ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 5
अ॒भि स्ववृ॑ष्टिं॒ मदे॑ अस्य॒ युध्य॑तो र॒घ्वीरि॑व प्रव॒णे स॑स्रुरू॒तयः॑। इन्द्रो॒ यद्व॒ज्री धृ॒षमा॑णो॒ अन्ध॑सा भि॒नद्व॒लस्य॑ परि॒धीँरि॑व त्रि॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । स्वऽवृ॑ष्टिम् । मदे॑ । अ॒स्य॒ । युध्य॑तः । र॒घ्वीःऽइ॑व । प्र॒व॒णे । स॒स्रुः॒ । ऊ॒तयः॑ । इन्द्रः॑ । यत् । व॒ज्री । धृ॒षमा॑णः॑ । अन्ध॑सा । भि॒नत् । व॒लस्य॑ । प॒रि॒धीन्ऽइ॑व । त्रि॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्रुरूतयः। इन्द्रो यद्वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद्वलस्य परिधीँरिव त्रितः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि। स्वऽवृष्टिम्। मदे। अस्य। युध्यतः। रघ्वीःऽइव। प्रवणे। सस्रुः। ऊतयः। इन्द्रः। यत्। वज्री। धृषमाणः। अन्धसा। भिनत्। वलस्य। परिधीन्ऽइव। त्रितः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यद्यः सूर्य इव शस्त्राणां स्ववृष्टिं कुर्वन् धृषमाणो वज्रीन्द्रः सभाद्यध्यक्षो मदेऽस्य युध्यतः शत्रोस्त्रितः परिधींरिव बलमभिभिनदभितो भिनत्ति तस्यान्धसा रघ्वीः प्रवण इवोतयः सस्रुः ॥ ५ ॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये (स्ववृष्टिम्) स्वस्य शस्त्राणां वा वृष्टिर्यस्य तम् (मदे) हर्षे (अस्य) शत्रोर्वृत्रस्य वा (युध्यतः) युद्धं कुर्वतः (रघ्वीरिव) यथा गमनशीला नद्यः (प्रवणे) निम्नस्थाने (सस्रुः) गच्छन्ति (ऊतयः) रक्षणाद्याः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षो विद्युद्वा (यत्) यः (वज्री) प्रशस्तो वज्रः शत्रुच्छेदकः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य सः (धृषमाणः) शत्रूणां धर्षणाऽऽकर्षणे प्रगल्भः (अन्धसा) अन्नादिनोदकादिना वा (भिनत्) भिनत्ति (बलस्य) बलवतः शत्रोर्मेघस्य वा। बल इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (परिधींरिव) सर्वत उपरिस्था गोलरेखेव (त्रितः) उपरिरेखातो मध्यरेखातस्तिर्यग्रेखातश्च ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽऽपो निम्नस्थानं प्रतिगच्छन्ति, तथा सभाध्यक्षो नम्रो भूत्वा विनयं प्राप्नुयात् ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
(यत्) जो सूर्य्य के समान (स्ववृष्टिम्) अपने शस्त्रों की वृष्टि करता हुआ (धृषमाणः) शत्रुओं को प्रगल्भता दिखाने हारा (वज्री) शत्रुओं को छेदन करनेवाले शस्त्रसमूह से युक्त (इन्द्रः) सभाध्यक्ष (मदे) हर्ष में (अस्य) इस (युध्यतः) युद्ध करते हुए (बलस्य) शत्रु के (त्रितः) ऊपर, मध्य और टेढ़ी तीन रेखाओं से (परिधींरिव) सब प्रकार ऊपर की गोल रेखा के समान बल को (अभि भिनत्) सब प्रकार से भेदन करता है, उसके (अन्धसा) अन्नादि वा जल से (रघ्वीरिव) जैसे जल से पूर्ण नदियाँ (प्रवणे) नीचे स्थान में जाती हैं, वैसे (ऊतयः) रक्षा आदि (सस्रुः) गमन करती हैं ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जल नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे सभाध्यक्ष नम्र होकर विनय को प्राप्त होवे ॥ ५ ॥
विषय
वल - परिधि - ओदन अथवा असुरों से युद्ध
पदार्थ
