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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ह्र॒दं न हि त्वा॑ न्यृ॒षन्त्यू॒र्मयो॒ ब्रह्मा॑णीन्द्र॒ तव॒ यानि॒ वर्ध॑ना। त्वष्टा॑ चित्ते॒ युज्यं॑ वावृधे॒ शव॑स्त॒तक्ष॒ वज्र॑म॒भिभू॑त्योजसम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह्र॒दम् । न । हि । त्वा॒ । नि॒ऽऋ॒षन्ति॑ । ऊ॒र्मयः॑ । ब्रह्मा॑णि । इ॒न्द्र॒ । तव॑ । यानि॑ । वर्ध॑ना । त्वष्टा॑ । चि॒त् । ते॒ । युज्य॑म् । व॒वृ॒धे॒ । शवः॑ । त॒तक्ष॑ । वज्र॑म् । अ॒भिभू॑तिऽओजसम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ह्रदं न हि त्वा न्यृषन्त्यूर्मयो ब्रह्माणीन्द्र तव यानि वर्धना। त्वष्टा चित्ते युज्यं वावृधे शवस्ततक्ष वज्रमभिभूत्योजसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ह्रदम्। न। हि। त्वा। निऽऋषन्ति। ऊर्मयः। ब्रह्माणि। इन्द्र। तव। यानि। वर्धना। त्वष्टा। चित्। ते। युज्यम्। ववृधे। शवः। ततक्ष। वज्रम्। अभिभूतिऽओजसम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ते वर्द्धना ब्रह्माण्यूर्मयो ह्रदं न न्यृषन्ति यथा हि त्वष्टा ज्योतींषि शवोऽभिभूत्योजसं युज्यं वज्रं प्रहृत्य सर्वान् पदार्थान् ततक्ष तक्षति तथा त्वं भव ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (ह्रदम्) जलाशयम् (न) इव (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (न्यृषति) नितराम् प्राप्नुवन्ति (ऊर्मयः) तरङ्गादयः (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि (इन्द्र) विद्युद्वद्वर्त्तमान (तव) (यानि) वक्ष्यमाणानि (वर्धना) सुखानां वर्धनानि (त्वष्टा) मेघाऽवयवानां मूर्त्तद्रव्याणां च छेत्ता (चित्) अपि (ते) तव (युज्यम्) योक्तुमर्हम् (वावृधे) वर्धते (शवः) बलम् (ततक्ष) तक्षति (वज्रम्) प्रकाशसमूहम् (अभिभूत्योजसम्) अभिगतानि तप ऐश्वर्याण्योजः पराक्रमश्च यस्मात्तम् ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जलं निम्नं स्थानं गत्वा स्थिरं स्वच्छं भवति तथा सद्गुणविनयवन्तं पुरुषं प्राप्य स्थिराः शुद्धिकारका भवन्तीति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) बिजुली के समान वर्त्तमान (ते) आपके (वर्द्धना) बढ़ानेहारे (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े अन्न (ऊर्मयः) तरंग आदि (ह्रदम्) (न) जैसे नदी जलस्थान को प्राप्त होती हैं, वैसे (हि) निश्चय करके ज्योतियों को (न्यृषन्ति) प्राप्त होते हैं, वह (त्वष्टा) मेघाऽवयव वा मूर्तिमान् द्रव्यों का छेदन करनेवाले (शवः) बल (अभिभूत्योजसम्) ऐश्वर्ययुक्त पराक्रम तथा (युज्यम्) युक्त करने योग्य (वज्रम्) प्रकाशसमूह का प्रहार करके सब पदार्थों को (ततक्ष) छेदन करता है, वैसे आप भी हूजिये ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जल नीचे स्थानों को जाकर स्थिर वा स्वच्छ होता है, वैसे ही राजपुरुष उत्तम-उत्तम गुणयुक्त तथा विनयवाले पुरुष को प्राप्त होकर स्थिर और शुद्धि करनेवाले होते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    प्रभुस्तवन व काम - संहार

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वा) = तुझे (ब्रह्माणि) = प्रभु के स्तोत्र (हि) = निश्चय से (न्यृषन्ति) = नम्रता के साथ उसी प्रकार प्राप्त होते हैं [नि - ऋषन्ति] (न) = जैसे (ऊर्मयः) = तरंगें (ह्रदम्) = एक बड़ी भारी झील को प्राप्त होती हैं । जिस प्रकार झील व समुद्र में बड़ी - बड़ी तरंगें उठती हैं उसी प्रकार तेरे मानस में भी प्रभु के स्तोत्र उमड़ते हैं । ये स्तोत्र वे हैं (यानि) = जो (तव वर्धना) = तेरे वर्धन का कारण हैं । इनसे तेरे सामने भी एक ऊँची लक्ष्यदृष्टि उत्पन्न होती है और तू जीवन में ऊँचा और ऊँचा उठता चलता है । २. इन स्तोत्रों से