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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    परीं॑ घृ॒णा च॑रति तित्वि॒षे शवो॒ऽपो वृ॒त्वी रज॑सो बु॒ध्नमाश॑यत्। वृ॒त्रस्य॒ यत्प्र॑व॒णे दु॒र्गृभि॑श्वनो निज॒घन्थ॒ हन्वो॑रिन्द्र तन्य॒तुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । ई॒म् । घृ॒णा । च॒र॒ति॒ । ति॒त्वि॒षे । शवः॑ । अ॒पः । वृ॒त्वी । रज॑सः । बु॒ध्नम् । आ । अ॒श॒य॒त् । वृ॒त्रस्य॑ । यत् । प्र॒व॒णे । दुः॒ऽगृभि॑श्वनः । नि॒ऽज॒घन्थ॑ । हन्वोः॑ । इ॒न्द्र॒ । त॒न्य॒तुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परीं घृणा चरति तित्विषे शवोऽपो वृत्वी रजसो बुध्नमाशयत्। वृत्रस्य यत्प्रवणे दुर्गृभिश्वनो निजघन्थ हन्वोरिन्द्र तन्यतुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि। ईम्। घृणा। चरति। तित्विषे। शवः। अपः। वृत्वी। रजसः। बुध्नम्। आ। अशयत्। वृत्रस्य। यत्। प्रवणे। दुःऽगृभिश्वनः। निऽजघन्थ। हन्वोः। इन्द्र। तन्यतुम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किंवत्किं करोतीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यथा तित्विषे यस्येन्द्रस्य सूर्यस्य शवो बलं घृणा दीप्तिरीमुदकं परिचरति यो यस्य दुर्गृभिश्वनो वृत्रस्य मेघस्य बुध्नं शरीरं रजसोऽन्तरिक्षस्य मध्येऽपो वृत्वी जलमावृत्याशयच्छेते तस्य हन्वोरग्रपार्श्वभागयोरुपरि तन्यतुं विद्युतं प्रहृत्य प्रवणे निजघन्थ तथा वर्त्तमानः सन्न्याये प्रवर्त्तस्व ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (परि) सर्वतः (ईम्) उदकम्। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (घृणा) दीप्तिः क्षरणं वा (चरति) सेवते (तित्विषे) प्रकाशाय (शवः) बलम् (अपः) जलानि (वृत्वी) आवृत्य (रजसः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (बुध्नम्) शरीरम्। इदमपीतरबुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति। (निरु०१०.४४) (आ) समन्तात् (अशयत्) शेते (वृत्रस्य) मेघस्य (यम्) यस्य (प्रवणे) गमने (दुर्गृभिश्वनः) दुःखेन गृभिर्गृहिर्ग्रहणं श्वाभिव्याप्तिर्यस्य तस्य। अत्र गृहधातोः इक् कृष्यादिभ्यः (अष्टा०३.३.१०८वा०) इक् हस्य भत्वं च। अशूङ् व्याप्तावित्यस्मात् कनिन् प्रत्ययो वुगागमोऽकारलोपश्च। (निजघन्थ) नितरां हन्ति (हन्वोः) मुखावयवयोरिव (इन्द्र) सवितृवद्वर्त्तमान (तन्यतुम्) विद्युतम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यत्सूर्यमेघवद्वर्त्तित्वा विद्यान्यायवर्षा प्रकाशीकार्येति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष किसके तुल्य क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान सभाध्यक्ष जैसे (तित्विषे) प्रकाश के लिये (यत्) जिस सूर्य का (शवः) बल वा (घृणा) दीप्ति (ईम्) जल को (परिचरति) सेवन करती है, जो (दुर्गृभिश्वनः) दुःख से जिसका ग्रहण हो (वृत्रस्य) मेघ का (बुध्नम्) शरीर (रजसः) अन्तरिक्ष के मध्य में (आपः) जल को (वृत्वी) आवरण करके (अशयत्) सोता है, उसके (हन्वोः) आगे-पीछे के मुख के अवयवों में (तन्यतुम्) बिजली को छोड़कर उसे (प्रवणे) नीचे (निजघन्थ) मार कर गिरा देता है, वैसे वर्त्तमान होकर न्याय में प्रवृत्त हूजिये ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि सूर्य वा मेघ के समान वर्त्त के विद्या और न्याय की वर्षा का प्रकाश करें ॥ ६ ॥