१. (स्ववृष्टिम्, अभि) = आत्मतत्त्व की प्राप्ति के आनन्द की वृष्टि का लक्ष्य करके (मदे) = सोम के मद में (युध्यतः, अस्य) = वासनाओं से युद्ध करते हुए इस प्रभु - भक्त की ओर (ऊतयः) = सब रक्षण इस प्रकार (सस्रुः) = प्राप्त होते हैं (इव) = जैसे (प्रवणे) = निम्न प्रदेश में (रध्वी) = वेग से बहती हुई नदियाँ । जब मनुष्य आनन्द - प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाकर, वासनाओं से युद्ध करता है तब इसे प्रभु - कृपा से सब प्रकार के रक्षण प्राप्त होते हैं । २. ये सब रक्षण उसे प्राप्त तभी होते हैं (यत्) = जब (इन्द्रः) = यह इन्द्रियों का अधिष्ठाता जितेन्द्रिय पुरुष (वज्री) = क्रियाशील हाथोंवाला बनकर [वज गतौ] (धृषमाणः) = शत्रुओं का धर्षण करता हुआ (अन्धसा) = सोमरक्षण के द्वारा (त्रितः) = 'ज्ञान, कर्म व उपासना' - तीनों का विस्तार करनेवाला (वलस्य) = ज्ञान पर पर्दा डाल देनेवाले [वल veil] काम की (परिधीन् इव) = परिधियों के समान 'काम, क्रोध, लोभ' को (भिनत्) = विदीर्ण कर देता है । ३. 'काम, क्रोध, लोभ' - ये तीनों इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर इस प्रकार का पर्दा - सा डाल देते हैं कि काम से इन्द्रियशक्तियाँ जीर्ण हो जाती हैं, क्रोध से मानस स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है और लोभ बुद्धि को विचलित कर देता है । ये ही 'असुरों के तीन घेरे' कहलाते हैं । असुरों के इन दुर्गों को नष्ट करनेवाला व्यक्ति भी 'त्रित' [त्रीणि तरति] कहलाता है । इन दुर्गों के विदीर्ण, करनेवाले, असुरों से युद्ध करनेवाले पुरुष को प्रभु - रक्षण प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम त्रित बनकर असुरों को तीन परिधियों को नष्ट करते हैं तो उस आसुर - युद्ध में हमें प्रभु का रक्षण प्राप्त हो जाता है । इस प्रभु - प्राप्त रक्षण से ही वस्तुतः हम असुरों को जीत पाते हैं ।
विषय
वर्षते हुए मेघ से सेनापति राजा और परमेश्वर की तुलना ।
भावार्थ
(अस्य) इस सेनाध्यक्ष के ( मदे युध्यतः ) अति आवेश में युद्ध करते हुए (स्ववृष्टिम् अभि) अपने वाणों और ऐश्वर्यों की वृष्टि के सामने उसको लक्ष्य करके, ( रध्वीः इव ) अति वेग से बहने वाली नदियें जिस प्रकार ( प्रवणे सस्रुः) नीचे स्थान में बह जाती हैं उसी प्रकार (अस्य रध्वीः ऊतयः) उसकी प्रचण्ड वेग से जाने वाली रक्षाकारी सेनाएं भी (प्रवणे) अपने से दबने वाले शत्रु पर या (प्रवणे) उत्कृष्ट कोटि के ऐश्वर्य पर (सस्त्रुः) टूट पड़ती हैं। (यत्) जिस प्रकार ( इन्द्रः ) सूर्य और वायु ( बलस्य ) मेघ के ( परिधीन् ) पटलों को (त्रितः) ऊपर, आडे और तिरछे तीनों प्रकारों से ( भिनत् ) छिन्न भिन्न कर देता है उसी प्रकार (वज्री) बलवान् खड्ग आदि शस्त्रों के धारण करने हारा (इन्द्रः) शत्रुघाती, सेनापति (त्रितः) त्रिगुण सैन्य से युक्त होकर (धृषमाणः) शत्रुओं का बलपूर्वक पराजय करता हुआ ( बलस्य ) बलवान् शत्रु के ( परिधीन् ) चारों ओर स्थापित रक्षा पुरुषों को ( अन्धसा ) अन्धकार को दूर करने वाले तेज के समान तीक्ष्ण बल से, तथा अन्नादि उपभोग्य पदार्थों के प्रलोभन द्वारा ( भिनत् ) छिन्न भिन्न करे अर्थात् उनमें दान और दण्ड के उपायों से भेद का प्रयोग करे । इति द्वादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष किसके तुल्य क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यद् यः सूर्य इव शस्त्राणां स्ववृष्टिं कुर्वन् धृषमाणः वज्री इन्द्रः सभादि अध्यक्षः मदे अस्य युध्यतः शत्रोः त्रितः परिधींरिव बलम् अभिभिनत् अभितः भिनत्ति तस्य अन्धसा रघ्वीः प्रवण इव ऊतयः सस्रुः॥५॥
पदार्थ