तेरा सम्बन्ध उस प्रभु से होता है और वे (त्वष्टा) = सम्पूर्ण क्रियाओं के करनेवाले प्रभु (चित्) = निश्चय से (ते) = तेरे (युज्यं शवः) = योग्य बल को (वावृधे) = बढ़ाते हैं अथवा (युज्यम्) = प्रभुसम्पर्क से उत्पन्न होनेवाले बल को बढ़ाते हैं । सम्पूर्ण शक्ति के स्रोत प्रभु हैं, प्रभु से मेरा मेल होगा तो मुझमें भी शक्ति का प्रवाह क्यों न प्रवाहित होगा ? ३. वे त्वष्टा प्रभु हम भक्तों के लिए (अभिभूत्योजसम्) = शत्रुओं को पराभूत करनेवाले बल से युक्त (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूपी वज्र को (ततक्ष) = बनाते हैं । प्रभुसम्पर्क से हमें वह क्रियाशीलता प्राप्त होती है जो हमारे काम - क्रोधादि अन्तः शत्रुओं के लिए वज्र का काम देती है और हमें इन शत्रुओं को पराजित करने के योग्य बनाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुस्तवन हमारा वर्धन करनेवाला हो । प्रभु हमारे बल को बढ़ावें और हम क्रियाशीलता के द्वारा काम - क्रोधादि का संहार करनेवाले हों ।

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    विषय

    और उनके कर्तव्यों और सामर्थ्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( ऊर्मयः ) तरंगें जिस प्रकार आपसे आप स्वभावतः ( ह्रदं न ) जलाशय को प्राप्त होती हैं, अथवा जिस प्रकार ( ऊर्मयः ह्रदं न ) नाना जलधाराएं बड़े जलाशय को ( नि ऋषन्ति ) प्राप्त होती हैं, उसी में आ मिलती हैं और उसके स्वरूप को बढ़ा देती हैं उसी प्रकार हे परमेश्वर ! ( यानि ) जितने भी ( ब्रह्माणि ) ये वेदमन्त्र, अथवा बड़े पृथिवी, आकाशादि पदार्थ हैं वे सब स्वभावतः ( हि ) निश्चय से ( तव ) तेरी ही ( वर्धना ) महिमा को बढ़ानेवाले हैं, तेरे गुणों का प्रकाश करने वाले हैं। इसी प्रकार हे राजन् ! जिस प्रकार जलतरंग जलाशय को प्राप्त होते हैं और उसको बढ़ाते हैं उसी प्रकार ( ब्रह्माणि ) समस्त बड़े ऐश्वर्य अन्नादि भोग्य पदार्थ, बड़े बड़े राष्ट्र और ब्राह्मणवर्ग और वेद के अनुशासन (यानि) जितने भी हैं वे सब (तव वर्धना) तेरे ही को बढ़ानेवाले, तेरी शक्ति सामर्थ्य की वृद्धि करनेहारे हों । ( त्वष्टा चित्) जिस प्रकार मेघ या जल के अवयव को सूक्ष्म सूक्ष्म कणों में छेदनभेदन करने में समर्थ सूर्य या विद्युत् ( युज्यम् शवः ) संयोग से प्राप्त होनेवाले और रथादि संचालन कार्यों में लगाने योग्य बल को (वावृधे) बढ़ाता है और (अभिभूति-ओजसम्) सब शत्रुओं के पराजय करनेवाले ओज, पराक्रम या परम बल को धारण करनेवाले (वज्रम्) प्रबल शक्तिमान् अस्त्र को भी (ततक्ष) बना सकता है उसी प्रकार ( त्वष्टा ) कांतिमान्, सर्व सृष्टि का रचयिता परमेश्वर (युज्यं शवः) योग समाधि से प्राप्त होनेवाले बल को ( वावृधे ) बढ़ाता है। और (अभि भूत्योजसम् ) सब प्रकार के काम, क्रोध आदि भीतरी तथा बाहरी शत्रुओं को भी दबा लेने वाले तथा समस्त ऐश्वर्यों और पराक्रम को धारण करने वाले (वज्रम्) बलको (ततक्ष) पैदा कर देता है। उसी प्रकार हे राजन् ! ( त्वष्टा ) बढ़ई या शिल्पी, ( ते युज्यं शवः वावृधे ) तेरे अनुरूप तेरे योग्य सहकारी शस्त्रास्त्रबल को भी बढ़ावें और (अभिभूति-ओजसम् वज्रम्) शत्रुओं को दबाने, पराजय करने वाले पराक्रम से युक्त वज्र या महास्त्र को भी (ततक्ष ) बनावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह राजपुरुष कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! ते वर्द्धना ब्रह्माणि उर्मयः ह्रदं न न्यृषन्ति यथा हि त्वष्टा ज्योतींषि शवः अभिभूत्योजसं युज्यं वज्रं प्रहृत्य सर्वान् पदार्थान् ततक्ष तक्षति तथा त्वं भव ॥ ७ ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विद्युद्वद्वर्त्तमान= विद्युत् के समान वर्तमान! (ते) तव=तुम्हारे, (वर्धना) सुखानां वर्धनानि =सुखों की वृद्धि, (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि=बहुत बड़े अन्न, (ऊर्मयः) तरङ्गादयः=तरङ्ग आदि, (ह्रदम्) जलाशयम्=जलाशय के, (न) इव=समान, (न्यृषति) नितराम् प्राप्नुवन्ति=अच्छी तरह से प्राप्त होते हैं, (यथा)=जैसे, (हि) खलु=निश्चय से ही, (त्वष्टा) मेघाऽवयवानां मूर्त्तद्रव्याणां च छेत्ता=बादल के अवयवों को छिन्न-भिन्न करके मूर्त रूप होकर जल में लानेवाली, (ज्योतींषि)=प्रकाश के , (शवः) बलम्=बल को, (अभिभूत्योजसम्) अभिगतानि तप ऐश्वर्याण्योजः पराक्रमश्च यस्मात्तम्= तप, ऐश्वर्य, ओज और पराक्रम को प्राप्त हुए, (युज्यम्) योक्तुमर्हम्=जोड़ने योग्य, [वावृधे] वर्धते=बढ़ते हैं। (वज्रम्) प्रकाशसमूहम् =वज्र के प्रकाश समूह से, (प्रहृत्य) =प्रहार करके, (सर्वान्) =सब, (पदार्थान्)= पदार्थों को, (ततक्ष) तक्षति=काट देता है, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (भव)= होओ ॥ ७ ॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) विद्युत् के समान वर्तमान! (ते) तुम्हारे, (वर्धना) सुखों की वृद्धि, (ब्रह्माणि) =बहुत बड़े अन्न, (ऊर्मयः) तरङ्ग आदि (ह्रदम्) जलाशय के (न) समान (न्यृषति) अच्छी तरह से प्राप्त होते हैं। (यथा) जैसे (हि) निश्चय से ही (त्वष्टा) बादल के अवयवों को छिन्न-भिन्न करके मूर्त रूप होकर जल के रूप में लानेवाले (ज्योतींषि) प्रकाश के (शवः) बल से (अभिभूत्योजसम्) तप, ऐश्वर्य, ओज और पराक्रम से प्राप्त हुए, (युज्यम्) जोड़ने योग्य [होते हुए] [वावृधे] बढ़ते हैं। (वज्रम्) वज्र के प्रकाश समूह से (प्रहृत्य) प्रहार करके (सर्वान्) सब (पदार्थान्) पदार्थों को (ततक्ष) काट देता है। (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (भव) होओ ॥ ७ ॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ह्रदम्) जलाशयम् (न) इव (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (न्यृषति) नितराम् प्राप्नुवन्ति (ऊर्मयः) तरङ्गादयः (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि (इन्द्र) विद्युद्वद्वर्त्तमान (तव) (यानि) वक्ष्यमाणानि (वर्धना) सुखानां वर्धनानि (त्वष्टा) मेघाऽवयवानां मूर्त्तद्रव्याणां च छेत्ता (चित्) अपि (ते) तव (युज्यम्) योक्तुमर्हम् (वावृधे) वर्धते (शवः) बलम् (ततक्ष) तक्षति (वज्रम्) प्रकाशसमूहम् (अभिभूत्योजसम्) अभिगतानि तप ऐश्वर्याण्योजः पराक्रमश्च यस्मात्तम् ॥ ७ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! ते वर्द्धना ब्रह्माण्यूर्मयो ह्रदं न न्यृषन्ति यथा हि त्वष्टा ज्योतींषि शवोऽभिभूत्योजसं युज्यं वज्रं प्रहृत्य सर्वान् पदार्थान् ततक्ष तक्षति तथा त्वं भव ॥ ७ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जलं निम्नं स्थानं गत्वा स्थिरं स्वच्छं भवति तथा सद्गुणविनयवन्तं पुरुषं प्राप्य स्थिराः शुद्धिकारका भवन्तीति ॥७॥ महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जल नीचे स्थानों को जाकर स्थिर और स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही उत्तम गुण युक्त और विनयवाले पुरुष को प्राप्त करके स्थिर और शुद्धि करनेवाले हो जाते हैं ॥७॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे जल निम्नस्थानी वाहते व स्थिर आणि स्वच्छ होते. तसेच राजपुरुष उत्तम गुणांनी युक्त विनयी पुरुषामुळे स्थिर व शुद्धिकारक बनतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of power and ruler of the world, just as streams of water reach the sea augmenting it, so do all the wealths of the world and all the songs of divine celebration converge to you, centre as well as circumference of existence, and glorify your sublimity. Tvashta, maker of the forms of existence, designs and creates the thunderbolt of lightning to augment your force of arms to use in battle, and he provides that splendour of valour for you which breaks open the might of Vritra, hoarded wealth of nature, for the joy of humanity.

