ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 15
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आर्च॒न्नत्र॑ म॒रुतः॒ सस्मि॑न्ना॒जौ विश्वे॑ दे॒वासो॑ अमद॒न्ननु॑ त्वा। वृ॒त्रस्य॒ यद्भृ॑ष्टि॒मता॑ व॒धेन॒ नि त्वमि॑न्द्र॒ प्रत्या॒नं ज॒घन्थ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआर्च॑न् । अत्र॑ । म॒रुतः॑ । सस्मि॑न् । आ॒जौ । विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒म॒द॒न् । अनु॑ । त्वा॒ । वृ॒त्रस्य॑ । यत् । भृ॒ष्टि॒ऽमता॑ । व॒धेन॑ । नि । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । प्रति॑ । आ॒नम् । ज॒घन्थ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आर्चन्नत्र मरुतः सस्मिन्नाजौ विश्वे देवासो अमदन्ननु त्वा। वृत्रस्य यद्भृष्टिमता वधेन नि त्वमिन्द्र प्रत्यानं जघन्थ ॥
स्वर रहित पद पाठआर्चन्। अत्र। मरुतः। सस्मिन्। आजौ। विश्वे। देवासः। अमदन्। अनु। त्वा। वृत्रस्य। यत्। भृष्टिऽमता। वधेन। नि। त्वम्। इन्द्र। प्रति। आनम्। जघन्थ ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदुपासकाः कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र सभासेनेश यद्यस्त्वं भृष्टिमता वधेन वृत्रस्येव शत्रोरानं जीवनं जघन्थाऽहन् त्वा सस्मिन्नाजौ विश्वे देवासो मरुतो न्यार्चन् सततं सत्कुर्वन्तु, यतस्ते प्रजास्थाः प्राणिनः प्रत्यन्वमदन् प्रत्यक्षममाद्यन् ॥ १५ ॥
पदार्थः
(आर्चन्) अर्चन्तु (अत्र) अस्मिन् जगति (मरुतः) ऋत्विजः। मरुत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८) (सस्मिन्) सर्वस्मिन्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति रेफवकारयोर्लोपः (आजौ) संग्रामे (विश्वे) सर्वे (देवासः) विद्वांसः (अमदन्) हृष्यन्तु (अनु) पुनरर्थे (त्वा) त्वां सभाध्यक्षम् (वृत्रस्य) मेघस्येव शत्रोः (यत्) यः (भृष्टिमता) भृज्जन्ति यया सा भृष्टिः कान्तिरिव नीतिः सा प्रशस्ता विद्यते यस्मिन् तेन (वधेन) हननेन (नि) नित्यम् (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (प्रति) प्रत्यक्षे (आनम्) अनन्ति येन तज्जीवनम् (जघन्थ) अहन् ॥ १५ ॥
भावार्थः
य एकं परमेश्वरमुपास्य विद्यां गृहीत्वा शत्रून् जित्वा विजयं प्राप्य प्रजां नित्यमनुमोदयन्ति, ते विद्वांसः सुखिनो भवन्तीति ॥ १५ ॥ अत्र विद्वद्विद्युदाद्यग्नीश्वराणां गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदतिव्यम् ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ईश्वरोपासक कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त सभा सेना के स्वामी (यत्) जो (त्वम्) आप (भृष्टिमता) प्रशंसनीय नीतिवाले न्यायव्यवहार से युक्त (वधेन) हनन से (वृत्रस्य) अधर्मी मनुष्य के समान (आनम्) प्राण को (जघन्थ) नष्ट करते हो, उन (त्वा) आपको (सस्मिन्) सब (आजौ) संग्राम वा (अत्र) इस आप में श्रद्धा करनेवाले (विश्वे देवासः) सब विद्वान् और (मरुतः) ऋत्विज् लोग (न्यार्चन्) नित्य सत्कार करते हैं, इससे वे प्रजा के प्राणी (प्रत्यन्वमदन्) सबको आनन्दित कर के आप आनन्दित होते हैं ॥ १५ ॥
भावार्थ
जो एक परमेश्वर की उपासना विद्या को ग्रहण और शत्रुओं को ताड़कर प्रजा को निरन्तर आनन्दित करते हैं, वे ही धार्मिक विद्वान् सुखी रहते हैं ॥ १२ ॥ इस सूक्त में विद्वान्, बिजुली आदि अग्नि और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
विषय
संग्राम में प्रभु - अर्चन
