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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    यदिन्न्वि॑न्द्र पृथि॒वी दश॑भुजि॒रहा॑नि॒ विश्वा॑ त॒तन॑न्त कृ॒ष्टयः॑। अत्राह॑ ते मघव॒न्विश्रु॑तं॒ सहो॒ द्यामनु॒ शव॑सा ब॒र्हणा॑ भुवत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इत् । नु । इ॒न्द्र॒ । पृ॒थि॒वी । दश॑ऽभुजिः । अहा॑नि । विश्वा॑ । त॒तन॑न्त । कृ॒ष्टयः॑ । अत्र॑ । अह॑ । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । विऽश्रु॑तम् । सहः॑ । द्याम् । अनु॑ । शव॑सा ब॒र्हणा॑ । भु॒व॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्न्विन्द्र पृथिवी दशभुजिरहानि विश्वा ततनन्त कृष्टयः। अत्राह ते मघवन्विश्रुतं सहो द्यामनु शवसा बर्हणा भुवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। इत्। नु। इन्द्र। पृथिवी। दशऽभुजिः। अहानि। विश्वा। ततनन्त। कृष्टयः। अत्र। अह। ते। मघऽवन्। विऽश्रुतम्। सहः। द्याम्। अनु। शवसा बर्हणा। भुवत् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सभाध्यक्षः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र ! त्वया यद्या दशभुजिः पृथिवी भुज्यते यस्य ते तव बर्हणा शवसाह द्यामनु विश्रुतं यशस्सहो भुवत् तेन सहितस्त्वं प्रयतस्व, यतोऽत्र राज्ये कृष्टयो विश्वान्यहानीदेव सुखानि नु ततनन्त विस्तारयेयुः ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (यत्) वक्ष्यमाणम् (इत्) एव (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष (पृथिवी) भूमिः (दशभुजिः) या दशभिरिन्द्रियैर्भुज्यते सा (अहानि) दिनानि (विश्वा) सर्वाणि (ततनन्त) विस्तीर्णानि भवन्ति (कृष्टयः) कृषन्ति विलिखन्ति स्वानि कर्माणि ये ते मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अत्र) अस्मिन् व्यवहारे (अह) विनिग्रहार्थे (ते) तव (मघवन्) उत्कृष्टधनविद्यैश्वर्ययुक्त (विश्रुतम्) यद्विविधं श्रूयते तद्यशः (सहः) बलम् (द्याम्) राजपालनविनयप्रकाशम् (अनु) आनुकूल्ये (शवसा) बलेन (बर्हणा) सर्वसुखप्रापिकया क्रियया। बर्हणा इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (भुवत्) भवेत्। अत्र लेटि बहुलं छन्दसि (अष्टा०२.४.७३) इति शपो लुक्। भूसुवोस्तिङि (अष्टा०७.३.८८) इति गुणनिषेधादुवङादेशः ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषैः स्वराज्ये सुखानां वृद्धिर्विविधगुणप्राप्तिश्च यथा स्यात् तथैवानुष्ठेयमिति ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) उत्कृष्ट धन और विद्या के ऐश्वर्य से युक्त (इन्द्र) सभा सेनाध्यक्ष ! आप (यत्) जो (दशभुजिः) दश इन्द्रियों से (पृथिवी) भूमि को भोगते हो (ते) आप के (बर्हणा) सब सुख प्राप्त कराने वा (शवसा) (अह) बल से ही (द्याम्) राज्यपालन (अनुविश्रुतम्) अनुकूल कीर्ति करानेवाला यश (सहः) बल (भुवत्) होवे, उससे युक्त होके आप प्रयत्न कीजिये, जिससे (अत्र) इस राज्य में (कृष्टयः) मनुष्य लोग (विश्वा) सब (अहानि) दिनों को (इत्) ही सुख से (नु) जल्दी (ततनन्त) विस्तार करें ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे अपने राज्य में सुखों की वृद्धि और अनेक प्रकार से गुणों की प्राप्ति हो, वैसा अनुष्ठान करें ॥ ११ ॥