(यः)=जो, (सूर्य)=सूर्य के, (इव)=समान, (शस्त्राणाम्)= शस्त्रों के, (स्ववृष्टिम्)=बरसाने का कार्य, (कुर्वन्)=करते हुए, (धृषमाणः) शत्रूणां धर्षणाऽऽकर्षणे प्रगल्भः = शत्रुओं का अहंकार नष्ट करने में तत्पर, (वज्री) प्रशस्तो वज्रः शत्रुच्छेदकः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य सः= प्रशंसनीय वज्र वाले, (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षो विद्युद्वा= सभा आदि के अध्यक्ष या वज्र, (सभादि)= सभादि के, (अध्यक्षः)= अध्यक्ष, (मदे) हर्षे=हर्षित होकर, (अस्य) शत्रोर्वृत्रस्य वा=शत्रु या बादल से, (युध्यतः) युद्धं कुर्वतः=युद्ध करते हुए, (शत्रोः)= शत्रु को, (त्रितः) उपरिरेखातो मध्यरेखातस्तिर्यग्रेखातश्च=ऊपर की रेखा से मध्य रेखा तक और तिर्यग रेखा से, (परिधींरिव) सर्वत उपरिस्था गोलरेखेव=गोल रेखा के समान पूरी तरह ऊपर स्थित होकर, (बलम्) बलवतः शत्रोर्मेघस्य वा=बलवान के या शत्रु बादल को, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (भिनत्) भिनत्ति=छिन्न-भिन्न करता है, (अभितः)=हर ओर से, (भिनत्ति)= छिन्न-भिन्न करता है, (तस्य)=उसके, (अन्धसा) अन्नादिनोदकादिना वा=अन्न आदि और जल, [रघ्वीरिव] यथा गमनशीला नद्यः=नदियों के समान बहता हुआ, (प्रवणे) निम्नस्थाने=नीचे के स्थान में, (इव)=समान, (ऊतयः) रक्षणाद्याः=रक्षण आदि के लिये, (सस्रुः) गच्छन्ति=पहुँचती हैं ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जल नीचे के स्थान की ओर जाता है, वैसे ही सभाध्यक्ष नम्र होकर विनय प्राप्त करता है॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) जो (सूर्य) सूर्य के (इव) समान (शस्त्राणाम्) शस्त्रों के (स्ववृष्टिम्) बरसाने का कार्य (कुर्वन्) करते हुए, (धृषमाणः) शत्रुओं का अहंकार नष्ट करने में तत्पर, (वज्री) प्रशंसनीय वज्र वाले, (इन्द्रः) सभा आदि के अध्यक्ष या वज्र (मदे) हर्षित होकर, (अस्य) शत्रु या बादल से (युध्यतः) युद्ध करते हुए, (शत्रोः) शत्रु को (त्रितः) ऊपर की रेखा से मध्य रेखा तक और तिर्यग रेखा से (परिधींरिव) गोल रेखा के समान पूरी तरह ऊपर स्थित होकर, (बलम्) बलवान को या शत्रु बादल को, (अभि) सामने से (भिनत्) छिन्न-भिन्न करता है और (अभितः) हर ओर से (भिनत्ति) छिन्न-भिन्न करता है, (तस्य) उसके (अन्धसा) अन्न आदि और जल [रघ्वीरिव] नदियों के समान बहते हुए, (प्रवणे) नीचे के स्थान में (इव) जैसे (ऊतयः) रक्षण आदि के लिये (सस्रुः) जाती हैं ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अभि) आभिमुख्ये (स्ववृष्टिम्) स्वस्य शस्त्राणां वा वृष्टिर्यस्य तम् (मदे) हर्षे (अस्य) शत्रोर्वृत्रस्य वा (युध्यतः) युद्धं कुर्वतः (रघ्वीरिव) यथा गमनशीला नद्यः (प्रवणे) निम्नस्थाने (सस्रुः) गच्छन्ति (ऊतयः) रक्षणाद्याः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षो विद्युद्वा (यत्) यः (वज्री) प्रशस्तो वज्रः शत्रुच्छेदकः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य सः (धृषमाणः) शत्रूणां धर्षणाऽऽकर्षणे प्रगल्भः (अन्धसा) अन्नादिनोदकादिना वा (भिनत्) भिनत्ति (बलस्य) बलवतः शत्रोर्मेघस्य वा। बल इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (परिधींरिव) सर्वत उपरिस्था गोलरेखेव (त्रितः) उपरिरेखातो मध्यरेखातस्तिर्यग्रेखातश्च ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यद्यः सूर्य इव शस्त्राणां स्ववृष्टिं कुर्वन् धृषमाणो वज्रीन्द्रः सभाद्यध्यक्षो मदेऽस्य युध्यतः शत्रोस्त्रितः परिधींरिव बलमभिभिनदभितो भिनत्ति तस्यान्धसा [रघ्वीरिव] प्रवण इवोतयः सस्रुः॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽऽपो निम्नस्थानं प्रतिगच्छन्ति, तथा सभाध्यक्षो नम्रो भूत्वा विनयं प्राप्नुयात्॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे जल निम्न स्थानी वाहते तसे सभाध्यक्षांनी नम्र बनून विनयी व्हावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Like streams rushing down to the sea, the defence forces of this warrior hero, Indra, rush to him to join in his celebration by soma, Indra, wielder of the thunderbolt, daring the enemy, who showers the enemy with a rain of arrows and breaks down the threefold defence lines of the enemy three ways, up, down and cross-wise.
