ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 14
न यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी अनु॒ व्यचो॒ न सिन्ध॑वो॒ रज॑सो॒ अन्त॑मान॒शुः। नोत स्ववृ॑ष्टिं॒ मदे॑ अस्य॒ युध्य॑त॒ एको॑ अ॒न्यच्च॑कृषे॒ विश्व॑मानु॒षक् ॥
स्वर सहित पद पाठन । यस्य॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अनु॑ । व्यचः॑ । न । सिन्ध॑वः । रज॑सः । अन्त॑म् । आ॒न॒शुः । न । उ॒त । स्वऽवृ॑ष्टिम् । मदे॑ । अ॒स्य॒ । युध्य॑तः । एकः॑ । अ॒न्यत् । च॒कृ॒षे॒ । विश्व॑म् । आ॒नु॒षक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न यस्य द्यावापृथिवी अनु व्यचो न सिन्धवो रजसो अन्तमानशुः। नोत स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यत एको अन्यच्चकृषे विश्वमानुषक् ॥
स्वर रहित पद पाठन। यस्य। द्यावापृथिवी इति। अनु। व्यचः। न। सिन्धवः। रजसः। अन्तम्। आनशुः। न। उत। स्वऽवृष्टिम्। मदे। अस्य। युध्यतः। एकः। अन्यत्। चकृषे। विश्वम्। आनुषक् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यस्य रजसः परमेश्वरस्याऽनुव्यचोऽनुगताया अनन्ताया व्याप्तेर्द्यावापृथिवी चन्द्रादयश्चान्तं नानशुः न व्याप्नुवन्ति नोतापि सिन्धवो व्याप्नुवन्ति। हे परमात्मँस्त्वं यथा स्ववृष्टिं प्रति मदे युध्यतो मेघस्य सूर्यस्याग्रे विजयो न भवति तथैकोऽसहायोऽद्वितीयः सन्नन्यद्विश्वमानुषक् चकृषे कृतवानसि तस्माद्भवानुपास्योऽस्ति ॥ १४ ॥
पदार्थः
(न) निषेधार्थे (यस्य) जगदीश्वरस्य परमविदुषः सूर्यस्य (वा) (द्यावापृथिवी) प्रकाशाप्रकाशयुक्तौ लोकसमूहौ (अनु) अनुयोगे (व्यचः) व्याप्तेः (न) प्रतिषेधे (सिन्धवः) समुद्राः (रजसः) रागविषयस्यैश्वर्यस्य लोकस्य वा (अन्तम्) सीमानम् (आनशुः) प्राप्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (न) निवारणे (उत) अपि (स्ववृष्टिम्) स्वकीयानां धनानामिव प्रेरितानां पदार्थानां शस्त्राणां जलानां वा वर्षणं प्रति (मदे) आनन्दे (अस्य) मेघस्य (युध्यतः) युद्धमाचरतः (एकः) असहायः (अन्यत्) द्वितीयं भिन्नम् (चकृषे) करोषि (विश्वम्) जगत् (आनुषक्) व्याप्त्यानुषक्तमुत्कृष्टगुणैरनुरक्तमाकर्षणेनानुयुक्तं वा ॥ १४ ॥
भावार्थः
यथा परमेश्वरस्य कस्यापि गुणस्य कोऽपि मनुष्यो लोकश्च पारं ग्रहीतुं न शक्नोत, यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यो दुःखफलदानेन पीडयन् दुष्टान् ताडयन् सूर्यो मेघावयवान् विदारयँश्च युद्धकारीव वर्त्तते, तथैव सज्जनैर्भवितव्यम् ॥ १४ ॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
(यस्य) जिस (रजसः) ऐश्वर्ययुक्त जगदीश्वर की (अनुव्यचः) अनन्तव्याप्ति के अनुकूल वर्त्तमान (द्यावापृथिवी) प्रकाश अप्रकाश युक्त लोक और चन्द्रमादि भी (अन्तम्) अन्त अर्थात् सीमा को (न) नहीं (आनशुः) प्राप्त होते हैं, हे परमात्मन् ! जैसे (स्ववृष्टिम्) अपने पदार्थों की रक्षा के प्रति (मदे) आनन्द में (युध्यतः) युद्ध करते हुए मेघ का सूर्य के सामने विजय नहीं होता, वैसे (एकः) सहायरहित अद्वितीय जगदीश्वर ने (अन्यत्) अपने से भिन्न द्वितीय (विश्वम्) जगत् को (आनुषक्) अपनी व्याप्ति से युक्त किया है, इससे आप उपासना के योग्य हैं ॥ १४ ॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर के किसी गुण की कोई मनुष्य वा कोई लोक सीमा को ग्रहण नहीं कर सकता और जैसे वह पापयुक्त कर्म करनेवाले मनुष्यों के लिये दुःखरूप फल देने से पीड़ा देता दुष्टों की ताड़ना करता और सूर्य मेघाऽवयवों को विदारण करता और युद्ध करनेवाले मनुष्य के समान वर्त्तता है, वैसे ही सब सज्जन मनुष्यों को वर्त्तना चाहिये ॥ १४ ॥
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे परमैश्वर्ययुक्तेश्वर! आप इन्द्र हो । हे मनुष्यो! 'जिस परमात्मा का अन्त - इतना यह है', न हो, उसकी व्याप्ति का परिच्छेद (इयत्ता) परिमाण कोई नहीं कर सकता तथा (द्यावा) अर्थात् सूर्यादिलोक– सर्वोपरि आकाश तथा (पृथिवी) मध्य = निकृष्टलोक - ये कोई उसके आदिअन्त को नहीं पाते, क्योंकि (अनुव्यचः) वह सबके बीच में अनुस्यूत (परिपूर्ण) हो रहा है तथा (न सिन्धवः) अन्तरिक्ष में जो दिव्य जल तथा (रजसः) सब लोक सो भी (न - अन्तम् आनशुः) उसका अन्त नहीं पा सकते (नोत स्ववृष्टिं मदे) वृष्टिप्रहार से (युध्यतः) युद्ध करता हुआ वृत्र (मेघ) तथा बिजली-गर्जन आदि भी (अस्य) ईश्वर का पार नहीं पा सकते। * हे परमात्मन्! आपका पार कौन पा सके, क्योंकि (एक:) एक अपने से भिन्न सहायरहित स्वसामर्थ्य से ही (विश्वम्) सब जगत् को (आनुषक्) आनुषक्त, अर्थात् उसमें व्याप्त होते और (चकृषे) [कृतवान्] आपने ही उत्पन्न किया है, फिर जगत् के पदार्थ आपका पार कैसे पा सकें तथा (अन्यत्) आप जगद्रूप कभी नहीं बनते, न अपने में से जगत् को रचते हो, किन्तु अपने अनन्त सामर्थ्य से ही जगत् का रचन, धारण और लय यथाकाल में करते हो, इससे आपका सहाय हम लोगों को सदैव है ॥ १५ ॥
टिपण्णी
जैसे कोई मद में मग्न होके रणभूमि में युद्ध करें, वैसे मेघ का भी दृष्टान्त जानना। - महर्षि
विषय
प्रभु की अनुकूलता में
पदार्थ
१. गतमन्त्र के स्तवन को करता हुआ ऋषि कहता है कि प्रभु वे हैं (यस्य) = जिनके (व्यचः) = विस्तार को (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक, अर्थात् सारा ब्रह्माण्ड भी (न अनु) = [आनशाते] नहीं व्याप्त कर सकता । उस प्रभु के (अन्तम्) = अवसान व समाप्ति को (रजसः) = इस अन्तरिक्षलोक के (सिन्धवः) = स्यन्दनशील [बहनेवाले] जल भी (न आनशुः) = नहीं प्राप्त कर सकते । २. (मदे) = आनन्द - प्राप्ति के निमित्त (युध्यते) = युद्ध करते हुए पुरुष के लिए (अस्य) = इस प्रभु की, इस प्रभु से की जानेवाली (स्ववृष्टिम्) = धन की वर्षा को (उत) = भी (न) = [आनशे] कोई व्याप्त नहीं कर पाता । वासनाओं से संग्राम करनेवाले पुरुष के लिए प्रभु की देन अनन्त हैं, प्रभु उसे किसी प्रकार की कमी अनुभव नहीं होने देते । ३. वे प्रभु (एकः) =अकेले ही (अन्यत्, विश्वम्) = शेष सब संसार को (आनुषक् चकृषे) = सम्बद्ध व अनुकूल कर देते हैं । वस्तुतः एक ओर प्रभु हैं, दूसरी ओर संसार ; जो प्रभु को अपनाता है प्रभु उसके लिए सम्पूर्ण संसार को भी अनुकूल कर देते हैं, परन्तु प्रभु की उपेक्षा करके संसार को अपनानेवाला उस संसार से ही कुचला जाता है । अर्जुन कृष्ण को लेकर विजयी होता है, दुर्योधन सारे सैन्य को लेकर भी पराजित हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की महिमा लोकत्रय से व्याप्त नहीं की जा सकती । हम प्रभु को अपनाते हैं तो प्रभु सारे संसार को हमारे अनुकूल कर देते हैं ।
