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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 14
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    तत्ते॑ भ॒द्रं यत्समि॑द्ध॒: स्वे दमे॒ सोमा॑हुतो॒ जर॑से मृळ॒यत्त॑मः। दधा॑सि॒ रत्नं॒ द्रवि॑णं च दा॒शुषेऽग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । ते॒ । भ॒द्रम् । यत् । सम्ऽइ॑द्धः । स्वे । दमे॑ । सोम॑ऽआहुतः । जर॑से । मृ॒ळ॒यत्ऽत॑मः । दधा॑सि । रत्न॑म् । द्रवि॑णम् । च॒ । दा॒शुषे॑ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्ते भद्रं यत्समिद्ध: स्वे दमे सोमाहुतो जरसे मृळयत्तमः। दधासि रत्नं द्रविणं च दाशुषेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। ते। भद्रम्। यत्। सम्ऽइद्धः। स्वे। दमे। सोमऽआहुतः। जरसे। मृळयत्ऽतमः। दधासि। रत्नम्। द्रविणम्। च। दाशुषे। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कीदृशाभ्यां सह सर्वैः प्रेमभावः कार्यं इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे अग्ने यद्यस्मात् स्वे दमे समिद्धः सोमाहुतोऽग्निरिव मृडयत्तमस्त्वं सर्वैर्विद्वद्भिर्जरसे दाशुषे रत्नं द्रविणञ्च विद्यादिशुभान् गुणान् दधासि। तदीदृशस्य ते तव भद्रं शीलं कदाचिद्वयं मा रिषाम तव सख्ये सुस्थिराश्च स्याम ॥ १४ ॥

    पदार्थः

    (तत्) तस्मात् (ते) तव (भद्रम्) कल्याणकारकं शीलम् (यत्) यस्मात् (समिद्धः) सुप्रकाशितः (स्वे) स्वकीये (दमे) दान्ते संसारे (सोमाहुतः) सोमैरैश्वर्य्यकारकैर्गुणैः पदार्थैर्वाऽहुतो वर्द्धितः सन् (जरसे) अर्च्यसे पूज्यसे। अत्र विकरणव्यत्ययेन कर्मणि यकः स्थाने शप्। जरत इत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। निघं० ३। १४। (मृडयत्तमः) अतिशयेन सुखयिता (दधासि) (रत्नम्) रमणीयम् (द्रविणम्) चक्रवर्त्तिराज्यादिसिद्धं धनम् (च) शुभानां गुणानां समुच्चये (दाशुषे) सुशीले वर्त्तमानं कुर्वते मनुष्याय (अग्ने) (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ १४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वेदसृष्टिक्रमप्रमाणैः सत्पुरुषस्येश्वरस्य विदुषो वा कर्मशीलं च धृत्वा सर्वैः प्राणिभिः सह मित्रतामाचर्य्य सर्वदा विद्याधर्मशिक्षोन्नतिः कार्य्या ॥ १४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कैसों के साथ सबको प्रेमभाव करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) समस्त विज्ञान देनेवाले ईश्वर वा विद्वन् ! (यत्) जिस कारण (स्वे) अपने (दमे) दमन किये हुए संसार में (समिद्धः) अच्छे प्रकार प्रकाशित (सोमाहुतः) और ऐश्वर्य्य करनेवाले गुण और पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त किये हुए अग्नि के समान (मृडयत्तमः) अत्यन्त सुख देनेहारे आप सब विद्वानों से (जरसे) अर्चन पूजन को प्राप्त होते हैं वा (दाशुषे) उत्तम शील के निमित्त अपना वर्त्ताव वर्त्तते हुए मनुष्य के लिये (रत्नम्) अति रमणीय (द्रविणम्) चक्रवर्त्ति राज्य आदि कामों से सिद्ध धन (च) और विद्या आदि अच्छे गुणों को (दधासि) धारण करते हैं (तत्) इस कारण ऐसे (ते) आपके (भद्रम्) सुख करनेवाले स्वभाव को (वयम्) हम लोग कभी (मा, रिषाम) मत भूलें किन्तु (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में अच्छे प्रकार स्थिर हों ॥ १४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि वेदप्रमाण और संसार के बार-बार होने न होने आदि व्यवहार के प्रमाण तथा सत्यपुरुषों के वाक्यों से वा ईश्वर और विद्वान् के काम वा स्वभाव को जी में धर सब प्राणियों के साथ मित्रता वर्त्तकर सब दिन विद्या, धर्म की शिक्षा की उन्नति करें ॥ १४ ॥

