gets them.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What else should he do is taught in the 9th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Those brave persons enjoy happiness, who utilize their wealth for the welfare of mankind, who create unity among men, who are protectors or guardians of men, who fearing trouble from the foes, appoint a person who is great, giver of delight to his followers and full of gladdening splendor, admirable and learned as President of the Assembly and Ruler, shining like the sun in the sky. They follow him and get gradually bliss of emancipation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अमवत्) अम: प्रशस्तो बोधः यस्मिन् तत् = Possessing good knowledge. (नृषाच:) ये नृन सचन्ति समवयन्ति ते = Those who unite men.( मरुतः ) प्राणादयः = Pranas and brave persons practicing Pranayama etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The learned and righteous person who acquires the wealth of knowledge, kingdom, vigor, strength and the co-operation of men, enjoys good happiness.
Translator's Notes
षच-समवाये । प्राणा वै मारुताः [ शत० ९.३.१.७ ] विशो मरुतः (शत: २.५.२.६।४.३.३.६) मरुतो मितराविणो मितरोचिनः महद् द्रवन्तीति वा (निरुक्ते ११.२) = Brave persons who talk less but are very mighty, active and full of splendor. The Mantra is equally applicable to God. When devotees of God, meditate upon and follow Him who is Giver of all joy, Destroyer of all misery and most Admirable, they enjoy the Bliss of Emancipation.
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