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (अत्र) = इस जीवन - यात्रा में (सस्मिन् आजौ) = सम्पूर्ण संग्रामों में (मरुतः) = [मितराविणः] कम बोलनेवाले मुनि (आ अर्चन्) = सर्वथा आपका ही अर्चन करते हैं । वस्तुतः आपकी अर्चना से ही उन्हें शक्ति प्राप्त होती है, जिससे वे संग्रामों में विजयी बनते हैं । २. हे प्रभो ! (विश्वे) = सब (देवासः) = देववृत्ति के लोग (त्वा अनु) = आपकी ही अनुकूलता में (अमदन्) = हर्ष का अनुभव करते हैं । वस्तुतः प्रभु अनुकूल हैं तो सारा संसार ही अनुकूल होता है और परिणामतः आनन्द का अनुभव होता है । ३. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! सब शक्ति के कार्यों को करनेवाले प्रभो ! (यत्) = क्योंकि (भृष्टिमता) = शत्रुओं को भून डालनेवाले (वधेन) = वज्र से (त्वम्) = आप ही (वृत्रस्य आनम्) = [आननम्] वृत्र व कामासुर के मुख को (प्रति आ जघन्थ) = लक्ष्य करके प्रहार करते हैं । वृत्र के विनाशक आप ही हैं और वृत्र के नाश से देवों को आप ही आनन्दित करते हैं । संग्राम में आपके कारण ही देव विजयी बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - संग्राम में प्रभु - कृपा से ही विजय प्राप्त होती है । ये प्रभु ही हमें आनन्दित करते हैं ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि मेरा यह शरीररूप रथ प्रभु की ओर चले [१] । प्रभु का उपासक धारणात्मक कर्मों में पर्वत के समान अविचल होता है [२] । वे प्रभु ही सर्वमहान् रक्षक हैं [३] । हम इस प्रभु के आत्मीय बनने का प्रयत्न करें [४] । असुरों से युद्ध में हमें प्रभु की सहायता सदा प्राप्त रहें [५] । हमारे लिए तो यह कामासुर अत्यन्त दुर्ग्रहणीय है [६] । प्रभुस्तवन से ही काम - संहार सम्भव है [७] । हमारे हाथों में कर्मरूप वज्र हो, मस्तिष्क में ज्ञान का सूर्य [८] । प्रभुस्तवन व प्राणसाधना का हम समन्वय करें [९] । इस प्रकार वासना का विनाश करके ही हम स्वस्थ बुद्धिवाले होंगे [१०] । स्वस्थ बुद्धि होने पर ही हमारा यह शरीर दसों इन्द्रियों से उचित भोजनों के द्वारा सुरक्षित होगा [११] तथा हम रजोगुण से पार होकर सत्त्व में अवस्थित होंगे [१२], उस अनन्यसदृश प्रभु का स्तवन करेंगे [१३], प्रभु की अनुकूलता में चलेंगे [१४] और प्रभु की अर्चना से संग्राम में अवश्य विजयी होंगे [१५] । प्रभु - प्रार्थना करते हुए 'सव्य आङ्गिरस' ऋषि कहते हैं कि -
विषय
वृष्टि विज्ञान ।
भावार्थ
हे (इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! ( सस्मिन् ) उस ( आजौ ) परम प्राप्तव्य, परम पद के निमित्त ( अत्र ) इस लोक में ( मरुतः ) विद्वान् जन (त्वा आर्चन्) तेरी स्तुति करते हैं। (विश्वे देवासः) समस्त देव जन, विद्वान् गण ( त्वा अनु अमदन्) तेरे ही आश्रय में रह कर खूब हृष्ट और प्रसन्न रहते हैं । यत् क्योंकि तू ( भृष्टिमता ) पापों को भून डालने वाले ( वधेन ) अज्ञाननाशक प्रकाश से ( वृत्रस्य ) शत्रु के बाधक बल के (आनं नि प्रति जघन्थ) जीवन या प्रमुख भाग को ही नाश कर देता है। सेनापति के पक्ष में—( मरुतः ) वेगवान्, तीव्र बलवान्, शत्रुमारक वीर पुरुष और प्रजास्थ विद्वान् जन ( अत्र अस्मिन् आजौ ) इस और सभी युद्धों में (आर्चन् ) तेरा आदर सत्कार करें । और समस्त विद्वान् तेरी प्रसन्नता में प्रसन्न रहें ( भृष्टिमता वधेन ) शत्रुओं को भून देने वाली, तेजस्वी नीति और शक्ति से युक्त वध आदि दण्डों और शस्त्रास्त्रों से तू शत्रु के( आनं प्रति आजघन्थ ) जीवन, प्राण तक को नष्ट कर । इति चतुर्दशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर ईश्वर के उपासक कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र सभासेनेश यत् यः त्वं भृष्टिमता वधेन वृत्रस्य इव शत्रोः आनं जीवनं जघन्थ अहन् त्वा सस्मिन् आजौ विश्वे देवासः{अत्र} मरुतः नि आर्चन् सततं सत् कुर्वन्तु, यतः ते प्रजास्थाः प्राणिनः प्रति अनु अमदन् प्रत्यक्षम् अमाद्यन् ॥