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    विषय

    काम की दुर्ग्रहणीयता

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मन् ! (यत्) = जब तू (वृत्रस्य) = ज्ञान पर पर्दा डालनेवाले काम के (हन्वोः) = जबड़ों पर (तन्यतुम्) = प्रभु - स्मरणपूर्वक, क्रियाशीलतारूप वन को (निजघन्थ) = प्रहत करता है, उस काम के जबड़ों पर जोकि (प्रवणे) = प्रकर्षेण वननीय, उपासना के योग्य स्थल, हदय में (दुर्गृभिश्वनः) = दुर्ग्रहव्याप्तिवाला है । चाहिए तो यह कि हृदयों में प्रभु का ध्यान करें, परन्तु होता यह है कि उस हृदय को यह वासना आ घेरती है और इस वासना का काबू करना कठिन हो जाता है । यह काम वह है जोकि (अपः) = प्रजाओं को (वृत्वी) = आवृत्त ज्ञानवाला करके अथवा [अपः - कर्म] हमारे सब कर्तव्य कर्मों पर पर्दा डालकर, हमें कर्तव्य कर्मों से विमुख करके (रजसो बुध्नम्) = हृदयान्तरिक्ष के मूल में (आशयत्) = निवास करता है । २. इस काम की जड़ बड़ी गहराई तक पहुँच जाती है, इसे उखाड़ना सम्भव नहीं होता ; परन्तु जब भी कभी हम प्रभुस्मरणपूर्वक क्रियाशीलता को अपनाकर इस वासना के जबड़ों को तोड़ देते हैं, अर्थात् इसके वेग को समाप्त कर देते हैं तब (ईम्) = निश्चय से (घृणा) = ज्ञानदीप्ति (परिचरति) = चारों ओर व्याप्त हो जाती है और (शवः) = बल (तित्विषे) = चमक उठता है । काम ने ही ज्ञान पर पर्दा डाला हुआ था, यही हमारी शक्ति की क्षीणता का कारण बन रहा था । इसके नष्ट होते ही ज्ञान चमक उठता है और हम शक्ति से परिपूर्ण हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - काम को जीतना कठिन है, परन्तु जब भी प्रभुस्मरणपूर्वक क्रियाशील बनकर हम इस काम को जीत लेंगे तब हमारा ज्ञान व बल दोनों ही चमक उठेंगे ।

