ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
स पर्व॑तो॒ न ध॒रुणे॒ष्वच्यु॑तः स॒हस्र॑मूति॒स्तवि॑षीषु वावृधे। इन्द्रो॒ यद्वृ॒त्रमव॑धीन्नदी॒वृत॑मु॒ब्जन्नर्णां॑सि॒ जर्हृ॑षाणो॒ अन्ध॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठसः । पर्व॑तः । न । ध॒रुणे॑षु । अच्यु॑तः । स॒हस्र॑म्ऽऊतिः॑ । तवि॑षीषु । व॒वृ॒धे॒ । इन्द्रः॑ । यत् । वृ॒त्रम् । अव॑धीत् । न॒दी॒ऽवृत॑म् । उ॒ब्जन् । अर्णां॑सि । जर्हृ॑षाणः । अन्ध॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
स पर्वतो न धरुणेष्वच्युतः सहस्रमूतिस्तविषीषु वावृधे। इन्द्रो यद्वृत्रमवधीन्नदीवृतमुब्जन्नर्णांसि जर्हृषाणो अन्धसा ॥
स्वर रहित पद पाठसः। पर्वतः। न। धरुणेषु। अच्युतः। सहस्रम्ऽऊतिः। तविषीषु। ववृधे। इन्द्रः। यत्। वृत्रम्। अवधीत्। नदीऽवृतम्। उब्जन्। अर्णांसि। जर्हृषाणः। अन्धसा ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे राजप्रजाजन ! यथा धरुणेष्वच्युतोऽर्णांस्युब्जन्निन्द्रो नदीवृतं वृत्रमवधीत्, स च पर्वतो नेव वावृधे पुनः पुनर्वर्धते, यद्यस्त्वं शत्रून् हिन्धि सहस्रमूतिस्तविषीषु जर्हृषाणः सन्नन्धसा वर्द्धस्व ॥ २ ॥
पदार्थः
(सः) पूर्वोक्तः (पर्वतः) मेघः (न) इव (धरुणेषु) धारकेषु वाय्वादिषु (अच्युतः) अक्षयः (सहस्रमूतिः) सहस्रमूतयो रक्षणादीनि यस्मात्सः। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति विभक्त्यलोपः। (तविषीषु) बलयुक्तेषु सैन्येषु (वावृधे) अतिशयेन वर्द्धते (इन्द्रः) सूर्यः (यत्) यः (वृत्रम्) मेघम् (अवधीत्) हन्ति (नदीवृतम्) नदीभिर्वृतो युक्तो नदीर्वर्त्तयति वा तम् (उब्जन्) आर्जवं कुर्वन्। अधो निपातयन् वा (अर्णांसि) जलानि। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (जर्हृषाणः) पुनः पुनर्हर्षं प्रापयन् (अन्धसा) अन्नादिना ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो मनुष्यः सूर्यवत्सेनादिधारणं कृत्वा मेघवदन्नादिसामग्र्या सह वर्त्तमानो बलानि वर्धयति, स गिरिवत्स्थिरसुखः सन् शत्रून् हत्वा राज्यं वर्द्धयितुं शक्नोति ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे राजप्रजाजन ! जैसे (धरुणेषु) धारकों में (अच्युतः) सत्य सामर्थ्य युक्त (अर्णांसि) जलों को (उब्जन्) बल पकड़ता हुआ (इन्द्रः) सविता (नदीवृतम्) नदियों से युक्त वा नदियों को वर्त्तानेवाले (वृत्रम्) मेघ को (अवधीत्) मारता है (सः) वह (पर्वतः) पर्वत के (न) समान (ववृधे) बढ़ता है, वैसे (यत्) जो तू शत्रुओं को मार (सहस्रमूतिः) असंख्यात रक्षा करनेहारे (तविषीषु) बलों में (जर्हृषाणः) बार-बार हर्ष को प्राप्त करता हुआ (अन्धसा) अन्नादि के साथ वर्त्तमान बार-बार बढ़ाता रह ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सेना आदि को धारण कर और मेघ के तुल्य अन्नादि सामग्री के साथ वर्त्तमान हो के बलों को बढ़ाता है, वह पर्वत के समान स्थिर सुखी हो शत्रुओं को मार कर राज्य के बढ़ाने में समर्थ होता है ॥ २ ॥
विषय
पर्वत के समान अचल