१५॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन्=परम ऐश्वर्यवान्, (सभासेनेश)= सभा और सेना के पति, (यत्) यः= जो, (त्वम्)=तुम, (भृष्टिमता) भृज्जन्ति यया सा भृष्टिः कान्तिरिव नीतिः सा प्रशस्ता विद्यते यस्मिन् तेन=परिपक्व प्रकाश के समान नीतिवाले, (वधेन) हननेन=मारने से, (वृत्रस्य) मेघस्येव शत्रोः=बादल के समान शत्रु को, (आनम्)[अन- प्राणे+णिच् आनयति=जिलाना] अनन्ति येन तज्जीवनम्=जीवित रखनेवाले, (जघन्थ) अहन्=न मारे, (त्वा) त्वां सभाध्यक्षम्=तुम सभाध्यक्ष को, (सस्मिन्) सर्वस्मिन्=सम्पूर्ण, (आजौ) संग्रामे= संग्राम में, (विश्वे) सर्वे=समस्त, (देवासः) विद्वांसः= विद्वान्,{अत्र} अस्मिन् जगति=इस संसार में, (मरुतः) ऋत्विजः= ऋत्विज, (नि) नित्यम्= नित्य, (आर्चन्) अर्चन्तु= अर्चना करें, (सततम्)= नित्य, (सत्कुर्वन्तु)=सत्कार करें। (यत्) यः=जो, (ते) =वे, (प्रजास्थाः)= प्रजा में स्थित, (प्राणिनः)= प्राणी, (प्रति) प्रत्यक्षे= प्रत्यक्ष में, (अनु) पुनरर्थे =वार वार, (अमदन्) हृष्यन्तु[हृष तुष्टौ-प्रसन्न होना]= प्रसन्न होवें॥१५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो एक परमेश्वर की उपासना करके, विद्या को ग्रहण करके और शत्रुओं को जीत करके, विजय प्राप्त करके नित्य आनन्दित होते हैं, वे विद्वान् सुखी रहते हैं ॥१२॥
विशेष
महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में विद्वान्, बिजली आदि अग्नि और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥१५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवान्, (सभासेनेश) सभा और सेना के पति! (यत्) जो (त्वम्) तुम, (भृष्टिमता) परिपक्व प्रकाश के समान नीतिवाले, (वधेन) मारने से (वृत्रस्य) बादल के समान शत्रु को (आनम्) जीवित रखनेवाले और (जघन्थ) न मारनेवाले, (त्वा) तुम सभाध्यक्ष को (सस्मिन्) सम्पूर्ण (आजौ) संग्राम में (विश्वे) समस्त (देवासः) विद्वान् {अत्र} इस संसार में, (मरुतः) ऋत्विज (नि) नित्य (आर्चन्) अर्चना करें (सततम्) नित्य (सत्कुर्वन्तु) सत्कार करें। (यत्) जो (ते) वे (प्रजास्थाः) प्रजा में स्थित (प्राणिनः) प्राणी (प्रति) प्रत्यक्ष में हैं, (अनु) वार-वार (अमदन्) प्रसन्न होवें॥१५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आर्चन्) अर्चन्तु (अत्र) अस्मिन् जगति (मरुतः) ऋत्विजः। मरुत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८) (सस्मिन्) सर्वस्मिन्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति रेफवकारयोर्लोपः (आजौ) संग्रामे (विश्वे) सर्वे (देवासः) विद्वांसः (अमदन्) हृष्यन्तु (अनु) पुनरर्थे (त्वा) त्वां सभाध्यक्षम् (वृत्रस्य) मेघस्येव शत्रोः (यत्) यः (भृष्टिमता) भृज्जन्ति यया सा भृष्टिः कान्तिरिव नीतिः सा प्रशस्ता विद्यते यस्मिन् तेन (वधेन) हननेन (नि) नित्यम् (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (प्रति) प्रत्यक्षे (आनम्) अनन्ति येन तज्जीवनम् (जघन्थ) अहन् ॥ १५ ॥ विषयः- पुनस्तदुपासकाः कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र सभासेनेश यद्यस्त्वं भृष्टिमता वधेन वृत्रस्येव शत्रोरानं जीवनं जघन्थाऽहन् त्वा सस्मिन्नाजौ विश्वे देवासो मरुतो न्यार्चन् सततं सत्कुर्वन्तु, यतस्ते प्रजास्थाः प्राणिनः प्रत्यन्वमदन् प्रत्यक्षममाद्यन् ॥१५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- य एकं परमेश्वरमुपास्य विद्यां गृहीत्वा शत्रून् जित्वा विजयं प्राप्य प्रजां नित्यमनुमोदयन्ति, ते विद्वांसः सुखिनो भवन्तीति ॥१५॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र विद्वद्विद्युदाद्यग्नीश्वराणां गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदतिव्यम् ॥१५॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे एका परमेश्वराची उपासना करतात व विद्येचे ग्रहण करतात, शत्रूंवर विजय प्राप्त करतात आणि प्रजेला सतत आनंदी ठेवतात तेच धार्मिक विद्वान सुखी होतात. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of universal power, when you strike on the jaws of Vritra with the fatal thunderbolt of dazzling force in all the battles against darkness and drought, then the Maruts, high-priests of nature and humanity, sing hymns of praise for you, and all the divinities of nature and humanity rejoice with you.