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    विषय

    दशयुजि पृथिवी

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (यत् इत् नु) = जब निश्चय से (पृथिवी) = यह तेरा शरीर [पृथिवी शरीरम्] (दशयुजिः) = दस इन्द्रियों से विषयों के उचित अभ्यवहरण [खाने] के द्वारा पालने के योग्य होता है [भुज पालनाभ्यवहारयोः] २. और (कृष्टयः) = श्रमशील मनुष्य (विश्वा अहानि) = सब दिन [प्रतिदिन] (ततनन्त) = अपनी शक्तियों का विस्तार करते हैं । वस्तुतः शक्तियों का विस्तार होता तभी है जबकि सब इन्द्रियाँ शरीर के रक्षण के दृष्टिकोण से ही विषयों का ग्रहण करें । ऐसा होने पर मनुष्य 'दशरथ' बनता है । इन्द्रियाँ भोगों में ही आसक्त हो जाएँ तो हम 'दशानन' बन जाते हैं । जिला उन्हीं रसों को उतनी मात्रा में ले जो शरीर के लिए पोषक हों तो शरीर का वर्धन - ही - वर्धन होता है । ३. (अत्र अह) = इस समय ही निश्चय से हे (मघवन्) = [मघ - मख] यज्ञमय जीवनवाले पुरुष ! (ते सहः) = तेरा बल (विश्रुतम्) = विशेष प्रसिद्धिवाला होता है । यह (द्याम् अनु) = ज्ञान के अनुसार (शवसा) = गति के द्वारा [शवतिर्गतिकर्मा] (बर्हणा भुवत्) = [सर्वसुखदायिकया क्रियया - द०] सब सुखों को सिद्ध करनेवाली क्रिया से युक्त होता है । वस्तुतः जीवन में सुख तभी होता है जब हमारी क्रियाएँ ज्ञानपूर्वक हों । प्रभु की सर्वव्यापकता के ज्ञान के साथ होनेवाली क्रियाएँ सदा पवित्र होती है और मानुष सुख की साधिका होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारी सब इन्द्रियाँ पोषण के दृष्टिकोण से ही विषयों का ग्रहण करनेवाली हों । इस प्रकार हम अपनी शक्तियों का विस्तार करें । हमारी सब क्रियाएँ ज्ञान के अनुसार हों ताकि सुख की वृद्धि हो ।

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    विषय

    वृष्टि विज्ञान ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! सभापते ! ( यत् ) जो यह ( पृथिवी ) पृथिवी है, वह ( नु दशभुजिः इत् ) निश्चय से ‘दशभुजि’ है । अर्थात् वह प्रकृति के समान दशों इन्द्रियों से जीवों द्वारा भोग करने योग्य है, अथवा दशों दिशाओं के वासी प्राणियों द्वारा भोग करने या राजा द्वारा दशों दिशाओं से रक्षा करने योग्य है । इसमें (विश्वा अहानि) सब दिनों, सदा ही (कृष्टयः) अन्नादि को उत्पन्न करने वाले प्रजाजन (ततनन्त) सदा फैलें, या इसको विस्तृत करें अर्थात् वे जंगल आदि काट कर विस्तृत क्षेत्र तैयार करें जिससे प्रचुर अन्न हो । हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! हे राजन् ! (अत्र अह) निश्चय से इसी पृथ्वी पर ( शवसा ) बल से, पराक्रम से और ( वर्हणा ) प्रजा को बढ़ाने वाले उद्योग से ( ते सहः ) तेरे शत्रु को पराजित करने वाला बल भी (द्याम् अनु) सूर्य के प्रकाश के समान (विश्रुतम्) खूब प्रसिद्ध ( भुवत् ) हो । परमेश्वर के पक्ष में—हे परमेश्वर ! यह पृथ्वी दशों दिशाओं और इन्द्रियों से भोग योग्य है । प्रजाएं इस पर बढ़ती चली जा रही हैं। तेरे बल प्रजा वृद्धि के कार्य से तेरा यश, ख्याति प्रकाश के समान, या विस्तृत आकाश के समान विस्तृत है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मघवन् इन्द्र ! त्वया यत् या दशभुजिः पृथिवी भुज्यते यस्य ते तव बर्हणा शवसा द्याम् अनु विश्रुतं यशः सहः भुवत् तेन सहितः त्वं प्रयतस्व यतः अत्र राज्ये कृष्टयः विश्वानि अहानि इत् एव सुखानि नु ततनन्त विस्तारयेयुः ॥ ११ ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) उत्कृष्टधनविद्यैश्वर्ययुक्त= उत्कृष्ट धन, विद्या, और ऐश्वर्य युक्त, (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष= सभा और सेनाध्यक्ष! (त्वया)=तुम्हारे द्वारा, (यत्) वक्ष्यमाणम् या=जो वर्णित, (दशभुजिः) या दशभिरिन्द्रियैर्भुज्यते सा=दश इन्द्रियों के द्वारा उपभोग की गई, (पृथिवी) भूमिः = भूमि को, (भुज्यते) =उपभोग करता है, (यस्य)=जिसकी, (ते) तव =तुम्हारी, (बर्हणा) सर्वसुखप्रापिकया क्रियया=सब सुखों को प्राप्त करानेवाली क्रिया के, (शवसा) बलेन=बल से, (द्याम्) राजपालनविनयप्रकाशम्= राज्य के पालन करने और विनय प्रदर्शित करने को, (अनु) आनुकूल्ये=अनुकूल, (विश्रुतम्) यद्विविधं श्रूयते तद्यशः=विभिन्न प्रकार से सुना जाता है, ऐसा, (यशः)= यश और (सहः) बलम्=बल, (भुवत्) भवेत्=होवे, (तेन) =उसके, (सहितः)= सहित, (त्वम्)=तुम, (प्रयतस्व) = (यतः) =क्योंकि, (अत्र) अस्मिन् व्यवहारे= इस व्यवहार में, (राज्ये)= राज्य में, (कृष्टयः) कृषन्ति विलिखन्ति स्वानि कर्माणि ये ते मनुष्याः=अपने कर्मों से जो मनुष्य खोदकर चिह्न बना देते हैं, (विश्वा) सर्वाणि=समस्त, (अहानि) दिनानि=दिनों में, (इत्) एव=ही, (सुखानि)=सुखों को, (नु) शीघ्रम्=शीघ्रता से, (ततनन्त) विस्तीर्णानि भवन्ति=बढ़ा देते हैं, उन्हें, (विस्तारयेयुः)=बढ़ा दो ॥ ११ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    राजपुरुषों के द्वारा अपने राज्य में सुखों की वृद्धि और विविध गुणों की प्राप्ति कैसे हो? वैसा ही अनुष्ठान करना चाहिए ॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मघवन्) उत्कृष्ट धन, विद्या, और ऐश्वर्य युक्त, (इन्द्र) सभा और सेना के अध्यक्ष! (त्वया) तुम्हारे द्वारा (यत्) जो वर्णित (दशभुजिः) दश इन्द्रियों के द्वारा उपभोग की गई (पृथिवी) भूमि का (भुज्यते) उपभोग करता है, (यस्य) जिसकी (ते) तुम्हारी (बर्हणा) सब सुखों को प्राप्त करानेवाली क्रिया को (शवसा) बल से, (द्याम्) राज्य के पालन करने और विनय प्रदर्शित करने के (अनु) अनुकूल (विश्रुतम्) विभिन्न प्रकार से सुना जाता है, ऐसा (यशः) यश और (सहः) बल (भुवत्) होवे। (तेन) उसके (सहितः) सहित (त्वम्) तुम (प्रयतस्व) प्रयत्न करो, (यतः) क्योंकि (अत्र) इस व्यवहार से (राज्ये) राज्य में (कृष्टयः) अपने कर्मों से जो मनुष्य खोदकर चिह्न बना देते हैं। (विश्वा) समस्त (अहानि) दिनों में (इत्) ही (सुखानि) सुखों को (नु) शीघ्रता से (ततनन्त) बढ़ा देते हैं, उन्हें (विस्तारयेयुः) बढ़ा दो ॥ ११ ॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्) वक्ष्यमाणम् (इत्) एव (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) सभासेनाध्यक्ष (पृथिवी) भूमिः (दशभुजिः) या दशभिरिन्द्रियैर्भुज्यते सा (अहानि) दिनानि (विश्वा) सर्वाणि (ततनन्त) विस्तीर्णानि भवन्ति (कृष्टयः) कृषन्ति विलिखन्ति स्वानि कर्माणि ये ते मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अत्र) अस्मिन् व्यवहारे (अह) विनिग्रहार्थे (ते) तव (मघवन्) उत्कृष्टधनविद्यैश्वर्ययुक्त (विश्रुतम्) यद्विविधं श्रूयते तद्यशः (सहः) बलम् (द्याम्) राजपालनविनयप्रकाशम् (अनु) आनुकूल्ये (शवसा) बलेन (बर्हणा) सर्वसुखप्रापिकया क्रियया। बर्हणा इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.३) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (भुवत्) भवेत्। अत्र लेटि बहुलं छन्दसि (अष्टा०२.४.७३) इति शपो लुक्। भूसुवोस्तिङि (अष्टा०७.३.८८) इति गुणनिषेधादुवङादेशः ॥ ११ ॥ विषयः- पुनः सभाध्यक्षः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मघवन्निन्द्र ! त्वया यद्या दशभुजिः पृथिवी भुज्यते यस्य ते तव बर्हणा शवसा द्यामनु विश्रुतं यशस्सहो भुवत् तेन सहितस्त्वं प्रयतस्व, यतोऽत्र राज्ये कृष्टयो विश्वान्यहानीदेव सुखानि नु ततनन्त विस्तारयेयुः ॥ ११ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजपुरुषैः स्वराज्ये सुखानां वृद्धिर्विविधगुणप्राप्तिश्च यथा स्यात् तथैवानुष्ठेयमिति ॥११॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी जशी आपल्या राज्यात सुखाची वृद्धी व गुणांची प्राप्ती होईल तसे प्रयत्न करावेत. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of power, wealth and glory, if the earth, which is enjoyable with the ten senses, and all the people were to wax in peace and joy all days and nights by virtue of the light of your knowledge and justice and your power of protection and progress, then your fame and splendour on earth would touch the heights of heaven.

