ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
अरो॑रवी॒द्वृष्णो॑ अस्य॒ वज्रोऽमा॑नुषं॒ यन्मानु॑षो नि॒जूर्वा॑त्। नि मा॒यिनो॑ दान॒वस्य॑ मा॒या अपा॑दयत्पपि॒वान्त्सु॒तस्य॑॥
स्वर सहित पद पाठअरो॑रवीत् । वृष्णः॑ । अ॒स्य॒ । वज्रः॑ । अमा॑नुषम् । यत् । मानु॑षः । नि॒ऽजूर्वा॑त् । नि । मा॒यिनः॑ । दा॒न॒वस्य॑ । मा॒याः । अपा॑दयत् । प॒पि॒ऽवान् । सु॒तस्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरोरवीद्वृष्णो अस्य वज्रोऽमानुषं यन्मानुषो निजूर्वात्। नि मायिनो दानवस्य माया अपादयत्पपिवान्त्सुतस्य॥
स्वर रहित पद पाठअरोरवीत्। वृष्णः। अस्य। वज्रः। अमानुषम्। यत्। मानुषः। निऽजूर्वात्। नि। मायिनः। दानवस्य। मायाः। अपादयत्। पपिऽवान्। सुतस्य॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यथाऽस्य वृष्णो वज्रोऽरोरवीदमानुषं मानुष इव यन्निजूर्वात्तथा यो मायिनो दानवस्य मायान्यपादयत् सुतस्य पपिवान् भवेत् स विजयतेतमाम् ॥१०॥
पदार्थः
(अरोरवीत्) भृशं शब्दयति (वृष्णः) वर्षकस्य (अस्य) सूर्यस्य (वज्रः) किरणनिपातः (अमानुषम्) मनुष्यसम्बन्धरहितम् (यत्) यम् (मानुषः) मनुष्यः (निजूर्वात्) हिंस्यात्। अत्र लुङ्यडभावः। बहुलमेतन्निदर्शनमिति हिंसार्थस्य जुर्वधातोर्ग्रहणम्। (नि) (मायिनः) कुत्सिता माया प्रज्ञा विद्यते यस्य सः (दानवस्य) दुष्टकर्मकर्त्तुः (मायाः) छलयुक्ताः (अपादयत्) विनाशयेत् (पपिवान्) पाता (सुतस्य) महौषधिनिष्पन्नस्य रसस्य ॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽन्तरिक्षे तडिच्छब्दा मेघं ज्ञापयन्ति तथा राजानो दुष्टाचरणैर्दुष्टान् प्रज्ञापयेयुः ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जैसे (अस्य,वृष्णः) इस वर्षा निमित्तक सूर्यमण्डल के (वज्रः) किरणों का जो निरन्तर गिरना (अरोरवीत्) वह बार-बार शब्द करता है और (अमानुषम्) मनुष्य सम्बन्धरहित पदार्थ को (मानुषः) मनुष्य जैसे वैसे (यत्) जिसको (निजूर्वात्) छिन्न-भिन्न करे वैसे जो (मायिनः) मायावी निन्दित बुद्धियुक्त (दानवस्य) दुष्ट कर्म करनेवाले की (मायाः) छलयुक्त बुद्धियों को (नि,अपादयत्) निरन्तर नष्ट करें और (सुतस्य) बड़ी-बड़ी ओषधियों के निकले हुए रस को (पपिवान्) पीनेवाला हो वह विजय को प्राप्त होता है ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्तरिक्ष में बिजुली के शब्द मेघ को जतलाते हैं, वैसे राजजन दुष्टाचरणों सें दुष्टजनों को सचेत करावें अर्थात् उनके छल-कपटों को जता देवें ॥१०॥
विषय
मानुष द्वारा अमानुष-वध
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जीवन को बनानेवाले (अस्य) = इस (वृष्णः) = शक्तिशाली इन्द्र का (वज्रः) = क्रियाशीलतारूप वज्र (अरोरवीत्) = ख़ूब ही शब्द करता है, अर्थात् यह इन्द्र क्रियाशील होता है और प्रभु के नामों का उच्चारण करता है - प्रभुस्मरणपूर्वक कर्म करता है। (यद्) = जब यह ऐसा करता है तो (मानुषः) = विचारपूर्वक कर्मों को करनेवाला यह व्यक्ति (अमानुषम्) = मनुष्यों के अहित करनेवाले इस काम को (निजूर्वात्) = हिंसित करता है। कामविध्वंस के लिए 'प्रभुस्मरणपूर्वक कर्म करना' ही उपाय है। २. यह इन्द्र सुतस्य पपिवान् उत्पन्न हुए सोम का [वीर्यशक्ति का] ख़ूब ही पान करनेवाला होता है और (मायिनः) = अत्यन्त मायामय (दानवस्य) = हमारा विनाश करनेवाले (दाप् लवने) काम की (माया:) = मायाओं को जादू को (नि अपादयत्) = पाँव तले कुचल देता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्मरण करें, कर्म में लगे रहें। सोमरक्षण करनेवाले हम काम के प्रभाव को कुचलनेवाले हों।
