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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 12
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वम॒स्य पा॒रे रज॑सो॒ व्यो॑मनः॒ स्वभू॑त्योजा॒ अव॑से धृषन्मनः। च॒कृ॒षे भूमिं॑ प्रति॒मान॒मोज॑सो॒ऽपः स्वः॑ परि॒भूरे॒ष्या दिव॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒स्य । पा॒रे । रज॑सः । विऽओ॑मनः । स्वभू॑तिऽओजाः । अव॑से । धृ॒ष॒त्ऽम॒नः॒ । च॒कृ॒षे । भूमि॑म् । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । ओज॑सः । अ॒पः । स्वरिति॑ स्वः॑ । प॒रि॒ऽभूः । ए॒षि॒ । आ । दिव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमस्य पारे रजसो व्योमनः स्वभूत्योजा अवसे धृषन्मनः। चकृषे भूमिं प्रतिमानमोजसोऽपः स्वः परिभूरेष्या दिवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अस्य। पारे। रजसः। विऽओमनः। स्वभूतिऽओजाः। अवसे। धृषत्ऽमनः। चकृषे। भूमिम्। प्रतिऽमानम्। ओजसः। अपः। स्व१रिति स्वः। परिऽभूः। एषि। आ। दिवम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरस्य जगतो राजेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे धृषन्मनो जगदीश्वर ! यः परिभूः स्वभूत्योजास्त्वमवसेऽस्य संसारस्य रजसो व्योमनः पारेऽप्येषि त्वं सर्वेषामोजसः पराक्रमस्य स्वभूमिं चाप्रतिमानमाचकृषे समन्तात् कृतवानसि तं सर्वे वयमुपास्महे ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) परमेश्वरः (अस्य) संसारस्य क्लेशेभ्यः (पारे) अपरभागे (रजसः) पृथिव्यादिलोकानाम् (व्योमनः) आकाशस्य। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इत्यल्लोपो न भवति। (स्वभूत्योजाः) स्वकीया भूतिरैश्वर्यमोजः पराक्रमो वा यस्य सः (अवसे) रक्षणाद्याय (धृषन्मनः) धृषद्धृष्यते मनः सर्वस्यान्तःकरणं येन तत्सम्बुद्धौ (चकृषे) कृतवानसि (भूमिम्) सर्वाधारां क्षितिम् (प्रतिमानम्) प्रतिमीयते परिणीयते प्रतिक्रियते येन तत् (ओजसः) पराक्रमस्य (अपः) प्राणान् (स्वः) सुखमन्तरिक्षं वा (परिभूः) यः परितः सर्वतो भवति सः (एषि) प्राप्नोषि (आ) समन्तात् (दिवम्) विज्ञानप्रकाशम् ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    परमेश्वरः सर्वेभ्यः परः प्रकृष्टः सर्वेभ्यो दुःखेभ्यः पारे वर्त्तमानः सन् स्वसामर्थ्यात् सर्वान् लोकान् रचयित्वा तानभिव्याप्तः सन्सर्वान् व्यवस्थापयन् जीवानां पापपुण्यव्यवस्थाकरणेन न्यायाधीशः सन् वर्त्तते तथा सभेशो राज्यं कुर्वन् सर्वेभ्यः सुखं जनयेत् ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर इस समग्र जगत् का राजा परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (धृषन्मनः) अनन्त प्रगल्भ विज्ञानयुक्त जगदीश्वर ! जो (परिभूः) सब प्रकार होने (स्वभूत्योजाः) अपने ऐश्वर्य वा पराक्रम से युक्त (त्वम्) आप (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अस्य) इस संसार के (रजसः) पृथिवी आदि लोकों तथा (व्योमनः) आकाश के (पारे) अपरभाग में भी (एषि) प्राप्त हैं और आप (ओजसः) पराक्रम आदि के (प्रतिमानम्) अवधि (स्वः) सुख (दिवम्) शुद्ध विज्ञान के प्रकाश (भूमिम्) भूमि और (अपः) जलों को (आचकृषे) अच्छे प्रकार स्थित किया है, उन आपकी हम सब लोग उपासना करते हैं ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर सब से उत्तम, सबसे परे वर्त्तमान होकर सामर्थ्य से लोकों को रच के, उनमें सब प्रकार से व्याप्त हो धारण कर सब को व्यवस्था में युक्त करता हुआ जीवों के पाप-पुण्य की व्यवस्था करने से न्यायाधीश होकर वर्त्तता है, वैसे ही न्यायाधीश भी सब भूमि के राज्य को सम्पादन करता हुआ, सबके लिये सुखों को उत्पन्न करे ॥ १२ ॥