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    Subject of the mantra

    Then how is that royal man, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)=preset like electricity, (te) =your, (vardhanā)= increase of happiness, (brahmāṇi) =large grains, (ūrmayaḥ) =waves etc., (hradam)=of the reservoir, (na)=like, (nyṛṣati) =get obtained well, (yathā) =like, (hi) =definitely, (tvaṣṭā)=the one who disintegrates the components of the cloud and brings it into physical form in the form of water, (jyotīṃṣi) =of the light, (śavaḥ) =by power, (abhibhūtyojasam)=achieved by penance, wealth, vigor and bravery, (yujyam) = addable, [hote hue]= While happening [vāvṛdhe] =increase, (vajram)=from the light group of thunderbolts, (prahṛtya)=by hitting, (sarvān) =all, (padārthān) =to the substances, (tatakṣa) =shatters, (tathā) =in the same way, (tvam) =you,(bhava) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O present like electricity! The increase of your happiness, huge grains, waves et cetera are received well like a reservoir. Just as by the power of light, which disintegrates the components of the cloud and brings it in the form of water, by the power of light, obtained from penance, opulence, vigour and might, they grow while being able to join. Striking with the light group of thunderbolts shatter all the substances. That's the way you are.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as water becomes stable and clean after going to the lower places, in the same way, after finding a person with good qualities and humility, it becomes stable and purified.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the 7th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As rivulets flow into a lake and increase the volume of its water, in the same way all food materials and wealth glorify thee and increase thy happiness. O President of the Assembly, that art like electricity or the lightning. As the sun increases the strength of a man by the association of his rays, and enables a powerful weapon to be made that can destroy a mighty enemy, thou shouldst be like that.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [ब्रह्मणि] बृहत्तमान्यन्नानि = Good food materials. [ इन्द्र] विद्युद्वद् वर्तमान = Behaving like electricity or lightning. [त्वष्टा] मेघावयवानां छेत्ता = Destroyer of the pieces of the clouds.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the water becomes pure and secure going to a lower level, in the same manner, the workers of the State become firmly established and purifiers of all, having approached a virtuous and humble person.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has translated ब्रह्मणि as अज्ञानि or food materials for which there is the authority of the Vedic Lexicon-Nighantu 2.7 ब्रह्मेति धननाम (निष० २.७ ) It also means wealth. ब्रह्मेति धननाम ( निघ० २.१०)

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