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब हम अपने शरीररूप रथ को प्रभु की ओर मोड़ते हैं तब (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (यत्) = चूंकि [क] (अर्णांसि) जलों को, रेतः कणों के रूप में शरीरस्थ जलों को (उब्जन्) = [keep under check] संयम में रखता है । [ख] (अन्धसा) = इस सुरक्षित सोम [रेतः कण] से (जर्हृषाणः) = अत्यन्त आनन्द का अनुभव करता है और [ग] (नदीवृतम्) = [नन्दनं नदी - praise] प्रभुस्तवन पर पर्दा डाल देनेवाले (वृत्रम्) = ज्ञान के आवरणभूत काम को (अवधीत्) = नष्ट करता है । २. (सः) = वह इन्द्र (पर्वतः न) = पर्वत के समान (धरुणेषु अच्युतः) = धारणात्मक कर्मों में स्थिर होता है । यह उत्तम कर्मों के मार्ग पर दृढ़ता से चलता है । (सहस्त्रम् , ऊतिः) हजारों प्रकार से अपना रक्षण करनेवाला होता है और (तवीषीषु) = बल में (वावृधे) = बढ़ता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम वासनाओं को जीतें, सोम का रक्षण करें । सोमरक्षण से जीवन में आनन्द का अनुभव करें । धारणात्मक कर्मों में स्थिर हों । सब प्रकार से अपना रक्षण करते हुए शक्तियों को बढ़ाएँ ।
विषय
वर्षते हुए मेघ से सेनापति राजा और परमेश्वर की तुलना ।
भावार्थ
( इन्द्र) ऐश्वर्य या सामर्थ्यवान् सूर्य या विद्युत, या वायु (यत्) जब (वृत्रम्) समस्त आकाश को घेरने वाले, (नदीवृतम्) अति वेग से बहने वाली नदियों के बहाने वाले मेघ को आघात करता है तब वह (अर्णांसि ) जलों को ( उब्जन् ) नीचे फेंकता हुआ (अन्धसा) प्रचुर अन्न सामग्री से (जर्हृषाणः) जगत् भर को हर्षित करता है। (सः) यह विद्युत् या सूर्य भी (धरुणेषु) मेघ के धारक जलों या वायुओं में ही (अच्युतः) रह कर, नीचे न गिर कर (सहस्रमूतिः) सहस्रों दीप्तियों से युक्त होकर ( तविषीषु ) बड़ी बलवती शक्तियों के रूप में ( वावृधे ) बढ़ता है। ठीक उसी प्रकार (इन्द्रः) शत्रुघाती ऐश्वर्यवान् बलवान् राजा जो ( नदीवृतम् ) नदियों से घिरे या समृद्धियों से भरे पूरे (वृत्रम) नगर को घेरने वाले शत्रु को (अवधीत्) मार लेता है वह ( अर्णांसि ) जलों के समान ऐश्वर्यों को या समस्त जनों को (उब्जन्) नमाता हुआ, गिराना वा दबाता हुआ, (अन्धसा) ऐश्वर्य और अन्नादि भोगयोग्य पदार्थों से (जर्हृषाणः) सब को हर्षित करता हुआ (पर्वतः न ) पर्वत के समान अचल और नाना पालक सामर्थ्यों से युक्त होकर (सः) वह (धरुणेषु ) राष्ट्र के धारण करने वाले नाना मुख्य पुरुषों के बीच में (अच्युतः) कभी भी कर्तव्यच्युत पराजित न होकर, एवं स्वतः ( अच्युतः ) पूर्ण अस्खलित, बल वीर्य वाला, ब्रह्मचारी रहकर (सहस्रमूतिः) सहस्रों ज्ञानों और रक्षाकारी साधन सेना आदि बलों और तेज प्रभावों से सम्पन्न होकर (तविषीषु) सेनाओं के आधार पर (वावृधे) बढ़े ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह मनुष्य कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे राजप्रजाजन ! यथा धरुणेषु अच्युतः अर्णांसि उब्जन् इन्द्रः नदीवृतं वृत्रम् अवधीत्, स च पर्वतः न इव वावृधे पुनः पुनः वर्धते, यद् यःत्वं शत्रून् हिन्धि सहस्रमूतिः तविषीषु जर्हृषाणः सन् अन्धसा वर्द्धस्व ॥ २ ॥
पदार्थ
हे (राजप्रजाजन)=राज्य के प्रजाजनों ! (यथा)=जैसे, (धरुणेषु) धारकेषु वाय्वादिषु=धारण करनेवाले वायु आदि में, (अच्युतः) अक्षयः=क्षय रहित, (अर्णांसि) जलानि =जल, (उब्जन्) आर्जवं कुर्वन्= आचरण की शुद्धता करते हुए, (इन्द्रः) सूर्यः=सूर्य, (नदीवृतम्) नदीभिर्वृतो युक्तो नदीर्वर्त्तयति वा तम्= नदी वाष्प के रूप में आँसू बहाती है, ऐसे (वृत्रम्) मेघम् =मेघ को, (अवधीत्) हन्ति=मार देता है, (सः) पूर्वोक्तः=पहले कह गया सूर्य, (च)=भी, (पर्वतः) मेघः= मेघ के, (न) इव=समान, (वावृधे) अतिशयेन वर्द्धते=अतिशय रूप से बढ़ता है, (पुनः पुनः)=बार-बार, (वर्धते)= बढ़ता है, (यत्) यः=जो, (त्वम्)=तुम, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (हिन्धि)=मारते हो, (सहस्रमूतिः) सहस्रमूतयो रक्षणादीनि यस्मात्सः=क्योंकि वह हजारों रक्षण आदि से, (तविषीषु) बलयुक्तेषु सैन्येषु=बलयुक्त सेनाओं से, (जर्हृषाणः) पुनः पुनर्हर्षं प्रापयन्= बार-बार, प्रसन्नता को प्राप्त करते, (सन्)= हुए, (अन्धसा) अन्नादिना=अन्न आदि से, (वर्द्धस्व)=बढ़ो ॥ २ ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान सेना आदि को धारण करके और मेघ के समान अन्नादि सामग्री के साथ वर्त्तमान हो करके बलों को बढ़ाता है, वह पर्वत के समान स्थिर सुखी होकर शत्रुओं को मार कर राज्य के बढ़ाने में समर्थ होता है ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (राजप्रजाजन) राज्य के प्रजाजनों ! (यथा) जैसे (धरुणेषु) धारण करनेवाले वायु आदि में (अच्युतः) क्षय रहित (अर्णांसि) जलों से (उब्जन्) आचरण की शुद्धता करते हुए (इन्द्रः) सूर्य से (नदीवृतम्) नदी के वाष्प रूप आँसू बहते हैं, ऐसे ही (वृत्रम्) बादल को (अवधीत्) मार देता है। (सः) पहले कह गया वह सूर्य (च) भी (पर्वतः) बादल के (न) समान (वावृधे) अतिशय रूप से, (पुनः पुनः) बार-बार (वर्धते) बढ़ता है। (यत्) जो (त्वम्) तुम (शत्रून्) शत्रुओं को (हिन्धि) मारते हो, (सहस्रमूतिः) क्योंकि वह हजारों रक्षण आदि [और] (तविषीषु) बलयुक्त सेनाओं से (जर्हृषाणः+सन्) बार-बार प्रसन्नता को प्राप्त करते हुए (अन्धसा) अन्न आदि से (वर्द्धस्व) बढ़ो अर्थात् प्रगति करो ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) पूर्वोक्तः (पर्वतः) मेघः (न) इव (धरुणेषु) धारकेषु वाय्वादिषु (अच्युतः) अक्षयः (सहस्रमूतिः) सहस्रमूतयो रक्षणादीनि यस्मात्सः। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति विभक्त्यलोपः। (तविषीषु) बलयुक्तेषु सैन्येषु (वावृधे) अतिशयेन वर्द्धते (इन्द्रः) सूर्यः (यत्) यः (वृत्रम्) मेघम् (अवधीत्) हन्ति (नदीवृतम्) नदीभिर्वृतो युक्तो नदीर्वर्त्तयति वा तम् (उब्जन्) आर्जवं कुर्वन्। अधो निपातयन् वा (अर्णांसि) जलानि। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (जर्हृषाणः) पुनः पुनर्हर्षं प्रापयन् (अन्धसा) अन्नादिना ॥ २ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे राजप्रजाजन ! यथा धरुणेष्वच्युतोऽर्णांस्युब्जन्निन्द्रो नदीवृतं वृत्रमवधीत्, स च पर्वतो नेव वावृधे पुनः पुनर्वर्धते, यद्यस्त्वं शत्रून् हिन्धि सहस्रमूतिस्तविषीषु जर्हृषाणः सन्नन्धसा वर्द्धस्व ॥ २ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो मनुष्यः सूर्यवत्सेनादिधारणं कृत्वा मेघवदन्नादिसामग्र्या सह वर्त्तमानो बलानि वर्धयति, स गिरिवत्स्थिरसुखः सन् शत्रून् हत्वा राज्यं वर्द्धयितुं शक्नोति ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो माणूस सेना इत्यादीला धारण करून मेघाप्रमाणे अन्न इत्यादी सामग्रीसह बल वाढवितो तो पर्वताप्रमाणे स्थिर व सुखी होऊन शत्रूला नष्ट करून राज्य वाढविण्यास समर्थ होतो. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Unshaken like a mountain within the bounds of its own hold, providing a thousand ways of protection and promotion for life, that Indra, sun/wind/ electric charge, waxes in strength and power when it kills Vritra, breaks the demon cloud holding up the streaming waters, when it releases the showers of rain, and rejoices with the food and energy that it creates through the showers. (So is the ruler for the demons and the people.)
