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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ यं पृ॒णन्ति॑ दि॒वि सद्म॑बर्हिषः समु॒द्रं न सु॒भ्वः१॒॑ स्वा अ॒भिष्ट॑यः। तं वृ॑त्र॒हत्ये॒ अनु॑ तस्थुरू॒तयः॒ शुष्मा॒ इन्द्र॑मवा॒ता अह्रु॑तप्सवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यम् । पृ॒णन्ति॑ । दि॒वि । सद्म॑ऽबर्हिषः । स॒मु॒द्रम् । न । सु॒ऽभ्वः॑ । स्वाः । अ॒भिष्ट॑यः । तम् । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । अनु॑ । त॒स्थुः॒ । ऊ॒तयः॑ । शुष्माः॑ । इन्द्र॑म् । अ॒वा॒ताः । अह्रु॑तऽप्सवः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यं पृणन्ति दिवि सद्मबर्हिषः समुद्रं न सुभ्वः१ स्वा अभिष्टयः। तं वृत्रहत्ये अनु तस्थुरूतयः शुष्मा इन्द्रमवाता अह्रुतप्सवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यम्। पृणन्ति। दिवि। सद्मऽबर्हिषः। समुद्रम्। न। सुऽभ्वः। स्वाः। अभिष्टयः। तम्। वृत्रऽहत्ये। अनु। तस्थुः। ऊतयः। शुष्माः। इन्द्रम्। अवाताः। अह्रुतऽप्सवः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    सद्मबर्हिषो मनुष्या अवाता नद्यः सुभ्वो समुद्रं न यमिन्द्रं वृत्रहत्ये स्वा अभिष्टयः शुष्मा अह्रुतप्सव ऊतयः प्रजा आपृणन्ति तमनुतस्थुरनुतिष्ठेयुः स एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (यम्) सभाध्यक्षम् (पृणन्ति) सुखयेयुः (दिवि) न्यायप्रकाशे (सद्मबर्हिषः) सद्मस्थानं बर्हिरुत्तमं यासां ताः (समुद्रम्) सागरम् (न) इव (सुभ्वः) याः सुष्ठु भवन्ति ताः (स्वाः) स्वकीयाः (अभिष्टयः) इष्टेच्छाः (तम्) पूर्वोक्तम् (वृत्रहत्ये) वृत्राणां मेघाऽवयवानां हत्या हननमिव यस्मिँस्तस्मिन् संग्रामे (अनु) आनुपूर्व्ये (तस्थुः) वर्त्तन्ते (ऊतयः) रक्षणाद्याः (शुष्माः) बलवत्यः शोषणकारिण्यो वा (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यहेतुं सूर्य्यम् (अवाताः) अविद्यमानो वायुः कम्पनं यासां तां (अह्रुतप्सवः) अह्रुतं कुटिलं सूर्य्यरूपं यासां ताः। अत्र ह्रु ह्वरेश्छन्दसि। (अष्टा०७.२.३१) अनेन ह्रुरादेशः। प्स्विति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सरितः समुद्रं जलमयमन्तरिक्षं वा प्राप्य स्थिरा भवन्ति, तथैव ससभं विद्वांसं प्राप्य सर्वाः प्रजाः स्थिरसुखा जायन्ते ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    (सद्मबर्हिषः) उत्तम स्थान आसनयुक्त (सुभ्वः) उत्तम होनेवाले मनुष्य (अवाताः) वायु के चलाने से रहित नदियाँ (समुद्रं न) जैसे सागर वा आकाश को प्राप्त होकर स्थित होती हैं, वैसे जिस (इन्द्रम्) सभासदों सहित सभापति को (वृत्रहत्ये) जिनमें मेघावयवों के हनन तुल्य हनन होता, उस संग्राम में (स्वाः) अपने (अभिष्टयः) शुभेच्छायुक्त (शुष्माः) बलसहित (अह्रुतप्सवः) कुटिलतारहित सूर्यरूप (ऊतयः) सुरिक्षत प्रजा (आ पृणन्ति) सुखी करें (तम्) उस परमैश्वर्यकारक वीरपुरुष के (अनुतस्थुः) अनुकूल स्थिर होवें, वही चक्रवर्त्ती राज्य करने को योग्य होता है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे नदी समुद्र वा अन्तरिक्ष को प्राप्त होकर स्थिर होती है, वैसे ही सभासदों के सहित विद्वान् को प्राप्त होकर सब प्रजा स्थिर सुखवाली होती हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    समुद्र के नदियों के समान प्रभु में

