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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 94 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वम॑ध्व॒र्युरु॒त होता॑सि पू॒र्व्यः प्र॑शा॒स्ता पोता॑ ज॒नुषा॑ पु॒रोहि॑तः। विश्वा॑ वि॒द्वाँ आर्त्वि॑ज्या धीर पुष्य॒स्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ध्व॒र्युः । उ॒त । होता॑ । अ॒सि॒ । पू॒र्व्यः । प्र॒ऽशा॒स्ता । पोता॑ । ज॒नुषा॑ । पु॒रःऽहि॑तः । विश्वा॑ । वि॒द्वान् । आर्त्वि॑ज्या । धी॒र॒ । पु॒ष्य॒सि॒ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमध्वर्युरुत होतासि पूर्व्यः प्रशास्ता पोता जनुषा पुरोहितः। विश्वा विद्वाँ आर्त्विज्या धीर पुष्यस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अध्वर्युः। उत। होता। असि। पूर्व्यः। प्रऽशास्ता। पोता। जनुषा। पुरःऽहितः। विश्वा। विद्वान्। आर्त्विज्या। धीर। पुष्यसि। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे धीराग्ने यतः पूर्व्योऽध्वर्युर्होता प्रशास्ता पोता पुरोहितो विद्वांस्त्वमस्युतापि जनुषा विश्वार्त्विज्या पुष्यसि तस्मात्तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अध्वर्युः) अध्वरस्य योजको नेता कामयिता वा। आत्राध्वरशब्दोपपदाद्युजधातोर्बाहुलकात् क्युः प्रत्ययष्टिलोपश्च। ‘अध्वर्युरध्वरयुरध्वरं युनक्त्यध्वरस्य नेताऽध्वरं कामयत इति वाऽपि बाधीयाने युरुपबन्धोऽध्वर इति यज्ञनाम ध्वर इति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधो निपात इत्येके’ निरु० १। ८। (उत) अपि (होता) दाता खल्वादाता (असि) (पूर्व्यः) पूर्वैः कृत इष्टः (प्रशास्ता) धर्मसुशिक्षोपदेशप्रचारकः (पोता) पवित्रः पवित्रकर्त्ता (जनुषा) जातेन जगता सह (पुरोहितः) हितप्रसाधकः (विश्वा) समग्राणि (विद्वान्) यो वेत्ति सः (आर्त्विज्या) ऋत्विजां गुणप्रकाशकानि कर्माणि (धीर) धारणादिगुणयुक्त (पुष्यसि) पोषयसि वा (अग्ने) (सख्ये०) (इति पूर्ववत्) ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि सर्वाधिष्ठात्रा जगदीश्वरेण विद्वद्भिर्वा विना जगतः पालनादीनि संभवन्ति तस्माज्जनैस्तस्याहर्निशमुपासनमेतेषां सङ्गं च कृत्वा सुखयितव्यम् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे ईश्वर और सभाध्यक्ष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (धीर) धारणा आदि गुणयुक्त (अग्ने) उत्तम ज्ञान देनेवाले परमेश्वर वा सभाध्यक्ष ! जिस कारण (पूर्व्यः) पिछले महाशयों के किये और चाहे हुए (अध्वर्युः) यज्ञ के यथोक्त व्यवहार से युक्त करने, वर्त्तने और चाहने (होता) देने-लेने (प्रशास्ता) धर्म, उत्तम शिक्षा और उपदेश का प्रचार करने (पोता) पवित्र और दूसरों को पवित्र करने (पुरोहितः) हित प्रसिद्ध करने और (विद्वान्) यथावत् जाननेहारे (त्वम्) आप (असि) हैं (उत) और (जनुषा) उत्पन्न हुए जगत् के साथ (विश्वा) समग्र (आर्त्विज्या) ऋत्विजों के गुणप्रकाशक कामों को (पुष्यसि) दृढ़ करते-कराते हैं, इससे (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) दुःखी कभी न होवें ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सबके अधिष्ठाता जगदीश्वर वा विद्वानों के विना जगत् के पालने आदि व्यवहारों के होने का संभव नहीं होता, इससे मनुष्यों को चाहिये कि दिन-रात ईश्वर की उपासना और इन विद्वानों का सङ्ग करके सुखी हों ॥ ६ ॥

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    विषय

    प्रशास्ता - पोता

    पदार्थ

    १. हे (धीर) = प्राज्ञ प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (अध्वर्युः) = सब यज्ञों के प्रणेता हैं । ऋत्विज् रूप में बैठा हुआ अध्वर्यु आपका निमित्तमात्र ही तो है । उसके माध्यम से वस्तुतः आप ही यज्ञ का प्रणयन कर रहे होते हैं । २. हे प्रभो ! (उत) = और आप ही (पूर्व्यः होता असि) = सृष्टि से पूर्व होनेवाले [हिरण्यगर्भः समवर्तत्ताग्रे] होता हैं । सब पदार्थों के देनेवाले आप ही हैं । यज्ञ में होता का कार्य आपकी शक्ति से ही होता है । ३. (प्रशास्ता) = आप ही सब ज्ञानों का उपदेश करनेवाले हैं और (पोता) = [पावयिता] ज्ञान देकर शोधन - कार्य को करनेवाले हैं । ४. आप (जनुषा) = इस सृष्टि के जन्म से ही (पुरोहितः) = 'पुरः' सबके सामने 'हितः' आदर्शरूप से विद्यमान हैं । जैसे पुत्र के सामने पिता होता है, पुत्र पिता से शिष्टाचार आदि सीखता है, उसी प्रकार प्रभु के मानस पुत्र प्रभु के गुणों से ही अपने गुणों को सीखने का प्रयत्न करते हैं । वर्तमान में भी उपासक अपने को प्रभु के अनुरूप बनाने का प्रयत्न करता है । ५. हे प्राज्ञ प्रभो ! (विद्वान्) = सर्वज्ञ आप ही (विश्वा आर्त्विज्या) = सब ऋत्विजों से साध्य कर्मों को (पुष्यसि) = पुष्ट करते हो । आपकी कृपा से ही सब यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं । इस प्रकार हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (तव सख्ये) = आपकी मित्रता में इन विविध यज्ञों को सिद्ध करते हुए (वयम्) = हम (मा रिषाम) = हिंसित न हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्रभु ही सब उत्तम कर्मों को सिद्ध करते हैं । प्रभु की मित्रता में यज्ञादि को सिद्ध करते हुए हम हिंसित न हों ।

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    विषय

    अग्नि का भी वर्णन ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! अध्यक्ष ! ( त्वम् ) तू ( अध्वर्युः ) अध्वर, अर्थात् हिंसा कर्म से रहित, प्रजाओं के परस्पर हिंसन, परिपीड़न आदि से रहित, प्रेम भाव से मिल कर रहने और प्रजापालन के कार्य का संयोजक, उसको चाहने वाला और शत्रु से कभी नष्ट या पराजित न होने वाले राष्ट्र का स्वामी है । ( उत ) और तू ( पूर्व्यः ) सबसे मुख्य ( होता ) सब अधिकारों और ऐश्वर्यों को स्वयं ग्रहण करने और अन्यों को वितरण करने हारा ( असि ) है । तू ही ( प्रशास्ता ) सबसे मुख्य शासक, एवं ज्ञानोपदेष्टा है । तू ( पोता ) राष्ट्र से कण्टकों, दुष्ट पुरुषों को दूर करके उसे स्वच्छ, पापाचरणों से रहित करने वाला, एवं सबको पवित्र करने वाला, पंक्तिपावन है। तू ( जनुषा ) जन्म से ही, स्वतः सिद्ध, स्वभावतः ( पुरोहितः) यज्ञ में ब्रह्मा के समान, रात्रि में दीपक के समान सबके आगे, मुख्य, अग्रणी पद पर स्थापित है । तू ( विश्वा आर्त्विज्या ) समस्त ऋत्विजों के यज्ञोपयोगी कार्यों को जानने वाले विद्वान् के समान समस्त ऋतु अर्थात् सभा के सदस्यों के सुसंगत करने तथा सभा आदि के नियमों को (विद्वान्) जानता हुआ, उनको हे ( धीर ) बुद्धिमान् ( पुष्यसि ) खूब पुष्ट, दृढ़ कर देता है । हे (अग्ने तव सख्ये वयं मा रिषाम) ज्ञानवन् ! नायक ! तेरे मित्रभाव में हम कभी पीड़ित न हों । (२) परमेश्वर समस्त यज्ञों का स्वामी होने से ‘अध्वर्यु’ है, सर्वश्रेष्ठ सुखों का दाता होने से ‘होता’, ज्ञानप्रद् होने से ‘प्रशास्ता’ हृदयपावन होने से ‘पोता’, सब का साक्षी होने से ‘पुरोहित’ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः॥ छन्दः–१, ४, ५, ७, ९, १० निचृज्जगती । १२, १३, १४ विराड् जगती । २, ३, १६ त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् । १५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्वांचा अधिष्ठाता जगदीश्वर किंवा विद्वान यांच्याशिवाय जगाचे पालन इत्यादी व्यवहार चालणे अशक्य आहे. त्यासाठी माणसांनी दिवस-रात्र ईश्वराची उपासना व विद्वानांची संगती करून सुखी व्हावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You are the high priest and the yajamana, ancient and eternal, of the yajna of creation. Teacher and ruler, sanctifier, invoked and worshipped since creation and manifestation, omniscient leading priest of creation, lord of universal knowledge, constant and imperishable, you nourish all. Lord, we pray, may we never suffer under your protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God the Sustainer of all, Thou art Adhvaryu the organizer of this Yajna (in the form of this Universe), Thou art Hota-Giver of happiness and accepter of our adoration. Thou art eternal Teacher and Preacher of Dharma (Righteousness and good education adored by all ancient sages. Thou art Pota-Purifier. Thou art Purohita or Benefactor of all with the Universe created by Thee. Thou knowest the duties of all priests and givest success. O Supreme Leader, therefore may we never suffer harm in Thy Friendship. The Mantra is applicable in the case of the learned priest also who should bring about the welfare of all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अध्वर्यु:) अध्वरस्य योजको नेता कामयमानो वा । अत्राध्वरशब्दोपपदाद् युज धातोर्बाहुलकात् क्यु: प्रत्ययष्टिलोपश्च अध्वर्युरध्वरयुरध्वरं युनक्ति अध्वरस्य नेता अध्वरं कामयते इति ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः (निरुक्ते १.८) = The organizer or leader of the Yajna (a non-violent noble act). (प्रशास्ता) धर्मसुशिक्षोपदेशप्रचारकः = Teacher and Preacher of Dharma and good education. (जनुषा) जातेन जगता सह = With the born world. (धीर) धारणादिगुणयुक्त = Upholder (पुरोहित:) हितप्रसधाकः = Benefactor.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Shleshlaukara or double entendre used in the Mantra. The world can not be sustained without God who is the Lord of all and without enlightened persons who show the right Path. Therefore all should enjoy happiness by having communion with God and by associating themselves with the wise.

    Translator's Notes

    This Mantra even with the faulty translation of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and Oldenburg, proves beyond the least shadow of a doubt that the Agni mentioned here is not the material fire but a conscious being-God or a learned priest. The epithets like धीर, विश्व आर्त्विज्यानि विद्वान् पुरोहितः, प्रशास्ता etc. make it quite clear. Shri Sayancharya translates धोर as प्राज्ञ, प्रशास्ता he explains as प्रकर्षण शास्ता सर्वेषां शिक्षकोऽसि = Supreme teacher of all. पुरोहित: पुरोहितो ब्रह्मा देवपुरोहितस्य बृहस्पते: प्रतिनिधित्वात् Following Sayanacharya Prof. Wilson translates "Thou art the director of the ceremonies, their performer or by birth the family priest, thus conversant with all the priestly functions. thou performest perfectly the rite. In his note on P. 309 Prof. Wilson says:- Agni;s here identified with the Chief of the sixteen priests engaged at sacrifice....or Purohita may be the same as the Brahma of a ceremony. Oldenburg translates the third line as "Knowing the duties of every priest thou givest success. O wise one." (Vedic Hymns Vol. II. P. 1. 8. 109). Is it applicable to material fire ? Griffith's translation of the Mantra is-Thou art presenter and the Chief-in maker, thou art director, Purifier, great High priest by birth. Knowing all priestly work that perfectest it Sage. Let us not in thy friendship Agni, suffer harm. Griffith quotes in his footnotes Prof. Wilson's note given above with great approval. (Hymns of the Rigveda by Griffith P. 122). Does all this not countenance the view of Rishi Dayananda Sarasvati, that by Agni in such Mantras is not meant material fire but God and a learned leader.

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