Subject of the mantra
Then what does that Chairman of the Assembly do like whom, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ) =that, (sūrya) =of the Sun, (iva) =like, (śastrāṇām)=of arms, (svavṛṣṭim)=act of showering, (kurvan) =doing, (dhṛṣamāṇaḥ)=ready to destroy the ego of enemies, (vajrī)=the one with praiseworthy thunderbolt, (indraḥ)= President of the Assembly etc. or thunderbolt, (made)= rejoicing, (asya)= from enemy or cloud, (yudhyataḥ) =battling, (śatroḥ) =to enemy, (tritaḥ)=from the top line to the middle line and from the diagonal line, (paridhīṃriva)=positioned completely above like a round line, (balam)=to the strong or to the enemy cloud, (abhi) =from front, (bhinat) shatters and, (abhitaḥ) =from all sides, (bhinatti)=shatters and, (tasya) =his, (andhasā)= food etc. and water, [raghvīriva] =flowing like rivers, (pravaṇe) in the bottom place, (iva) =as, (ūtayaḥ)= for protection etc., (sasruḥ)=go.
English Translation (K.K.V.)
The one, who showers weapons like the Sun, ready to destroy the ego of the enemies, praiseworthy thunderbolt, Chairman of Assembly et cetera and situated completely above the oblique line like a round line, the strong or the enemy cloud, shatters it from the front and shatters it on all sides, its food etc. and water flowing like rivers, down In the place of such as goes for protection et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. As the water goes towards the lower place, in the same way, the Chairman of the Assembly gets humility by being humble.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should he (Indra) be is taught further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Indra (President of the assembly or the Commander of the Army) wielder of powerful weapons raining down arms like the sun expert in overcoming and slaying the intoxicated fighting mighty enemies breaks through their defenses from three lines as the sun destroys the cloud. As the rivers flow towards a low place, so the President of the Assembly also should be humble though most powerful, nourishing all with food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रध्वीः इव ) यथा गमनशीलाः नद्यः = As flowing rivers. रथ -गतौ ( त्रितः ) उपरिरेखात: मध्यरेखात: तिर्यग् रेखातश्च = From the lines lying upward, middle and curved.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the waters go towards a low place, in the same way, the President of the Assembly should be humble, meek and unassuming.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Sri Rajendra Prasad
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal