ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 94/ मन्त्र 7
यो वि॒श्वत॑: सु॒प्रती॑कः स॒दृङ्ङसि॑ दू॒रे चि॒त्सन्त॒ळिदि॒वाति॑ रोचसे। रात्र्या॑श्चि॒दन्धो॒ अति॑ देव पश्य॒स्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयः । वि॒श्वतः॑ । सु॒ऽप्रती॑कः । स॒ऽदृङ् । असि॑ । दू॒रे । चि॒त् । सन् । त॒ळित्ऽइ॑व । अति॑ । रो॒च॒से॒ । रात्र्याः॑ । चि॒त् । अन्धः॑ । अति॑ । दे॒व॒ । प॒श्य॒सि॒ । अग्ने॑ । स॒ख्ये । मा । रि॒षा॒म॒ । व॒यम् । तव॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो विश्वत: सुप्रतीकः सदृङ्ङसि दूरे चित्सन्तळिदिवाति रोचसे। रात्र्याश्चिदन्धो अति देव पश्यस्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥
स्वर रहित पद पाठयः। विश्वतः। सुऽप्रतीकः। सऽदृङ्। असि। दूरे। चित्। सन्। तळित्ऽइव। अति। रोचसे। रात्र्याः। चित्। अन्धः। अति। देव। पश्यसि। अग्ने। सख्ये। मा। रिषाम। वयम्। तव ॥ १.९४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 94; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सभाध्यक्षभौतिकाग्नी कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे देवाग्ने त्वं यथा यः सदृङ् सुप्रतीकोऽसि दूरे चित्सन् सूर्यरूपेण विश्वतस्तडिदिवाऽतिरोचसे येन विना रात्र्या मध्येऽन्धश्चिदिवातिपश्यसि तस्य तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ७ ॥
पदार्थः
(यः) सभापतिः शिल्पविद्यासाधको वा (विश्वतः) सर्वतः (सुप्रतीकः) सुष्ठुप्रतीतिकारकः (सदृङ्) समानदर्शनः (असि) (दूरे) (चित्) एव (सन्) (तडिदिव) यथा विद्युत्तथा (अति) (रोचसे) (रात्र्याः) (चित्) इव (अन्धः) नेत्रहीनः (अति) (देव) सत्यप्रकाशक (पश्यसि) (अग्ने) (सख्ये०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। दूरस्थोऽपि सभाध्यक्षो न्यायव्यवस्थाप्रकाशेन यथा विद्युत्सूर्यो वा स्वप्रकाशेन मूर्त्तद्रव्याणि प्रकाशयति तथा गुणहीनान् प्राणिनः प्रकाशयति तेन सह केन विदुषा मित्रता न कार्याऽपि तु सर्वैः कर्त्तव्येति ॥ ७ ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर सभाध्यक्ष और भौतिक अग्नि कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (देव) सत्य के प्रकाश करने और (अग्ने) समस्त ज्ञान देनेहारे सभाध्यक्ष ! जैसे (यः) जो (सदृङ्) एक से देखनेवाले (त्वम्) आप (सुप्रतीकः) उत्तम प्रतीति करानेहारे (असि) हैं वा मूर्त्तिमान् पदार्थों को प्रकाशित कराने (दूरे, चित्) दूर ही में (सन्) प्रकट होते हुए सूर्य्यरूप से जैसे (तडिदिव) बिजुली चमके वैसे (विश्वतः) सब ओर से (अति) अत्यन्त (रोचसे) रुचते हैं तथा भौतिक अग्नि सूर्य्यरूप से दूर ही में प्रकट होता हुआ अत्यन्त रुचता है कि जिसके विना (रात्र्याः) रात्रि के बीच (अन्धः, चित्) अन्धे ही के समान (अति, पश्यसि) अत्यन्त देखते-दिखलाते हैं, उस अग्नि के वा (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में (वयम्) हम लोग (मा, रिषाम) प्रीतिरहित कभी न हों ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार है। दूरस्थ भी सभाध्यक्ष न्यायव्यवस्थाप्रकाश से जैसे बिजुली वा सूर्य्य मूर्त्तिमान् पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे गुणहीन प्राणियों को अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है, उसके साथ वा उसमें किस विद्वान् को मित्रता न करनी चाहिये किन्तु सबको करना चाहिये ॥ ७ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जशी विद्युत किंवा सूर्य मूर्तिमान पदार्थांना प्रकाशित करतात, तसे दूर असलेला सभाध्यक्ष न्यायव्यवस्थेने गुणहीन प्राण्यांना व्यवस्थित ठेवतो. त्याच्या बरोबर कुणी विद्वानाने नव्हे तर सर्वांनी मैत्री करावी. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, you are the lord who are universally beatific of form and constant of eye. You may be far off, yet you awfully blaze like the explosion of lightning. Even in the darkness of the night you shine and see and reveal things for all. Lord of light and revelation, we pray, may we never suffer ignorance and misery but ever enjoy your company and friendship.
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