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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यदयु॑क्था अरु॒षा रोहि॑ता॒ रथे॒ वात॑जूता वृष॒भस्ये॑व ते॒ रव॑:। आदि॑न्वसि व॒निनो॑ धू॒मके॑तु॒नाग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अयु॑क्थाः । अ॒रु॒षा । रोहि॑ता । रथे॑ । वात॑ऽजूता । वृ॒ष॒भस्य॑ऽइव । ते॒ । आत् । इ॒न्व॒सि॒ । व॒निनः॑ । धू॒मऽके॑तुना । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदयुक्था अरुषा रोहिता रथे वातजूता वृषभस्येव ते रव:। आदिन्वसि वनिनो धूमकेतुनाग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अयुक्थाः। अरुषा। रोहिता। रथे। वातऽजूता। वृषभस्यऽइव। ते। रवः। आत्। इन्वसि। वनिनः। धूमऽकेतुना। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ शिल्प्यग्निगुणा उपदिश्यन्ते ।

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् यतस्त्वं यद्यौ ते तवास्य वृषभस्येव वातजूता अरुषा रोहिताश्वौ रथे योक्तुमर्हौ स्तस्तावयुक्था योजयसि योजयति वा तज्जन्यो यो रवस्तेन सह वर्त्तमानेन धूमकेतुना रथेन सर्वान् व्यवहारानिन्वसि व्याप्नोषि व्याप्नोति वा तस्मादादथ वनिनस्तवास्य वा सख्ये वयं मा रिषाम ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (यत्) यौ (अयुक्थाः) योजयसि (अरुषा) अहिंसकावश्वौ (रोहिता) दृढबलादिगुणोपेतौ। अत्रोभयत्र द्विवचनस्याकारादेशः। (रथे) विमानादौ याने (वातजूता) वायुवद्वेगौ। अत्राप्याकारादेशः। (वृषभस्येव) यथा वोढुर्बलीवर्दस्य तथा (ते) तवैतस्य वा (रवः) ध्वनिः (आत्) अनन्तरे (इन्वसि) व्याप्नोषि व्याप्नोति वा (वनिनः) वनस्य संविभागस्य रश्मीनां वा प्रशस्तः सम्बन्धो विद्यते यस्य तस्य। अत्र सम्बन्धार्थ इतिः। (धूमकेतुना) धूमः केतुर्ध्वजावद्यस्मिन्रथे तेन (अग्ने) (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यस्माच्छिल्प्यग्निर्वा सर्वहितानि कार्याणि कर्त्तुं शक्नोति तस्माद्विमानादियानं संभावयितुं योग्योऽस्ति ॥ १० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब शिल्पी और भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) समस्त शिल्पव्यवहार के ज्ञान देनेवाले क्रियाचतुर विद्वन् ! जिस कारण आप (यत्) जो कि (ते) आपके वा इस अग्नि के (वृषभस्येव) पदार्थों के ले जानेहारे बलवान् बैल के समान वा (वातजूता) पवन के वेग के समान वेगयुक्त (अरुषा) सीधे स्वभाव (रोहिता) दृढ़ बल आदियुक्त घोड़े (रथे) विमान आदि यानों में जोड़ने के योग्य हैं, उनको (अयुक्थाः) जुड़वाते हैं वा यह भौतिक अग्नि जुड़वाता है, उस रथ से निकला जो (रवः) शब्द उसके साथ वर्त्तमान (धूमकेतुना) जिसमें धूम ही पताका है उस रथ से सब व्यवहारों को (इन्वसि) व्याप्त होते हो वा यह भौतिक अग्नि उक्त प्रकार से व्यवहारों को व्याप्त होता है, इससे (आत्) पीछे (वनिनः) जिनको अच्छे विभाग वा सूर्यकिरणों का सम्बन्ध है (तव) उन आपके वा जिस भौतिक अग्नि को किरणों का सम्बन्ध है उसके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) पीड़ित न हों ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जिससे शिल्पी और भौतिक अग्नि सर्वहित करनेवाले कामों को सिद्ध कर सकते हैं, उससे विमान आदि यानों की संभावना करने को योग्य हैं ॥ १० ॥