    पदार्थ

    १. (यम्) = जिस प्रभु को (दिवि) = प्रकाश होनेपर (सद्मबर्हिषः) = [सद्यिनि बर्हिः यज्ञो येषाम्] घरों में सदा यज्ञ करनेवाले ज्ञानी पुरुष उसी प्रकार (आपृणन्ति) = अपने से पूरित करते हैं (न) = जैसे (सुभ्वः) = [शोभना भूः याभिः] नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र को । ज्ञानी व यज्ञशील व्यक्ति उसी प्रकार प्रभु को प्राप्त होता है जैसे नदियों समुद्र में । यह ज्ञानी व यज्ञशील पुरुष (स्वाः) = प्रभु के आत्मीय हो जाते हैं - 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतः' । (अभिष्टयः) = ये सदा प्रभु की ओर आभिमुख्येन जानेवाले होते हैं । इनका लक्ष्य प्रभुप्राप्ति ही होता है । २. (तं इन्द्रम्) = उस प्रभु को (वृत्रहत्ये) = वासना का विनाश होने पर ही (अनुतस्थुः) = लक्ष्य करके स्थित होते हैं । कौन ? [क] (ऊतयः) = अपना रक्षण करनेवाले, रोगादि से अपने को आक्रन्त न होने देनेवाले, [ख] (शुष्माः) = शत्रुओं के शोषक बल से युक्त, [ग] (अवाताः) = प्राणापान की गति को रोककर प्राणायाम में लगे हुए [अ - वात], [घ] (अह्रुतप्सवः) = अकुटिलरूप जिनके विचारों में किसी प्रकार की कुटिलता व छल - छिद्र नहीं है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ज्ञानी व यज्ञशील बनकर प्रभु को प्राप्त करें । शरीरों को रोगों से बचाते हुए, प्राणमयकोश को सबल बनाते हुए, मनोमय कोश को प्राणायाम द्वारा निरुद्ध चित्तवृत्ति करके, निश्चल सत्यज्ञानवाले हम प्रभु के आत्मीय बन जाएँ ।

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    विषय

    वर्षते हुए मेघ से सेनापति राजा और परमेश्वर की तुलना ।

    भावार्थ

    (सुम्वः) उत्तम वेग और बल से बहने वाली नदियां जिस प्रकार (समुद्रम्) समुद्र को (आपृणन्ति) सब तरफ से पूर्ण करती हैं उसी प्रकार (यम्) जिस पुरुष को (अभिष्टयः) सब प्रकार की कामना वाली पूर्ण (स्वाः) अपनी ही प्रजाएं और (सद्मबर्हिषः) राजसभा भवन में उत्तम आसन पर विराजने वाले विद्वान् पुरुष ( आपृणन्ति ) सब प्रकार से पूर्ण करते हैं (उतयः) रक्षाकारी, (शुष्मा ) बलवान्, (अवाताः) प्रतिकूल शत्रुओं से रहित, (अहुतप्सवः) कुटिलता रहित आजीविका या वृत्ति वाले वीर पुरुष (वृत्रहत्ये) विघ्नकारी शत्रु के विनाश के कार्य में (इन्द्रम्) सेनापति, सभाध्यक्ष के ही ( अनु तस्थुः ) पीछे २ हो जावे । उसके अनुयायी और अनुगामी होकर रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभापति कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सद्मबर्हिषः मनुष्या अवाता नद्यः सुभ्वः समुद्रं न यम् इन्द्रं वृत्रहत्ये स्वा अभिष्टयः शुष्मा अह्रुतप्सवः ऊतयः प्रजा आ पृणन्ति तम् अनु तस्थुः अनुतिष्ठेयुः स एव साम्राज्यं कर्त्तुम् अर्हति॥४॥

    पदार्थ

    [दिवि] न्यायप्रकाशे= न्याय के प्रकाश में, (सद्मबर्हिषः) सद्मस्थानं बर्हिरुत्तमं यासां ताः=गृह में उत्तम आसन के स्थानवाले, (मनुष्या)=मनुष्य, (अवाताः) अविद्यमानो वायुः कम्पनं यासां ताम्=वायु के कम्पन रहित, (नद्यः)= नदियां, (सुभ्वः) याः सुष्ठु भवन्ति ताः=बहुत उत्तम होती हैं, (समुद्रम्) सागरम् =सागर के, (न) इव=समान, (यम्) सभाध्यक्षम् =जो सभाध्यक्ष है, (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यहेतुं सूर्य्यम् = परम ऐश्वर्य्यके लिये सूर्य के, (वृत्रहत्ये) वृत्राणां मेघाऽवयवानां हत्या हननमिव यस्मिँस्तस्मिन् संग्रामे =बादलों के अवयवों की हत्या के समान जिस संग्राम में, (स्वाः) स्वकीयाः =अपनी, (अभिष्टयः) इष्टेच्छाः= प्रिय इच्छा से, (शुष्माः) बलवत्यः शोषणकारिण्यो वा=बलवती और शोषण करनेवाली, (अह्रुतप्सवः) अह्रुतं कुटिलं सूर्य्यरूपं यासां ताः=कुटिलता रहित सूर्य के रूपवाले, (ऊतयः) रक्षणाद्याः=रक्षण आदि से, (प्रजा)= प्रजा, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (पृणन्ति) सुखयेयुः=सुखी होवे, (तम्) पूर्वोक्तम्=उस पहले कहे गये [गृह में], (अनु) आनुपूर्व्ये= उचित क्रम में, (तस्थुः) वर्त्तन्ते=निवास करते हैं (अनुतिष्ठेयुः)= उचित क्रम में निवास करें । (सः)=वह, (एव)=ही, (साम्राज्यम्)= शासन, (कर्त्तुम्)=करने के, (अर्हति)=योग्य होता है ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे नदी समुद्र या जलमय अन्तरिक्ष में पहुँच कर स्थिर हो जाती है, वैसे ही सभा के सहित विद्वान् को प्राप्त करके सब प्रजा स्थिर सुखवाली होती हैं॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    [दिवि] न्याय के प्रकाश में, (सद्मबर्हिषः) गृह में उत्तम आसन के स्थानवाले (मनुष्या) मनुष्य [ऐसे होते हैं] (अवाताः) [जैसे] वायु के कम्पन से रहित (नद्यः) नदियां (सुभ्वः) बहुत उत्तम होती हैं। (समुद्रम्) सागर के (न) समान (यम्) जो सभाध्यक्ष है, वह (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य के लिये सूर्य के द्वारा (वृत्रहत्ये) बादलों के अवयवों की हत्या के समान, जिस संग्राम में (स्वाः) अपनी (अभिष्टयः) प्रिय इच्छा से (शुष्माः) बलवती और शोषण करनेवाली (अह्रुतप्सवः) कुटिलता रहित सूर्य के रूपवाले, (ऊतयः) रक्षण आदि से (प्रजा) प्रजा (आ) हर ओर से (पृणन्ति) सुखी होवे। (तम्) उस पहले कहे गये [गृह में] (अनु) उचित क्रम में (तस्थुः) निवास करते हैं। (सः) वह [सभाध्यक्ष] (एव) ही (साम्राज्यम्) शासन (कर्त्तुम्) करने के (अर्हति) योग्य होता है ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (यम्) सभाध्यक्षम् (पृणन्ति) सुखयेयुः (दिवि) न्यायप्रकाशे (सद्मबर्हिषः) सद्मस्थानं बर्हिरुत्तमं यासां ताः (समुद्रम्) सागरम् (न) इव (सुभ्वः) याः सुष्ठु भवन्ति ताः (स्वाः) स्वकीयाः (अभिष्टयः) इष्टेच्छाः (तम्) पूर्वोक्तम् (वृत्रहत्ये) वृत्राणां मेघाऽवयवानां हत्या हननमिव यस्मिँस्तस्मिन् संग्रामे (अनु) आनुपूर्व्ये (तस्थुः) वर्त्तन्ते (ऊतयः) रक्षणाद्याः (शुष्माः) बलवत्यः शोषणकारिण्यो वा (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यहेतुं सूर्य्यम् (अवाताः) अविद्यमानो वायुः कम्पनं यासां तां (अह्रुतप्सवः) अह्रुतं कुटिलं सूर्य्यरूपं यासां ताः। अत्र ह्रु ह्वरेश्छन्दसि। (अष्टा०७.२.३१) अनेन ह्रुरादेशः। प्स्विति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) ॥४॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- सद्मबर्हिषो मनुष्या अवाताः नद्यः सुभ्वः समुद्रं न यम् इन्द्रं वृत्रहत्ये स्वा अभिष्टयः शुष्मा अह्रुतप्सव ऊतयः प्रजा आपृणन्ति तमनुतस्थुरनुतिष्ठेयुः स एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥ ४ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा सरितः समुद्रं जलमयमन्तरिक्षं वा प्राप्य स्थिरा भवन्ति, तथैव ससभं विद्वांसं प्राप्य सर्वाः प्रजाः स्थिरसुखा जायन्ते॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी नदी, समुद्र व अंतरिक्ष प्राप्त करून स्थिर होते तसेच सभासदासह सर्व विद्वानाबरोबर सर्व प्रजा स्थिर सुख प्राप्त करते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra is in his heaven of light and justice. The high-priests sitting on seats of grass in his house of yajna, his own values, his own well-wishers, his own people assist, complete and promote him, Indra who is the ruler, guide and protector, in the same manner in which the lovely streams and mighty rivers join and fill the sea. In his battles against Vritra, clouds of darkness, hoarders of national wealth and natural resources, his fighting forces of defence, powerful, undisturbed and unopposed, straight and sincere in action stand by him and follow him steadfast in the battle.