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे परमैश्वर्यवन् परात्मन्! (अस्य व्योमनः पारे) आकाशलोक के पार में तथा भीतर (स्वभूत्योजा) अपने ऐश्वर्य और बल से विराजमान होके (मनः धृषन्) दुष्टों के मन का धर्षण - तिरस्कार करते हुए (रजस्) सब जगत् तथा विशेष हम लोगों के (अवसे) सम्यक् रक्षण के लिए (त्वम्) आप सावधान हो रहे हो, इससे हम निर्भय होके आनन्द कर रहे हैं, किञ्च (दिवम्) परमाकाश (भूमिम्) भूमि तथा (स्वः) सुखविशेष मध्यस्थलोक इन सबको (ओजसः) अपने सामर्थ्य से ही (चकृषे) रचके यथावत् धारण कर रहे हो, (परिभूः एषि) सबपर वर्त्तमान और सबको प्राप्त हो रहे हो, (आदिवम्) द्योतनात्मक सूर्यादि लोक (अप:)  अन्तरिक्षलोक और जल इन सबके प्रतिमान[परिमाण] - कर्त्ता आप ही हो तथा आप अपरिमेय हो, कृपा करके हमको अपना तथा सृष्टि का विज्ञान दीजिए ॥ १३ ॥

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    विषय

    रजोगुण के पार

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब हमारी सब इन्द्रियाँ शरीर के पालन के दृष्टिकोण से ही विषयों को ग्रहण करनेवाली होती हैं तब हम 'धृषन्मना' बनते है - वासनाओं का धर्षण करनेवाले मनवाले होते हैं, उस समय हम (स्वभूत्योजाः) = [स्वः भूति - ओजस्] आत्मिक ऐश्वर्य व ओज को धारण करते हैं और विषयों की रुचिवाले रजोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में अवस्थित होते हैं । मन्त्र में कहते हैं कि हे (धृषन्मनः) = काम - क्रोधादि शत्रुओं के धर्षक मनवाले जीव ! (स्वभूति - ओजाः) = आत्मिक ऐश्वर्य व ओजस्वितावाला (त्वम्) = तू (अस्य) = इस (रजसो व्योमनः पारे) रजोगुणयुक्त आकाश के पार हो जाता है । रजोगुण से ऊपर उठकर तू सत्त्वगुण में अवस्थित होता है । २. सत्त्वगुण में अवस्थित होकर तू (भूमिम्) = इस निवासस्थानभूत शरीर को [भवन्ति जना यस्याम् - जिसमें मनुष्य निवास करते हैं] , (ओजसः प्रतिमानम्) = बल का प्रतिनिधि (चक्षे) = करता है, शरीर को तू अत्यन्त सबल बनाता है । (अपः) = हदयान्तरिक्ष को [अपः इति अन्तरिक्षनाम] तू (स्वः) = प्रकाशमय करता है और (दिवम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक को (परिभूः) = चारों ओर से ग्रहण करनेवाला होता हुआ, अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान - विज्ञानों को प्राप्त करता हुआ (आ एषि) = सब प्रकार से प्रभु के समीप प्राप्त होता है । ३. सत्त्वगुण में अवस्थित होने के ये परिणाम होने ही चाहिएँ [क] हमारा शरीर स्वस्थ व सबल हो, [ख] हृदय वासना के मल से रहित होकर प्रकाशमय हो, [ग] मस्तिष्क ज्ञान - विज्ञान की ज्योति से जगमगाए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सदा सत्त्वगुण में अवस्थित हों और शरीर, मन व मस्तिष्क सभी को स्वस्थ बनाएँ ।

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    विषय

    वृष्टि विज्ञान ।

    भावार्थ

    हे ( धृषन्मनः ) सबके संकल्प विकल्प करने वाले चित्तों को अपने ज्ञान और विवेक और अद्भुत अज्ञेय रचना से घर्षण या पराजित करने हारे परमेश्वर ! ( त्वम् ) तू ( स्वभूति-ओजाः ) स्वतः विना किसी के सहयोग से अपने प्रचुर ऐश्वर्य और पराक्रम से सम्पन्न होकर ( अस्य रजसः ) इस भूलोक या अन्तरिक्ष और (अस्य व्योमनः ) विस्तृत आकाश के (पारे) परले पार भी (अवसे) रक्षण करने के लिये विद्यमान है। तू ही ( ओजसः प्रतिमानम् ) अपने बल के अनुरूप ही ( भूमिम् ) सब प्राणियों तथा चराचर के उत्पन्न करने वाली भूमि या प्रकृति को (चकृषे) बनाता अर्थात् विकृत, या विविध रूपों में प्रकट करता है । और तू ही ( परिभूः ) सर्व व्यापक होकर ( अपः ) प्राणों को या जलों को ( स्वः ) समस्त सुखों और अन्तरिक्ष या वायु को और ( दिवम् ) महान् आकाश या प्रकाश, तेजस्तत्व को भी ( आ एषि ) व्याप रहा है। राजा के पक्ष में—अपने ऐश्वर्य और पराक्रम से युक्त होकर तू ही ( वि ओमनः रजसः (पारे) विविध रक्षा वाले लोक समूहों से पार वा दूर, देशान्तर में भी रक्षा करने के लिये समर्थ है। तू ( भूमिम् ) इस पृथिवी को ( ओजसः प्रतिमानं चकृषे ) बल पराक्रम का मापक बनाता है। जो राजा जितनी पृथ्वी का स्वामी है उसका उतना ही पराक्रम, या शासन है। (अपः) प्रजाओं (स्वः) सुखैश्वर्य और ( दिवम् ) ज्ञानप्रकाश, सबको तू ( आ एषि ) प्राप्त कर । शत्रुओं के ‘मन’ अर्थात् स्तम्भन बल को पराजित करने से राजा ‘धृषन्मना’ है । और सर्वोपरि सामर्थ्यवान् होने से ‘परिभू’ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर इस समग्र जगत् का राजा परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे धृषन्मनः जगदीश्वर ! यः परिभूः स्वभूत्योजाः त्वम् अवसे अस्य संसारस्य रजसः व्योमनः पारे अपि एषि [दिवम्] त्वं सर्वेषाम् ओजसः पराक्रमस्य स्वभूमिं च आ प्रतिमानम् आ चकृषे समन्तात् कृतवान् असि तं सर्वे वयम् उपास्महे॥१२ ॥

    पदार्थ

    हे (धृषन्मनः) दुष्टों के मन का घर्षण से तिरस्कार करनेवाले (जगदीश्वर) परमेश्वर (यः) जो (परिभूः) सर्वत्र उपस्थित है, ऐसे (स्वभूत्योजाः) जिसका अपना ही ऐश्वर्य, ओज और पराक्रम है (त्वम्) आप परमेश्वर ! (अवसे) रक्षण आदि के लिये (अस्य) संसार के क्लेशों से, (संसारस्य) संसार के, अर्थात् (रजसः) पृथिवी आदि लोकों के और (व्योमनः) आकाश के (पारे) अपर भाग में (अपि) भी (एषि) प्राप्त करते हो। [दिवम्] विशेष ज्ञान के प्रकाश को (त्वम्) तुम, (सर्वेषाम्) सबके (ओजसः) पराक्रमों के और [अपः] प्राणों के (स्वः) सुख या अन्तरिक्ष में (च) और (भूमिम्) सबकी आधार और आवास पृथिवी को (आ) हर ओर से (प्रतिमानम्) प्रतिमीयते परिणीयते प्रतिक्रियते येन तत्=समग्र रूप से अन्दर और बाहर नापते हुए, (आ) हर ओर से (चकृषे) बनाये हुए हो, (तम्) उस (सर्वे) सबकी (वयम्) हम (उपास्महे) उपासना करें ॥१२ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे परमेश्वर सब से प्रकृष्ट, सबके दुःखों के दूसरी ओर वर्त्तमान होते हुए अपने सामर्थ्य से लोकों को रच करके, उनमें व्याप्त होते हुए व्यवस्था करते हुए जीवों के पाप-पुण्य की व्यवस्था करने से न्यायाधीश होते हुए व्यवहार करता है, वैसे ही सभापति राज्य का शासन करता हुआ, सबके लिये सुखों को उत्पन्न करे ॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (धृषन्मनः) दुष्टों के मन का घर्षण से तिरस्कार करनेवाले (जगदीश्वर) परमेश्वर ! (यः) जो (परिभूः) सर्वत्र उपस्थित है, ऐसे (स्वभूत्योजाः) जिसका अपना ही ऐश्वर्य, ओज और पराक्रम है, (त्वम्) आप परमेश्वर (अवसे) रक्षण आदि के लिये, (अस्य) संसार के क्लेशों से (संसारस्य) संसार के अर्थात् (रजसः) पृथिवी आदि लोकों के [और] (व्योमनः) आकाश के (पारे) अपर भाग में (अपि) भी (एषि) प्राप्त होते हो, [दिवम्] विशेष ज्ञान के प्रकाश को, (त्वम्) तुम (सर्वेषाम्) सबके (ओजसः) पराक्रमों और [अपः] प्राणों के (स्वः) सुख या अन्तरिक्ष में (च) और (भूमिम्) सबकी आधार और आवास पृथिवी को (आ) हर ओर से, (प्रतिमानम्) समग्र रूप से अन्दर और बाहर से नापते हुए, (आ) हर ओर से (चकृषे) बनाते हो, (तम्) उस (सर्वे) सबकी (वयम्) हम (उपास्महे) उपासना करें ॥१२ ॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) परमेश्वरः (अस्य) संसारस्य क्लेशेभ्यः (पारे) अपरभागे (रजसः) पृथिव्यादिलोकानाम् (व्योमनः) आकाशस्य। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इत्यल्लोपो न भवति। (स्वभूत्योजाः) स्वकीया भूतिरैश्वर्यमोजः पराक्रमो वा यस्य सः (अवसे) रक्षणाद्याय (धृषन्मनः) धृषद्धृष्यते मनः सर्वस्यान्तःकरणं येन तत्सम्बुद्धौ (चकृषे) कृतवानसि (भूमिम्) सर्वाधारां क्षितिम् (प्रतिमानम्) प्रतिमीयते परिणीयते प्रतिक्रियते येन तत् (ओजसः) पराक्रमस्य (अपः) प्राणान् (स्वः) सुखमन्तरिक्षं वा (परिभूः) यः परितः सर्वतो भवति सः (एषि) प्राप्नोषि (आ) समन्तात् (दिवम्) विज्ञानप्रकाशम् ॥ १२ ॥ विषयः- पुनरस्य जगतो राजेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे धृषन्मनो जगदीश्वर ! यः परिभूः स्वभूत्योजास्त्वमवसेऽस्य संसारस्य रजसो व्योमनः पारेऽप्येषि [दिवम्] त्वं सर्वेषामोजसः पराक्रमस्य स्वभूमिं चाप्रतिमानमाचकृषे समन्तात् कृतवानसि तं सर्वे वयमुपास्महे॥१२ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- परमेश्वरः सर्वेभ्यः परः प्रकृष्टः सर्वेभ्यो दुःखेभ्यः पारे वर्त्तमानः सन् स्वसामर्थ्यात् सर्वान् लोकान् रचयित्वा तानभिव्याप्तः सन्सर्वान् व्यवस्थापयन् जीवानां पापपुण्यव्यवस्थाकरणेन न्यायाधीशः सन् वर्त्तते तथा सभेशो राज्यं कुर्वन् सर्वेभ्यः सुखं जनयेत् ॥१२॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा परमेश्वर सर्वांत उत्तम, सगळ्यापेक्षा वेगळा असून आपल्या सामर्थ्याने त्याने गोलांची निर्मिती केलेली आहे व त्यात सर्व प्रकारे व्याप्त होऊन, धारण करून सर्वांना व्यवस्थेत युक्त करतो. न्यायाधीश बनून पाप-पुण्याची व्यवस्था करतो. तसेच न्यायाधीशानेही सर्व भूमीचे राज्य संपादन करून सर्वांसाठी सुख उत्पन्न करावे. ॥ १२ ॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    परम ऐश्वर्ययुक्त परमात्मा! अन्तरिक्षांच्या अलीकडे व पलीकडे आपल्या ऐश्वर्यानि आणि चलाने विराजमान होणाऱ्या व दुष्ट माणसांचा अपमान आणि तिरस्कार करून सर्व जगाच्या व विशेषतः आमच्या (अवसे) सम्यक रक्षणासाठी (त्वम्) तू सावधान असतोस. त्यामुळे आम्ही निर्भय असून आनंदी आहोत. योडे (दिवम्) विशाल आकाश (भूमिम्) भूमी व (स्वः) सुखविशेष ज्यांना प्राप्त आहेत असे मध्यस्थ लोक या सर्वाना तू आपल्या सामर्थ्याने निर्माण करून योग्यरीत्या धारण करीत आहेस. (परिभूः एषि) सर्वत्र वर्तमान असून तू सर्वांना प्राप्त होत आहेस. (आदिवम्) प्रकाशयुक्त सूर्यलोइयादी (अपः) अन्तरिक्षलोक व जल या सर्वाचा परिमाणकर्ता तूच आहेस. तू अपरिमेय आहेस. कृपया आम्हाला तुझ्यासंबंधी व सृष्टिसंबंधीचे विज्ञान कळू दे. ॥१३॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Lord of omnipotent force, master of your own essential splendour, you are beyond this world of earth and sky. You create the earth, a symbolic measure of your power, for the sake of life and protection. You pervade the earth, the waters, the regions of bliss and the heavens of light and you are transcendent even beyond.