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    विषय

    और उनके कर्तव्यों और सामर्थ्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार मेघ ( अपः वृत्वी ) जलों को अपने भीतर थाम कर (रजसः बुध्नम् ) आकाश के ऊपर के तल में ( आ अशयत् ) फैल जाता है और (दुर्गृभिश्वनः वृत्रस्य) जिसका फैलाव या विस्तार बेरोक हो उस मेघ के ( हन्वोः ) अगले पिछले मुखों या छोरों पर ( इन्द्रः ) वायु (तन्यतुम्) विस्तृत वज्ररूप विद्युत् का ( निर्जघन्थ ) प्रहार करता है । तब ( घृणा परि इम् चरति ) दीप्ति सर्वत्र फैलती है और (शवः) उसका प्रबल बल भी (तित्विषे) चमकता है और प्रकाश के लिए होता है । ठीक उसी प्रकार जब शत्रु राजा भी (अपः वृत्वी) आप्त प्रजाओं को घेरकर ( रजसः ) इस पृथ्वी लोक के ( बुध्नम् आ अशयत् ) बाँधने वाले मुख्य राजधानी पर चारों तरफ से घेरा डालकर बैठ जावे तब (प्रवणे) उत्तम सेना दल के बल पर या प्रयाणकाल में ( दुर्गृभिश्वनः ) जिसके फैलने वाले और कुत्तों के समान टुकड़ों पर जीनेवाले वेतनधारी नौकर, या भेदू लोग भी किसी प्रकार काबू न आ सकें, ऐसे ( वृत्रस्य ) बड़े हुए बलवाले शत्रु के ( हन्वोः ) प्रबल हननकारी प्रमुख सेना के भागों पर ही हे (इन्द्र) राजन् ! तू (तन्यतुम्) विद्युत् के समान गर्जनाकारी अस्त्र का प्रयोग करके (निःजघन्थ ) शत्रु पर प्रहार कर । तब (घृणा) सूर्य की चमक के समान तेरी दीप्ति, तेज भी (परिचरति ) सब तरफ़ फैले । और (शवः) तेरा बल भी (तित्विषे) सूत्र प्रकाशित हो, चमके। अध्याय में—जब अज्ञान का मेघ (अपः वृत्वी) प्राणवृत्तियों या लिंगशरीर को घेरकर (रजसः बुध्नम् आअशयत् ) रजोगुण के मूल या प्राणों के आश्रयरूप चित्त को घेर लेता है तब (दुर्गृभिश्वनः वृत्रस्य) अदम्य बेकाबू इन्द्रियों रूप कुक्कुरों के स्वामी बढ़ते हुए काम के (हन्वोः) भोगसाधन जीभ और कामांग दोनों पर ज्ञानी पुरुष प्रबल आघात करे, उनपर नियन्त्रण करे, तब उसके (घृणा) तेज प्रभा और (शवः) बल बढ़ता और फैलता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष किसके तुल्य क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! यथा तित्विषे यस्य इन्द्रस्य सूर्यस्य शवः बलं घृणा दीप्तिः ईम् उदकं परि चरति यः यस्य दुर्गृभिश्वनः वृत्रस्य मेघस्य बुध्नं [आ] [अशयत्] शरीरं रजसःअन्तरिक्षस्य मध्ये अपः वृत्वी जलम् आवृत्य आशयत् शेते तस्य हन्वोः अग्रपार्श्वभागयोः उपरि तन्यतुं विद्युतं प्रहृत्य प्रवणे निजघन्थ तथा वर्त्तमानः सन् न्याये प्रवर्त्तस्व ॥६॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सवितृवद्वर्त्तमान= सूर्य के समान बढ़ता हुआ! (यथा)=जैसे, (तित्विषे) प्रकाशाय=प्रकाश के लिये, (यस्य)=जिस, (इन्द्रस्य) सूर्यस्य=सूर्य के, (शवः) बलम्=बल का, (घृणा) दीप्तिः क्षरणं वा=या दीप्तिः प्रवाहित होती है, (दीप्तिः)= दीप्ति, (ईम्) उदकम्= जल, (परि) सर्वतः=हर ओर, (चरति) सेवते=सेवन करता है, (यः)=जो, (यस्य)=जिसका, (दुर्गृभिश्वनः) दुःखेन गृभिर्गृहिर्ग्रहणं श्वाभिव्याप्तिर्यस्य तस्य= दुःख से ग्रहण करना, (वृत्रस्य) मेघस्य=बादल के, (बुध्नम्) शरीरम्=शरीर के, (रजसः) अन्तरिक्षस्य मध्ये=अन्तरिक्ष के मध्य, (अपः) जलानि =जलों को, (वृत्वी) आवृत्य=ढक कर, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (शेते)=सोता है, (तस्य)=उसके, (हन्वोः) मुखावयवयोरिव=मुख और अवयवों के समान, (अग्रपार्श्वभागयोः) =आगे और पीछे के भागों के, (उपरि)=ऊपर, (तन्यतुम्) विद्युतम्=विद्युत से, (प्रहृत्य)=मार करके, (प्रवणे) गमने=जाने में, (निजघन्थ) नितरां हन्ति=अच्छी तरह से मारते हैं, (तथा)=वैसे ही, (वर्त्तमानः)= वर्त्तमानः, (सन्)=होते हुए, (न्याये)= न्याये के मार्ग में, (प्रवर्त्तस्व)= प्रवृत्त होओ ॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों में यह योग्यता है कि सूर्य मेघ के समान बढ़ करके विद्या और न्याय की वर्षा का प्रकाश करें ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) सूर्य के समान बढ़ते हुए! (यथा) जैसे (तित्विषे) प्रकाश के लिये, (यस्य) जिस (इन्द्रस्य) सूर्य के (शवः) बल (घृणा) या दीप्तिः प्रवाहित होती है। (दीप्तिः) दीप्ति को (ईम्) जल (परि) हर ओर (चरति) सेवन करता है। (यः) जो, (यस्य) जिसका, (दुर्गृभिश्वनः) दुःख से ग्रहण करना (वृत्रस्य) बादल के (बुध्नम्) शरीर के, (रजसः) अन्तरिक्ष के मध्य (अपः) जलों को (वृत्वी) ढक कर (आ) हर ओर (शेते) सोता है। (तस्य) उसके (हन्वोः) मुख और अवयवों के समान, (अग्रपार्श्वभागयोः) आगे और पीछे के भागों के (उपरि) ऊपर (तन्यतुम्) विद्युत से (प्रहृत्य) ताड़ित करके, (प्रवणे) जाने में (निजघन्थ) अच्छी तरह से ताड़ित करते हैं, (तथा) वैसे ही (वर्त्तमानः) वर्त्तमानः, (सन्) होते हुए (न्याये) न्याय के मार्ग में (प्रवर्त्तस्व) प्रवृत्त होओ ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (परि) सर्वतः (ईम्) उदकम्। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (घृणा) दीप्तिः क्षरणं वा (चरति) सेवते (तित्विषे) प्रकाशाय (शवः) बलम् (अपः) जलानि (वृत्वी) आवृत्य (रजसः) अन्तरिक्षस्य मध्ये (बुध्नम्) शरीरम्। इदमपीतरबुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति। (निरु०१०.४४) (आ) समन्तात् (अशयत्) शेते (वृत्रस्य) मेघस्य (यम्) यस्य (प्रवणे) गमने (दुर्गृभिश्वनः) दुःखेन गृभिर्गृहिर्ग्रहणं श्वाभिव्याप्तिर्यस्य तस्य। अत्र गृहधातोः इक् कृष्यादिभ्यः (अष्टा०३.३.१०८वा०) इक् हस्य भत्वं च। अशूङ् व्याप्तावित्यस्मात् कनिन् प्रत्ययो वुगागमोऽकारलोपश्च। (निजघन्थ) नितरां हन्ति (हन्वोः) मुखावयवयोरिव (इन्द्र) सवितृवद्वर्त्तमान (तन्यतुम्) विद्युतम् ॥ ६ ॥ विषयः- पुनः स किंवत्किं करोतीत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! यथा तित्विषे यस्येन्द्रस्य सूर्यस्य शवो बलं घृणा दीप्तिरीमुदकं परिचरति यो यस्य दुर्गृभिश्वनो वृत्रस्य मेघस्य बुध्नं [आ] [अशयत्] शरीरं रजसोऽन्तरिक्षस्य मध्येऽपो वृत्वी जलमावृत्याशयच्छेते तस्य हन्वोरग्रपार्श्वभागयोरुपरि तन्यतुं विद्युतं प्रहृत्य प्रवणे निजघन्थ तथा वर्त्तमानः सन्न्याये प्रवर्त्तस्व ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामियं योग्यतास्ति यत्सूर्यमेघवद्वर्त्तित्वा विद्यान्यायवर्षा प्रकाशीकार्येति ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सूर्य व मेघाप्रमाणे वागून विद्या व न्यायाचा वर्षाव करावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Vritra, the cloud that holds and confines the vapours of water sleeps in body in the sky. Indra, the sun, strikes the thunderbolt of lightning on the jaws of Vritra, a real formidable adversary for the release of the showers of rain. And then the splendour of Indra spreads around, glory of power blazes.