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    विषय

    रत्न व द्रविण

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (ते तत् भद्रम्) = आपकी यह बात हमारा अत्यन्त कल्याण करनेवाली है (यत्) = कि (स्वे दमे) = आपसे दिये हुए, आपके ही इस शरीर में (समिद्धः) = अत्यन्त प्रकाशमान (सोमाहुतः) = सोम के द्वारा आहुत हुए आप (मृळयत्तमः) = अत्यन्त सुख देनेवाले के रूप में (जरसे) = स्तुति किये जाते हो । सोमशक्ति के रक्षण से ही ज्ञानाग्नि की दीप्ति होकर प्रभु का दर्शन होता है । यही सोम के द्वारा प्रभु का आहुत होना है । प्रभु का शरीर में निवास होने पर किसी प्रकार का अकल्याण होने की सम्भावना नहीं रहती । २. हे प्रभो ! आप (दाशुषे) = अपना अर्पण करनेवाले के लिए (द्रविणम्) = शरीर - यात्रा के चलाने के लिए आवश्यक धन को (च) = और (रत्नम्) = सब रमणीय वस्तुओं को (दधासि) = धारण करते हैं । प्रभुभक्त को द्रविण व रत्नों की कमी नहीं रहती । हे (अग्ने) = परमात्मन् । (तब सख्ये) = आपकी मित्रता में (वयम्) = हम (मा रिषाम) = हिंसित न हों । प्रभु की मित्रता में किसी बात की कमी नहीं रहती, अतः वहाँ हिंसित होने का प्रश्न ही नहीं ।

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    विषय

    अग्नि का भी वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! राजन् ! ( ते ) तेरा ( तत् ) यही कार्य ( भद्रम् ) कल्याणकारक और प्रजा का सुखकारक है कि (यत्) जो तू ( सम्-इद्धः ) अच्छी प्रकार ज्ञानों और पराक्रमों युक्त सैन्य-बलों से तेजस्वी होकर ( स्वे दमे ) अपने गृह और इन्द्रिय दमन और राज्य-शासन में ही ( सोमाहुतः ) राज्यैश्वर्य और अन्नादि ओषधि रस से परिपुष्ट होकर और ( मृडयत्-तमः ) प्रजाओं को सबसे अधिक सुख देने वाला हो और ( जरसे ) स्तुति का पात्र बन । तू ( दाषुषे ) दानशील, कर आदि देने वाले प्रजाजन के हित और रक्षा के लिये (रत्नं) राज्य, उत्तम रत्न और ( द्रविणं च ) श्रेष्ठ ऐश्वर्य और ( रत्नं द्रविणं च ) आत्मा को रमण कराने वाला, आत्मज्ञान ( दधासि ) धारण कर । हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! पुरुष ! एवं नायक राजन् ! ( तव सख्ये ) तेरी मित्रता में रहते हुए ( वयम् मा रिषाम ) हम कभी पीड़ित न हों। परमेश्वर पक्षमें—हे प्रभो ( तत् तेभद्रम् ) वही तेरा सब से अधिक कल्याणजनक सुखकारी रूप है कि ( समिद्धः ) तेजस्वरूप है । ( स्वे दमे = स्वे मदे ) अपने अति आनन्दमय रूप में ( मुळयत्-तमः सोमाहुतः ) सब से अधिक आनन्दप्रद और ऐश्वर्यवान् होकर स्तुति किया जाता है। तू ही समस्त सुख और ऐश्वर्य को धारण करता है । तेरे प्रेम भाव में मग्न रह कर हम कभी पीड़ित न हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी वेद व सृष्टिक्रम प्रमाण व सत्पुरुषांचे वचन तसेच ईश्वराचे व विद्वानाचे कर्मशीलत्व लक्षात घेऊन सर्व प्राण्यांबरोबर मैत्रीचे वर्तन ठेवावे आणि विद्या व धर्मशिक्षणाचे कार्य वृद्धिंगत करावे. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and grace, it is the highest blessing of yours that, self-lighted and self-manifested in your own house, this house of existence of your own creation, worshipped with oblations of soma in yajna, you spontaneously become gracious to bless the admiring devotee and bestow jewels and wealths of the world upon the generous yajamana. Lord of generosity, we pray, we may never suffer any misery of poverty for the body, mind and soul under the control of your grace and friendship.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, This is Thy most auspicious and glorious nature that when kindled in Thy own abode (the world or the heart) and augmented with devotion commingled with knowledge, Thou art tke Giver of true delight and merciful. Thou bestowest charming wealth, wisdom and noble virtues on Thy worshippers of good Character. May we suffer no harm in Thy friendship. (2) The Mantra is also applicable to a great scholar who when praised and respected gives wealth of wisdom and noble advice to the persons devoted to him. His friendship should never be given up. This is the glorious and auspicious nature of a truly learned person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भद्रम्) कल्याणकारकं शीलम् = Auspicious and glorious nature. (सोमाहुतः) सोमैः ऐश्वर्यकारकर्गुणैः वा पदार्थैः आहुतः वर्धितः सन् | = God glorified by noble virtues and a learned man respected with good articles. (दाशुषे) सुशीले वर्तमानं कुर्वते मनुष्याय | = For a man of good character and conduct.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always advance the cause of knowledge, Dharma (righteousness) and education by imbibing the true nature of God and His devout Scholars through the Vedas, the laws working in the Universe and they should be friendly to all in their conduct.

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