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    Purport

    O the Bounteous Supreme Soul! You by your Might and Majesty rule supreme not only within but also beyond! the expanse of the space crushing and subduing the minds of the wicked. You are ever vigilant for the protection of the world and specially for our protection. It is due to your vigilance that we are enjoying a peaceful life without experiencing any fear. Also, by creating the solar region, the earth and the intermediate atmospheric region, which are the cause of happiness, you are sustaining them properly by your Might. You are surpassing all entities and are accessible to all. You are the measurer of lustrous regions-the sun and such other planets, the atmospheric and rainy regions, but you yourself are immeasurablefathomless. Kindly impart to us the knowledge of your own-self as well as of your universe-knowledge to realise you and know well your world.

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    Subject of the mantra

    Then, how is God, the king of this entire world, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dhṛṣanmanaḥ) =who despises the hearts of the wicked, (jagadīśvara)= God, (yaḥ) =that, (paribhūḥ)= is omnipresent, like this (svabhūtyojāḥ)=who has his own opulence, vigor and might, (tvam)=you God, (avase)=for protection etc., (asya) =from the troubles of the world, (saṃsārasya)=of the world i.e., (rajasaḥ) Earth and other worlds, [aura]=and, (vyomanaḥ)=of sky, (pāre)= in the other part, (api) =also, (eṣi) =get obtained, [divam]=the light of special knowledge, (tvam) =you, (sarveṣām) =of all, (ojasaḥ) =valours and, [apaḥ] =of life breaths, (svaḥ)=in happiness or space, (ca) aura (bhūmim)=to the earth being the basis and home of all, (ā) =from all sides, (pratimānam)=measuring holistically from within and without, (ā) =from all sides, (cakṛṣe) =build, (tam) =that, (sarve) =of all, (vayam) =we, (upāsmahe) =must worship.

    English Translation (K.K.V.)

    O God who despises the hearts of the wicked! Who is Omnipresent, who has his own majesty, power and might, you get protection from the troubles of the world i.e. in the worlds like earth and also in the outer part of the sky. Let us worship the light of special knowledge that you create from all sides, measuring everyone's exploits and extra-life's happiness or space, and everyone's base and abode, the earth, from all sides, completely from inside and out.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as God, the quintessential of all, being present on the other side of everyone's sufferings, creates the worlds with His power, pervades them and makes arrangements and acts as a judge by deciding on the sins and virtues of the living beings, similarly the Chairman ruling over the state, should create happiness for all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is God the Sovereign of this world is taught in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Lord God, over whelming our mental faculties by Thy mighty deeds, mighty by the very nature of Thy Being, Thou art present in and beyond this vast congeries of planets in the expanse of space and away from all misery of the world for the protection and sustenance of all creatures. Surrounding the solar region and the mighty sun as well as the vital forces pervading all regions, Thou makest these creations of Thine, as measure of Thy might for us to infer Thy unfathomable power.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God is perfectly free from all misery, the most exalted Supreme Being who creates all worlds by His power and pervades them. He is the Dispenser of justice giving the fruits of the good or bad actions done by the souls, thus keeping law and order in the Universe. The President of the Assembly or King also should follow Him (God) and give happiness to all.

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! अस्य व्योमनः पारे= एस आकाशलोक भन्दा पारी तथा एसभित्र स्वभूत्योजा= आफ्नो ऐश्वर्य र बल ले विराजमान भएर मनः धृषन् = दुष्टजन हरु को मन लाई धर्षण अर्थात् तिरस्कार गर्दै रजस्= सम्पूर्ण जगत् र विशेष रूप ले हामीहरुको अवसे= सम्यक् रक्षण का लागी त्वम् = तपाईं सावधान हुनु भइरहेको छ, एसकारण ले गर्दा हामी हरु निर्भय भएर आनन्द गरी रहेछौं, किञ्च दिवम् = परमाकाश, भूमिम् = भूमि तथा स्वः - सुख विशेष मध्यस्थ लोक ई सबै लाई ओजसः = आफ्नो सामर्थ्यबाटै चकृषे = रचना गरी यथावत् धारणा गरी रहनु भएको छ, परिभू: एषि = सबैमाथि वर्तमान भई सबैलाई प्राप्त भई रहनु भएको छ, आदिवम् = द्योतनात्मक सूर्यादिलोक अपः= अन्तरिक्ष लोक र जल ई सबैका प्रतिमान अर्थात् परिमाणकर्त्ता तपाईं नै हुनुहुन्छ तथा तपाईं अपरिमेय हुनुहुन्छ, कृपा गरी हामीलाई आफ्नो सृष्टि को विज्ञान दिनुहोस् ॥१३॥ 

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