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    Subject of the mantra

    Then what does that Chairman of the Assembly do like whom, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)=rising like the Sun,(yathā) =like, (titviṣe) =for the light, (yasya) =which, (indrasya) =of the Sun, (śavaḥ) =powers, (ghṛṇā)= or the light flows, (dīptiḥ) =to the brightness, (īm) jala (pari) =to all sides, (carati) =uses, (yaḥ) =who, (yasya) =whose, (durgṛbhiśvanaḥ) =to accept with sorrow, (vṛtrasya) =of the cloud, (budhnam) =of the body, (rajasaḥ) =in space, (apaḥ) =to the waters, (vṛtvī) =covering, (ā) =to all sides, (śete) =sleeps, (tasya) =his, (hanvoḥ)=like mouth and organs, (agrapārśvabhāgayoḥ)=front and back parts, (upari) =above, (tanyatum) =by thundrerbolt, (prahṛtya=by chastising, (pravaṇe) =in going, (nijaghantha)=chastises well, (tathā) =in the same way, (varttamānaḥ) =present, (san) =being, (nyāye)= in the way of justice, (pravarttasva)= get inclined.

    English Translation (K.K.V.)

    O rising like the Sun! Like for light, which flows due to the power or rays of the Sun. Water consumes the lamp everywhere. The one, who is to be accepted with sorrow, sleeps everywhere in the body of the cloud, covering the waters in the middle of space. Just as the front and back parts of his face and body parts are punished with thunderbolts, they are thoroughly punished while leaving, in the same way, being present, move towards the path of justice.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Humans have this ability that rising like a cloud, the sun illuminates the rain of knowledge and justice.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does he (Indra) do and like whom is taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As Indra (the sun) smites down the wide extended cloud that having obstructed the waters, reposes in the region above the firmament and thus its fame as mighty, spreads far, in the same manner, the mighty Indra (President of the Assembly or the Commander of the Army splendid and vigorous like the sun) should smite down a wicked foe lying hidden anywhere on the checks with electric powerful weapons. By so doing, his fame spreads afar and his prowess is renowned.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [घृणा] दीप्तिः = Splendor. [बुध्नम्] शरीरम् इदमपि इतरद् बुध्नम् एतस्मादेव बद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति निरुक्ते १०.४४ = Body. [ इन्द्र] सवितृवद् वर्तमान = Vigorous or mighty like the sun. [तन्यतुम्] विद्युतम् = Electricity or lightning.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of men to behave like the sun (for dispelling the darkness of ignorance) and like the cloud by raining down happiness and peace and manifest the rain of knowledge and justice.

    Translator's Notes

    The Word धृणा is derived from घु-क्षरणदीन्त्योः Here the first meaning of दीप्ति or splendor is taken. For the meaning of Indra as the sun, there are clear authorities from the Brahmanas like the following quoted before. स यः स इन्द्र एष एव यः स एष [ सूर्य: ] एव तपति । [जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे] १.२८.२।१.३२.५ अथयः स इन्द्रः सौ स आदित्यः [शतपथ ८.५.३.२] एष एवेन्द्र य एष सूर्य: तपति [शत० १.६.४.१८] इन्द्रः सूर्य इति सायणाचार्योऽपि ताण्ड्यन्ब्राह्मणस्य १४.२.५ भाष्ये । The word Indra is used for the President of the Assembly of the Commander of the Army as the mightiest on the authority of the passages like. इन्द्रो वै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठ: सहिष्ठ: सत्तमः पारयिष्णुतम: [ एतेरेय ब्राह्मणे ७.१६।८.१२] इन्द्रो वै देवानामोजिष्ठो बलिष्ठ: [कौषीतकी ब्राह्मणे ६.१४ गोपथ उ० १.३] According to the Gopath Brahmana Uttara 2.9 सेना इन्द्रस्य पत्नी i.e. the army is the wife of Indra, therefore Indra is the Commander of the Army or सेनापति:।

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