Subject of the mantra
Then, how to be a worshiper of God, This has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra) =most opulent, (sabhāseneśa)=lord of the assembly and the army, (yat) =that, (tvam) =you, (bhṛṣṭimatā) = Those with morals like mature light, (vadhena) =by killing, (vṛtrasya)= to the enemy like a cloud, (ānam)=one who keeps alive and, (jaghantha)=non-killer, (tvā) =to you Chairman of the Assembly, (sasmin) =in the whole, (ājau) =in the battle, (viśve) =all, (devāsaḥ) =scholars, {atra} =in this world, (marutaḥ)=ṛtvija, (ni) =daily, (ārcan)= offer prayers, (satatam) =daily, (satkurvantu)=show hospitality, (yat) =that, (te) =they, (prajāsthāḥ) =present in people, (prāṇinaḥ) =living beings, (prati) =are discernible, (anu) =again and again, (amadan) =must be happy.
English Translation (K.K.V.)
O most opulent one, Lord of the Assembly and the army! You who are like the mature light and who keep the enemy alive like a cloud by killing and who does not kill, you who are the President of the Assembly in the entire battle, all the scholars in this world, ṛtvija, should worship him daily and pay respect daily. Those living beings present in the people are discernible, may they be pleased again and again.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those scholars who always rejoice in worshiping the One God, acquiring knowledge, conquering enemies and achieving victory, remain happy. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- There is the description of the qualities of scholar, lightning etc., fire and God in this hymn, one should know the consistency of this hymn with the previous hymn.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the devotees of Indra (God) is taught further in the fifteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (The President of the Assembly or Commander of the Army) when thou strikest off or destroyest the life of thy foe like a cloud with powerful weapon in all battles following a glorious right policy, all learned priests and others honor thee, for all thy subjects are highly delighted on thy victory over thy wicked adversaries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[मरुतः] ऋत्विज: मरुत इति ऋऋत्विङ्नाम [ निघ० ३.१८ ] = Priests. (भृष्टिमता) भृज्जन्ति यया सा भृष्टिः कान्तिरिव नीतिः सा प्रशस्ता विद्यते यस्मिन् तेन = With a glorious right policy. (आनम्) अनन्ति येन तत् जीवनम् = Life.( अन-प्राणधारणे = To breathe). In this hymn also the attributes of the learned fire, electricity and God are described, so it has connection with the previous hymn. Here ends the commentary on the fifty second hymn of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those learned persons ever enjoy happiness who worship one God only, and having acquired knowledge and conquered their enemies, gladden their subjects.
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