विषय
वृष्टि विज्ञान ।
भावार्थ
( यस्य ) जिस परमेश्वर के ( अनु ) समस्त पदार्थों में तदनुरूप होकर सत्ता रूप से विद्यमान (व्यचः) व्यापन सामर्थ्य को (द्यावा पृथिवी ) सूर्य और पृथिवी, या आकाश और पृथिवी भी ( न ) अन्त नहीं पा सकते और (रजसः) उस रजस् स्वरूप, ऐश्वर्यवान्, लोक-विभूतिमय परमेश्वर के विस्तृत व्यापन या महान् स्वरूप का ( सिन्धवः ) प्राणगण, आकाश, समुद्र आदि भी ( अन्तम् न आनशुः ) अन्त नहीं पा सके। ( उत ) और ( युध्यतः ) वीर योद्धा के समान सबके साथ काल रूप से संग्राम करते हुए ( अस्य ) इसके ( मदे ) आनन्द राशि में इस की (स्ववृष्टिम् ) अपने ऐश्वर्यादि सुखों की वृष्टि का भी उपरोक्त पदार्थ पार नहीं पा सके । और वह ( एकः ) अकेला (आनुषक् ) सब में अनुरूप होकर, सूक्ष्म या व्यापक होकर (विश्वम् ) समस्त संसार को और ( विश्वम् ) जीव को (अन्यत्) अपने से भिन्न या जुदा (चकृषे) प्रकट करता या रखता है। इसी प्रकार (रजसः) प्रजानुरागी राजा के ( व्यचः ) विशेष महान् सामर्थ्य को न ( द्यावा पृथिवी ) राजा प्रजा वर्ग, या ज्ञानी अज्ञानी न ( सिन्धवः ) और न नदी समुद्र ही पार पाते हैं । युद्ध करते समय भी इसके ऐश्वर्य और शस्त्र वृष्टि के पार को शत्रु गण नहीं पा सकें । वह अकेला समस्त जगत् का शासन प्रेमपूर्वक, उनके (आनुषक्) अनुकूल, उनसे मिल कर करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह परमेश्वर कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यस्य रजसः परमेश्वरस्य अनुव्यचःअनुगताया अनन्ता या व्याप्तेः द्यावाः पृथिवी चन्द्र आदयः च अन्तं न आनशुः न व्याप्नुवन्ति न उत अपि सिन्धवः व्याप्नुवन्ति। हे परमात्मन् त्वं यथा स्ववृष्टिं प्रति मदे युध्यतः मेघस्य सूर्यस्य अग्रे विजयः न भवति तथा एकः असहायः अद्वितीयः सन् अन्यत् विश्वम् आनुषक् चकृषे कृतवान् असि तस्मात् भवान् उपास्यः अस्ति ॥ १४ ॥
पदार्थ
(यस्य) जगदीश्वरस्य परमविदुषः सूर्यस्य=परमेश्वर के परम विद्वान् सूर्य के, (रजसः) रागविषयस्यैश्वर्यस्य लोकस्य वा=राग सम्बन्धी ऐश्वर्य या लोक के, (परमेश्वरस्य)= परमेश्वर के, (अनु) अनुयोगे= मिलन में, (व्यचः) व्याप्तेः= व्याप्ति में, (अनुगताया)=अनुसरण करने में, (अनन्ता) = अनन्त, (या)=जो, (व्याप्तेः)= व्याप्तियां, (द्यावापृथिवी) प्रकाशाप्रकाशयुक्तौ लोकसमूहौ= प्रकाश और अप्रकाशवाले लोकों के समूह, (चन्द्र)= चन्द्रमा, (आदयः)= आदि, (च) =भी, (अन्तम्) सीमानम्= सीमा में, (न) निषेधार्थे =नहीं, (आनशुः) प्राप्नुवन्ति=पहुँचते हैं। (न) निवारणे=न, (सिन्धवः) समुद्राः= समुद्र, (उत) अपि=भी, (व्याप्नुवन्ति)= व्याप्त हो पाते हैं। हे (परमात्मन्)=परमेश्वर ! (त्वम्)=तुम, (यथा)=जैसे, (स्ववृष्टिम्) स्वकीयानां धनानामिव प्रेरितानां पदार्थानां शस्त्राणां जलानां वा वर्षणं प्रति=अपने धनों के द्वारा जैसे प्रेरित पदार्थों, शस्त्रों और जलों के बरसाने के, (प्रति)=प्रति, (मदे) आनन्दे= आनन्द में, (युध्यतः) युद्धमाचरतः= युद्ध का व्यवहार करते हुए, (मेघस्य)=बादल के, (सूर्यस्य)=सूर्य के, (अग्रे)=आगे, (विजयः)= विजय, (न)=नहीं, (भवति)=होती है, (तथा)=वैसे ही, (एकः) असहायः= असहाय और (अद्वितीयः)= अद्वितीय, (सन्)=होते हुए, (अन्यत्) द्वितीयं भिन्नम्= दूसरे भिन्न, (विश्वम्) जगत्= जगत् में, (आनुषक्) व्याप्त्यानुषक्तमुत्कृष्टगुणैरनुरक्तमाकर्षणेनानुयुक्तं वा= व्याप्त्य आनुषक्तम् उत्कृष्टगुणैः अनुरक्तम् आकर्षणेन अनुयुक्तं वा= उत्कृष्ट गुणों जुड़े हुए अथवा आकर्षण से निन्दित हुए, (चकृषे) करोषि=करते हो, या (कृतवान्)=कर चुके, (असि)=हो, (तस्मात्)=इसलिये, (भवान्)=आप, (उपास्यः)= पूजा किये जाने योग्य, (अस्ति) =हो॥ १४ ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जैसे परमेश्वर के किसी गुण से कोई भी मनुष्य कोई लोक के पार को ग्रहण नहीं कर सकता है और जैसे परमेश्वर पाप कर्म करनेवालों को दुःखरूप फल देने से पीड़ा देता है, दुष्टों की ताड़ना करता है और सूर्य बादल के अंगों का विदारण करता हुआ युद्ध करनेवाले मनुष्य के समान व्यवहार करता है, वैसे ही सब सज्जन मनुष्यों को होना चाहिये ॥१४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यस्य) परमेश्वर के परम विद्वान् सूर्य के, (रजसः) राग सम्बन्धी या ऐश्वर्य या लोक के (परमेश्वरस्य) परमेश्वर के (अनु) मिलन में अथवा (व्यचः) व्याप्ति में अथवा (अनुगताया) अनुसरण करने में, (या) जो (अनन्ता) अनन्त (व्याप्तेः) व्याप्तियां, (द्यावापृथिवी) प्रकाश और अप्रकाशवाले लोकों के समूह, (चन्द्र) चन्द्रमा (आदयः) आदि (च) भी (अन्तम्) दूर की सीमाओं में (न) नहीं (आनशुः) पहुँचते हैं। (न) न (सिन्धवः) समुद्र (उत) भी (व्याप्नुवन्ति) व्याप्त हो पाते हैं। हे (परमात्मन्) परमेश्वर ! (त्वम्) तुम (यथा) जैसे (स्ववृष्टिम्) अपने धनों के द्वारा जैसे प्रेरित पदार्थों, शस्त्रों और जलों के बरसाने के (प्रति) के संबंध में, (मदे) आनन्द में (युध्यतः) युद्ध में किये जानेवाले की जैसा व्यवहार करते हुए (मेघस्य) बादल के और (सूर्यस्य) सूर्य के (अग्रे) सामने (विजयः) विजय (न) नहीं (भवति) होती है, (तथा) वैसे ही तुम (एकः) असहाय और (अद्वितीयः) अद्वितीय (सन्) होते हुए, (अन्यत्) दूसरे भिन्न (विश्वम्) जगत् में (आनुषक्) उत्कृष्ट गुणों से जुड़े हुए अथवा आकर्षण से निन्दित हुए व्यवहार (चकृषे) करते हो या (कृतवान्) कर चुके (असि) हो, (तस्मात्) इसलिये (भवान्) आप (उपास्यः+अस्ति) पूजा किये जाने योग्य हो॥ १४ ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (न) निषेधार्थे (यस्य) जगदीश्वरस्य परमविदुषः सूर्यस्य (वा) (द्यावापृथिवी) प्रकाशाप्रकाशयुक्तौ लोकसमूहौ (अनु) अनुयोगे (व्यचः) व्याप्तेः (न) प्रतिषेधे (सिन्धवः) समुद्राः (रजसः) रागविषयस्यैश्वर्यस्य लोकस्य वा (अन्तम्) सीमानम् (आनशुः) प्राप्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (न) निवारणे (उत) अपि (स्ववृष्टिम्) स्वकीयानां धनानामिव प्रेरितानां पदार्थानां शस्त्राणां जलानां वा वर्षणं प्रति (मदे) आनन्दे (अस्य) मेघस्य (युध्यतः) युद्धमाचरतः (एकः) असहायः (अन्यत्) द्वितीयं भिन्नम् (चकृषे) करोषि (विश्वम्) जगत् (आनुषक्) व्याप्त्यानुषक्तमुत्कृष्टगुणैरनुरक्तमाकर्षणेनानुयुक्तं वा॥१४ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यस्य रजसः परमेश्वरस्याऽनुव्यचोऽनुगताया अनन्ताया व्याप्तेर्द्यावापृथिवी चन्द्रादयश्चान्तं नानशुः न व्याप्नुवन्ति नोतापि सिन्धवो व्याप्नुवन्ति। हे परमात्मँस्त्वं यथा स्ववृष्टिं प्रति मदे युध्यतो मेघस्य सूर्यस्याग्रे विजयो न भवति तथैकोऽसहायोऽद्वितीयः सन्नन्यद्विश्वमानुषक् चकृषे कृतवानसि तस्माद्भवानुपास्योऽस्ति ॥ १४ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा परमेश्वरस्य कस्यापि गुणस्य कोऽपि मनुष्यो लोकश्च पारं ग्रहीतुं न शक्नोत, यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यो दुःखफलदानेन पीडयन् दुष्टान् ताडयन् सूर्यो मेघावयवान् विदारयँश्च युद्धकारीव वर्त्तते, तथैव सज्जनैर्भवितव्यम् ॥१४॥
मराठी (2)
भावार्थ
जसे परमेश्वराच्या कोणत्याही गुणाची कोणताही माणूस व गोल बरोबरी करू शकत नाहीत. जसे जगदीश्वर पापयुक्त कर्म करणाऱ्या माणसांना दुःखरूपी फळ देतो, दुष्टांची ताडना करतो व सूर्य मेघावयवाचे विदारण करतो आणि युद्ध करणाऱ्या माणसांप्रमाणे वागतो तसेच सर्व सज्जन माणसांनी वागले पाहिजे. ॥ १४ ॥
विषय
स्तुती
व्याखान
हे परम ऐश्वर्यवान ईश्वरा ! तु इंद्र आहेस. हे माणसांनो ! तो ईश्वर अनंत आहे त्याच्या व्याप्तीचे परिमाण कोणी काढू शकत नाही. तसेच दिव अर्यात सूर्य इत्यादी लोक, संपूर्ण आकाश व पृथ्वीवरील निकृष्ट लोक हे त्याचा अंत पाहू शकत नाहीत. कारण (अनुव्यचः) तो सर्वामध्ये परिपूर्ण भरलेला आहे. व (न सिंधवः) अंतरिक्षातील दिव्य जल व सर्व लोकही त्याचा वेध घेऊ शकत नाहीत. (नोत स्ववृष्टिं मदे) वृष्टीचा मारा करून युद्ध करणारा वृत [मेघ] व विद्युतगर्जना इत्यादीही ईश्वराचा वेध घेऊ शकत नाहीत. तुझा थांग [पत्ता] कोणाला लागू शकेल बरे! कारण (एकः) तू एकट्याने [दसऱ्याच्या साह्याविना] स्वसामध्यनेच (विश्वम्) सर्व जगाला (आनुषक्) त्यात व्याप्त होऊन (चकृषे) [कृतवान] तूच उत्पन्न केलेले आहेस. मग जगातील पदार्थ तुझा अंत कसा णहू । शकतील? तसेच (अन्यत्) तू म्हणजे [केवळ] जगाचे रूप नव्हे किंवा तू स्वतः मधून जगाची उत्पत्तिही करीत नाहीस. परंतु यथावकाश आपल्या अनंत सामर्थ्यानेच जगाची रचना, धारणा व प्रलय करतोस म्हणून आम्हाला सदैव तुझे साह्य मिळत असते.॥१५॥
इंग्लिश (4)
Meaning
The heaven and earth approach not His infinite expanse. Nor do the oceans of waters and spaces find the end of His universe of glory. Nor can any one rival the power and passion of the generosity of this warrior against Vritra, the demon of darkness and drought, in matters of the joy of living. Nor has He Himself, sole Lord as He is, created any one else, or any other world, like Himself or like the world He has created.
Purport
O the Bounteous God Almighty! You are 'Indra'The master of all power and possessions. O men! 'God is so much', it cannot be said about Him! He is unfathomable and limitless, none can measure His pervasiveness. The sun and other planets, the highest heavens, the earth, the middle regions cannot reach extremes, because he is interwoven through all of them. The celestial divine waters and all the regions in the universe cannot know Your limit-end. Neither 'Vrtra'the roaring clouds fighting with the falling rain, nor the thundering lightening can reach the extreme limits of God.
O the Supreme Soul! who can find your limits, as you alone with your own Might, ht, without the help of anyone else, have pervaded and created the whole world, then how can worldly objects find your extremity. Moreover you never assume the form of the universe, nor you create the universe within your own-self. You by your unlimited Might create, sustain and at proper time dissolve it. This time h is the reason we have always and at all times your benign support.
Subject of the mantra
Then what is that God like, this subject has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yasya) God's supreme scholar Sun, (rajasaḥ)= related to passion or wealth or world, (parameśvarasya) =of God, (anu)= in union or, (vyacaḥ)= in pervading or (anugatāyā)=In following, (yā)=that, (anantā) =infinite, (vyāpteḥ) =pervasions, (dyāvāpṛthivī) =illuminated or non-illuminated groups of worlds, (candra) =moon, (ādayaḥ) et cetera, (ca) =also, (antam) =in boundaries afar, (na) =not, (ānaśuḥ) =arrive, (na) =not, (sindhavaḥ) =ocean, (uta) =also, (vyāpnuvanti) =can pervade, He=O! (paramātman) =God, (tvam) =you, (yathā) =like, (svavṛṣṭim) =through own wealth, such as by showering inspired materials, weapons and water, (prati)=with regard to, (made) =in pleasure, (yudhyataḥ) =behaving as in war, (meghasya) =of cloud and, (sūryasya) =of Sun, (agre) =in front of, (vijayaḥ) =victory, (na) =not, (bhavati) =is achieved, (tathā) =in the same way you, (ekaḥ)=helpless and, (advitīyaḥ)=unparalleled, (san) =being, (anyat) =others different, (viśvam) =in the universe, (ānuṣak)=behavior associated with excellent qualities or condemned by attractiveness, (cakṛṣe) =do or, (kṛtavān) =have got done, (asi) =are, (tasmāt) =therefore, (bhavān) =you, (upāsyaḥ+ asti) =are worthy of being worshipped.
English Translation (K.K.V.)
The ultimate scholar of the Supreme God, in meeting or following the Supreme God of the Sun, the one related to love or opulence or the Lord of the world, those who are infinite in existence, the group of worlds illuminated and non- illuminated, the moon etc. also do not reach in boundaries afar. Nor can even the oceans be spread. O God! Just as you, by means of your wealth, behaving in the same manner as you do in battle in joy, with regard to things inspired by your wealth, weapons and showers of water, there is no victory in front of the clouds and the Sun, in the same way, you behave or have behaved in a different world, being helpless and unique, associated with excellent qualities or being condemned by attraction, therefore you are worthy of being worshipped.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Just as no human being can cross the world by any of God's qualities, and just as God torments those who commit sinful acts by giving them painful results, chastises the wicked and the Sun breaks the limbs of the clouds and destroys those who fight wars. He behaves like a human being, that's how all decent human beings should be.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Truth contained in the Vedas.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, Possessing Supreme Might, Thou art the Master of all lower and high pelf. No one can measure the pervasiveness of Thy Being. The sun and other planets, the highest heavens the earth and even the smallest heavenly bodies among them intervening, cannot reach the extremity of Thy Being, for Thou art immanent in and between all things with the completeness of Thy Being. The waters accumulated in the atmospheric region by solar evaporation from where they fall down on the earth as rain and the whole world below, cannot reach the end of Thy Being. Not even the clouds attacking each other like warriors meeting in combat on the field of battle, their thundering and lightning, can reach the end of Thy pervasive Being. Thou solely, without any helper distinct from Thee, only by Thy might, makest the whole universe, being all along pervasive in it. Yet Thou art distinct from the Universe, never assuming its form. Therefore Thou art worthy of Adoration by us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As none can reach the end of any attribute of God, as God punishes the wicked by giving them suffering or as the sun cuts into pieces the cloud like a fighter, so should all righteous persons be. (They should be virtuous and just).
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिषयः
व्याखान
हे परमैश्वर्य युक्त ईश्वर ! तपाईं इन्द्र हुनुहुन्छ । हे मनुष्य ! परमात्मा को अन्त - यो एत्ति मात्र हो भन्ने होईन, उसको व्याप्तिको परिच्छेद [इयत्ता] परिमाण कसैले गर्न सक्दैन तथा द्यावा = अर्थात् सूर्यादिलोक - सर्वोपरि आकाश तथा पृथिवी = मध्य अर्थात् निकृष्टलोक ई कुनैले पनि उसको आदि - अन्तलाई पाउन सक्तैन, किनभने अनुव्यचः = ऊ सबैका बीच मा अनुस्यूत अर्थात् परिपूर्ण भइरहेको छ तथा न सिन्धवः = अन्तरिक्ष मा जुनदिव्य जल तथा रजसः=समस्त लोक हरु ले पनि न अन्तम् आनशुः=उसको अन्त पाउन सक्तैनन् नोत स्ववृष्टिं मदे = वृष्टि प्रहार ले युध्यतः- युद्ध गर्दै वृत्र [मेघ] तथा बिजुली गर्जन आदि ले पनि अस्य = ईश्वर को पार पाउन सक्तैनन् । हे परमात्मन् ! हजुरको अन्त कसले पाउन सक्छ र किनकि एक:= एक आफुभन्दा भिन्न सहायक बिना नै स्व सामर्थ्य ले विश्वम् = सम्पूर्ण जगत् लाई आनुषक- आनुषक्त, अर्थात् तेसमा व्याप्त हुनुहुन्छ र चकृषे= [कृतवान्] आफूले नै उत्पन्न गरेको छ, फेरि जगत् का पदार्थ ले तपाईंको अन्त कसरी पाउन सकनु तथा अन्यत्= तपाईं जगत्रूप पनि कहिल्यै बन्नु हुन्न, न आफु भित्रबाटै जगत्को रचना गर्नु हुन्छ, किन्तु आफ्नो अनन्त सामर्थ्यद्वारा नै जगत्को रचन, धारण र लय यथासमय मा गर्नु हुन्छ, एसले हजुरको सहायता हामीलाई सदैब छ ॥१५॥
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