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    Subject of the mantra

    Then what should that Chairman of the Assembly do, this topic has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (maghavan)=blessed with excellent wealth, knowledge and opulence, (indra)=Chairman of the assembly and the army, (tvayā) =by you, (yat)=that described, (daśabhujiḥ)=consumed by the ten senses (pṛthivī) =of earth, (bhujyate)= consumes, (yasya) =whose,(te) =your, (barhaṇā)=the activity that provides all the pleasures, (śavasā) =by power, (dyām)=to obey the state and show humility, (anu)=friendly, (viśrutam)=heard in different ways, (yaśaḥ) =fame and, (sahaḥ) =power, (bhuvat) =be, (tena) =his, (sahitaḥ) =with, (tvam) =you, (prayatasva)= try, (yataḥ) =because, (atra) =by this opulence, (rājye) =in the kingdom, (kṛṣṭayaḥ)=the symbols that human beings make through the digging actions, (viśvā) =all, (ahāni) =during days, (it) =only, (sukhāni) =to delights, (nu) =fast, (tatananta)= increase them, (vistārayeyuḥ)=increase.

    English Translation (K.K.V.)

    O possessor of excellent wealth, learning, and opulence, Chairman of Assembly and army! The one who consumes the land that is consumed by the ten senses described by you, whose action that brings you all pleasures is heard by force, in various ways conducive to the observance of the kingdom and the display of modesty, such fame and strength be it. You should make efforts along with him, because by this behaviour the people who carve a mark in the state with their deeds. Happiness increases fast in all the days, increase them.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    How can there be an increase in happiness and the attainment of various virtues in the kingdom by the royal persons? Same ritual should be done.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should Indra (The President of the Assembly) do is taught further in the eleventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly or the Commander of the Army), the earth that is enjoyed or protected by thee with 'ten senses (5 senses of perception, 5 senses of action). O possessor of the great wealth of knowledge, thy conquering might which causes happiness thy light of protection and humility and thy fame have waxed vast as heaven in majesty and power. Endeavour day and night, so that all people in thy kingdom may enjoy extensive happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) सभा सेनाध्यक्ष = The President of the Assembly and Commander of the Army. बर्हणा इति पदनाम ( निघ० ४.३) अनेन प्राप्त्यर्थो गृह्यते (बर्हणा) सर्वसुखप्रापिकया क्रियया = By action that brings about all happiness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers and workers of the State should also put forth their united efforts to increase happiness and virtues.

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