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    विषय

    आरोचमान वायुवेगवाले इन्द्रियाश्व

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (यत्) = जब आप (रथे) = हमारे इस शरीररूप रथ में (अरुषा) = आरोचमान, ज्ञानदीप्ति से चमकते हुए (रोहिता) = आरोहण व वृद्धि के कारणभूत (वातजूता) = वायु के समान वेगवाले इन्द्रियाश्वों को (अयुक्थाः) = जोतते हैं, उस समय (वृषभस्य इव) = वृषभ की भाँति (ते रवः) = आपकी ध्वनि होती है । प्रभु ने हमें शरीररूप रथ दिया है, इस शरीर - रथ में ज्ञानेन्द्रियाँ तो आरोचमान [अरुषा] अश्व के रूप में हैं और कर्मेन्द्रियाँ वायुवेगवाले [वातजूता] अश्व हैं । ये दोनों ही उन्नति के कारण हैं [रोहिता] । इस प्रकार का रथ होने पर हृदयस्थ रूपेण वे प्रभु ही इसे ठीक मार्ग पर ले - चलने के लिए प्रेरणा दे रहे हैं । एक शक्तिशाली वृषभ के शब्द के समान ऊँची उस प्रभु की गर्जना है, परन्तु यह हमारा दौर्भाग्य होता है कि हम उस गर्जना को अन्यत्र गई हुई चित्तवृत्ति के कारण सुन नहीं पाते । वे प्रभु तो उत्तम प्रेरणा के द्वारा हमपर सुखों का वर्षण कर ही रहे हैं [वृषभ - वर्षण करनेवाला] । २. इस प्रेरणा को जब भी कभी हम सुनते हैं, तब (आत्) = शीघ्र ही, उसके बाद हे प्रभो ! आप इन (वनिनः) = उपासकों को (धूमकेतुना) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले ज्ञान से (इन्वसि) = व्याप्त कर देते हो । प्रभु की प्रेरणा में वह ज्ञान है जो वासनाओं को दग्ध कर देता है । हे प्रभो ! इस प्रकार (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (वयम्) = हम (मा रिषाम) = हिंसित न हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभु ने हमारे शरीरों में आरोचमान, वायुवेगवाले, उन्नति के कारणभूत अश्व जोते हैं । हम इस शरीर - रथ पर बैठकर प्रभु - प्रेरणा को सुनें ताकि हमें वासनाओं को विदग्ध करनेवाला ज्ञान प्राप्त हो और हम आगे बढ़ें । 1.94.11

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    विषय

    अग्नि का भी वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि ( रथे ) वेग से चलने वाले यान या रथ में ( अरुषा रोहिता वातजूता अयुक्थाः ) दीप्ति से युक्त, दृड़, वायु के वेग से जाने वाले दो वेगदायक यन्त्रों को सञ्चालित करता है तब ( वृषभस्य इव रवः ) सांड के समान धुधकारने का सा शब्द होता है, ( वनिनः ) जल से युक्त अग्नि के ( धूमकेतुना ) धूम के से झण्डे से वह अग्नि युक्त होता है, इस प्रकार एंजिन द्वारा अग्नि-रथ चलता है। उसी प्रकार हे (अग्ने ) अग्रणी नायक ! जब तू ( रथे ) अपने रथ में ( अरुषा ) रोष रहित, सुस्वभाव, सुशील (रोहिता) हृष्ट पुष्ट अश्वों को ( अयुक्थाः ) जोड़ता है तब ( वनिनः ) वन अर्थात् सेनासमूह के स्वामी रूप से विद्यमान ( ते वृषभस्य इव रवः ) तुझ श्रेष्ठ पुरुष का वृषभ या बरसने वाले मेघ के समान शब्द, या वचन भी गंभीर गर्जना के तुल्य हो । (आत् इत् ) तभी तू ( धूमकेतुना ) शत्रुओं के हृदय में कंपकंपी पैदा कर देने वाले ध्वजा से युक्त होकर ( इन्वसि ) आगे बढ़े । (तव सख्ये वयं मा रि षाम) तेरे मित्रभाव में रह कर हम कभी पीड़ित न हों। इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. ज्यामुळे शिल्पी (कारागीर) व भौतिक अग्नी सर्व हितकारक काम सिद्ध करू शकतात त्याद्वारे विमान इत्यादी याने बनविण्याचे अनुमान काढता येते. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and nature’s power, when you yoke, employ and ignite the red and fiery power at the speed of wind for your chariot, your roar is like the thunder of clouds. You cover the forest trees with grey smoke and leave it behind like the trail of a shooting star. Agni, lord of knowledge, power and speed, may we never suffer any mishap or injury under your power and friendship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of an artisan and fire taught in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Agni (artisan or mechanic) when thou yokest the bright red horses, swift as the wind, to thy car, thy roar is like that of a bull. With that Chariot (of various kinds including an aeroplane) which has banner of the smoke of fire, thou accomplishest all thy works. Thou doest all works with a fixed time table punctually and making use of the rays of the sun etc. May we not suffer in thy friendship.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अरुषा) अहिंसकौ अश्वौ (रथं) विमानादौ याने = Non-violent or trained horses. (वनिनः) वनस्य संविभागस्य रश्मीनां वा प्रशस्तसम्बन्धोविद्यते यस्य । = One who does all works with a fixed time table or utilising rays of the sun etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Because an artisan or mechanic can accomplish many useful works with the proper use of fire (or electricity) he can manufacture vehicles like air craft also.

    Translator's Notes

    वनमिति रश्मिनाम (निघ० १ ) अरुष इत्यश्वनाम (निघ० ११४ ) रुष-हिंसायाम्

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