Subject of the mantra
Then what kind of person should that human be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (rājaprajājana) =people of the state, (yathā) =like, (dharuṇeṣu)= in holding air etc., (acyutaḥ)=decay free, (arṇāṃsi) =by waters, (ubjan)=doing chastity of conduct, (indraḥ) =by Sun, (nadīvṛtam)=tears flow as vapors of the river, just like that, (vṛtram) =to the cloud, (avadhīt) =kills, (saḥ)=the sun said earlier, (ca) =also, (parvataḥ) =of the cloud, (na) =like, (vāvṛdhe)=extremely, (punaḥ punaḥ) =again and again, (vardhate)= grows, (yat) =that, (tvam) =you, (śatrūn) =to the enemies, (hindhi) =kill, (sahasramūtiḥ) =because he protects by thousands etc., [aura]=and, (taviṣīṣu)= by powerful force, (jarhṛṣāṇaḥ+san)= getting pleasure again and again, (andhasā)=by food etc., (varddhasva)= grow i.e. make progress.
English Translation (K.K.V.)
O people of the state! Just as tears in the form of a river flow from the Sun while purifying the conduct with decay less waters in the air etc., the holder kills the cloud. It was said earlier that the Sun also grows extremely like a cloud. The one who kills the enemies, because he is getting happiness again and again from thousands of protection etc. and strong armies, grow with food etc. i.e. make progress.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. The man who increases his forces by having an army like the Sun and by being present with food and material like a cloud, becomes stable and happy like a mountain and is capable of expanding his kingdom by killing his enemies.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is that Indra is taught further in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, officers and subjects of the State, as Indra (sun) slays Vritra (cloud) that surrounds the sky and causes rivers to flow by raining, he stands like the mountain firm in the winds which uphold the world and makes waters fall down on earth and waxes mighty, in the same way, you should slay the enemies and endowed with a thousand means of protection, delighting all, grow with nourishing food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वृत्रम् ) मेघम् ( वृत्र इतिमेघनाम निघ० १.१० ) = Cloud. (उब्जन्) आर्जवं कुर्वन् वा अधो निपातयन् वा = Making fall down. ( अन्धसा) अन्नादिना ( अन्धइत्यन्ननाम निघ० २.७ ) = With food. (अर्णांसि ) जलानि (अर्ण इत्युदकनाम निघ० १.१२ ) = Waters.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The man who like the sun, maintains his army properly and like the cloud producing grain by raining, increases the strength of soldiers, standing firm like the mountain, in his joyful state, having slayed his enemies, can develop the State thoroughly.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Sri Niranjan Arsid
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal