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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श॒केम॑ त्वा स॒मिधं॑ सा॒धया॒ धिय॒स्त्वे दे॒वा ह॒विर॑द॒न्त्याहु॑तम्। त्वमा॑दि॒त्याँ आ व॑ह॒ तान्ह्यु१॒॑श्मस्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒केम॑ । त्वा॒ । स॒म्ऽइध॑म् । सा॒धय॑ । धियः॑ । त्वे॒ । दे॒वाः । ह॒विः । अ॒द॒न्ति॒ । आऽहु॑तम् । त्वम् । आ॒दि॒त्यान् । आ । व॒ह॒ । तान् । हि । उ॒श्मसि॑ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शकेम त्वा समिधं साधया धियस्त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम्। त्वमादित्याँ आ वह तान्ह्यु१श्मस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शकेम। त्वा। सम्ऽइधम्। साधय। धियः। त्वे। देवाः। हविः। अदन्ति। आऽहुतम्। त्वम्। आदित्यान्। आ। वह। तान्। हि। उश्मसि। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे अग्ने वयं त्वाऽऽश्रित्य समिधं कर्त्तुं शकेम त्वं नो धियः साधय त्वे सति देवा आहुतं हविरदन्त्यतस्त्वमादित्यानावह तान् हि वयमुश्मसीदृशस्य तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (शकेम) शक्नुयाम (त्वा) त्वाम् (समिधम्) सम्यगिध्यते यया तां क्रियाम् (साधय) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि वा (त्वे) त्वयि (देवाः) विद्वांसः (हविः) अत्तुमर्हमन्नम् (अदन्ति) भुञ्जते (आहुतम्) समन्तात्स्वीकृतम् (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (आदित्यान्) अष्टचत्वारिंशद्वर्षकृतब्रह्मचर्य्यान् (आ) (वह) प्राप्नुहि (तान्) (हि) खलु (उश्मसि) कामयेमहि। (अग्ने, सख्ये, मा, रिषाम, वयं, तव) इति पूर्ववत् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या विदुषां सङ्गमाश्रित्य विद्यामग्निकार्य्याणि च साद्धुं सहनशीलतां दधते ते प्रज्ञाक्रियावन्तो भूत्वा सुखिनो भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सब विद्याओं में प्रवीण सभाध्यक्ष ! (वयम्) हम लोग (त्वा) आपका आश्रय लेकर (समिधम्) जिससे अच्छे प्रकार प्रकाश होता है उस क्रिया को कर (शकेम) सकें, (त्वम्) आप हम लोगों की (धियः) बुद्धि वा कर्मों को (साधय) सिद्ध कीजिये, (त्वे) आपके होते (देवाः) विद्वान् लोग (आहुतम्) अच्छे प्रकार स्वीकार किये हुए (हविः) खाने के के योग्य अन्न का (अदन्ति) भोजन करते हैं, इससे आप (आदित्यान्) अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य को किये हुए ब्रह्मचारियों को (आ वह) प्राप्त कीजिये, (तान्) उनको (हि) ही हम लोग (उश्मसि) चाहते, हैं ऐसे (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में हम लोग (मा, रिषाम) दुःखी न हों ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्वानों के सङ्ग का आश्रय लेकर विद्या और अग्निकार्यों के सिद्ध करने के लिये सहनशीलता को धारण करते हैं, वे प्रबल विज्ञान और अनेक क्रियाओं से युक्त होकर सुखी होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रज्ञा व कर्म की सिद्धि

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्नणी प्रभो ! (त्वा) = आपको (समिधम्) = समिद्ध व दीप्त करने के लिए (शकेम) = हम समर्थ हों । ध्यानादि के द्वारा हृदय - मन्दिर में आपका दर्शन कर सकें । आप (धियः) = हमारे प्रज्ञानों व कर्मों को (साधय) = सिद्ध कीजिए । आपकी कृपा से हमें प्रज्ञा प्राप्त हो तथा हमारे यज्ञादि उत्तम कर्म सिद्ध हों । २. (देवाः) = देववृत्ति के लोग (त्वे) = आपमें ही निवास का प्रयत्न करते हैं, आपकी शरण में ही रहते हैं । ये देव (आहुतं हविः) = लोकहित के लिए जिसका दान किया गया है उस यज्ञावशिष्ट हवि को ही (अदन्ति) = खाते हैं, देकर बचे हुए यज्ञशेष का ही सेवन करते हैं । इस हवि के द्वारा ही तो वस्तुतः वे आपका पूजन करते हैं । ३. हे प्रभो ! इस प्रकार हमारी वृत्ति को उत्तम बनाने के लिए (त्वम्) = आप (आदित्यान्) = सब विद्याओं का ग्रहण करनेवाले उत्कृष्ट विद्वानों को (आवह) = हमें प्राप्त कराइए । हम (हि) = निश्चय से (तान्) = उनको (उश्मसि) = चाहते हैं । उन विद्वानों की संगति से ही तो हम प्रकाश प्राप्त करके, ठीक मार्ग पर चलते हुए आपके समीप पहुँचेंगे । ४. और हे अग्रणी प्रभो ! (वयम्) = हम (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में (मा रिषाम) = हिंसित न हों । आपकी मित्रता हमें असत् से सत् की ओर, तमस् से ज्योति की ओर और मृत्यु से अमरता की ओर ले जानेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम प्रभु को अपने में समिद्ध कर सकें । प्रभु ही हमें प्रज्ञा प्राप्त कराते हैं । विद्वानों के संग से हम प्रकाश प्राप्त करके प्रभु की मित्रता में पहुँचते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे विद्वानांच्या संगतीत राहून विद्या व अग्निकार्य सिद्ध करण्यासाठी सहनशीलता धारण करतात ते प्रबल विज्ञान व क्रियांनी युक्त होऊन सुखी होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light and knowledge, we pray, may we be able to kindle and develop the fire power of yajna. Pray refine our intelligence and bless us with success in our intellectual endeavours. Whatever we offer in yajna, the divinities receive and share. Bring over the scholars of the highest order of brilliance and realise the light of the stars on earth. We love them, honour and cherish them. Agni, we pray, may we never suffer any want or misery in your company.

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