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    Subject of the mantra

    Then how is that Chairman, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    [divi]=In the light of justice, (sadmabarhiṣaḥ)= having the best seat in the house, (manuṣyā) =human, [aise hote haiṃ]= are like this, [jaise]=as, (avātāḥ)= free from air vibration, (nadyaḥ) =rivers, (subhvaḥ) =are very good, (samudram) =of ocean, (na) =like, (yam) =that, is the Chairman, that, (indram) =for ultimate opulence, through the Sun, (vṛtrahatye)=like the slaying of the elements of the clouds, in which battle, (svāḥ) =own, (abhiṣṭayaḥ) =dearly wish, (śuṣmāḥ)= strong and exploitative, (ahrutapsavaḥ) kuṭilatā rahita sūrya ke rūpavāle, (ūtayaḥ) =with protection etc., (prajā) =subject, (ā) =from all sides, (pṛṇanti) =be happy, (tam) =that said earlier, [gṛha meṃ]=in the house, (anu)= in proper order, (tasthuḥ) =live, (saḥ) =that, [sabhādhyakṣa] =Chairman, (eva) =only, (sāmrājyam) =rule, (karttum) =of doing, (arhati) = becomes eligible.

    English Translation (K.K.V.)

    In the light of justice, the people having the best seat in the house are like the rivers without the vibration of the wind are very good. The one who is the Chairman of the Assembly is like the ocean, is like the Sun killing the components of the clouds for the sake of supreme opulence, in the battle in which the people are happy from all sides due to his protection, in the form of the Sun, who is strong due to his own love and is free from exploitative crookedness. Let's reside in the proper order in that previously mentioned house. Only that Chairman is capable of ruling.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as figurative in this mantra. Just as a river becomes stable after reaching the ocean or the watery space, in the same way all the subjects along with the Assembly attain stable happiness after attaining a learned person.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That man alone deserves to rule over a vast Government whom the subjects whose noble desires are fulfilled support in the light of justice and fill up with their tributes as the kindred rivers hasten up to fill the ocean, who has also the support of the officers, occupying high positions in the State. Mighty persons who are protectors, not overcome by their enemies and not crooked, should follow the President of the Assembly or the Commander of the Army to destroy the wicked foes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दिवि ) न्यायप्रकाशे = In the light of justices. ( सद्मबर्हिषः) सद्मस्थानं बहितमं येषां ते । = Occupying high positions,

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As rivers become established by reaching the ocean or the firmament, all subjects become established in happiness by approaching the learned President with his assembly.

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