विषय
ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( वृष्णः वज्रः ) जिस प्रकार बरसते मेघ का विद्युत् वज्र ( अरोरवीत् ) घोर गर्जन करता है । और ( यत् ) मानो जिस प्रकार (अमानुषं) मनुष्य के बल से अधिक शक्तिशाली पशु को (मानुषः) मनुष्य ( निजूर्वीत् ) अपने बुद्धि के बल से मार डालता है और जिस प्रकार ( सुतस्य पपिवान् ) जल का पान करनेवाला वायु ( मायिनः ) घोर गर्जते ( दानवस्य ) दानशील मेघ की (मायाः) मायाओं, गर्जनाओं को (नि: अपादयत्) उत्पन्न करता है उसी प्रकार (अस्य) इस (वृष्णः) बलवान्, शस्त्रवर्षणकारी पुरुष का ( वज्रः ) शस्त्रास्त्रबल ( अरोरवीत् ) घोर गर्जन करे और ( यत् मानुषः ) जो मननशील ज्ञानवान् है वह ( अमानुषम् ) मनुष्य से अधिक, या उसले भिन्न पाशव बल को ( निजूर्वीत् ) विनाश करे । ( मायिनः ) दुष्टभाषण करनेवाले ( दानवस्य ) व्रतादि खण्डन करनेवाले कुटिल की ( मायाः ) समस्त मायाओं को वह ( सुतस्य ) ओषधिरस और अभिषेक द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य का ( पपिवान् ) पान एवं पालन करनेवाला वीर ( निः अपादयत् ) विनाश करे, नीचे गिरावे । इति चतुर्थो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अंतरिक्षातील विद्युतची गर्जना मेघांचे अस्तित्व जाणवून देते, तसे राजे लोकांनी दुष्टाचरणापासून दुष्ट लोकांना सचेत करावे, अर्थात त्यांचे छळ कपट त्यांना जाणवून द्यावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Awfully roars and resounds the thunderbolt of this mighty Indra, beyond human imagination. It is the tempestuous shower of solar energy which humanity should exploit. So does the ruler with the blaze of his power and justice crush the mischief and malevolent force of the underworld and enjoy the peace and pleasure of a noble social order, creating it for himself and the people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A ruler is told to observe certain norms in dealing with his subjects.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The way solar system or the sun gives delight to people by rains, but terrifies the wicked persons with its thunderbolt; similarly, a ruler and his colleagues should smash the evil minds of the persons who are rogues and wicked and divide the people on parochial lines. Such a ruler takes plenty to herbal juices and ultimately scores victory over them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The thunderbolt from the sky terrifies the wicked. The same way the government officers should caution and warn them of severe punishment in case of non-implementation of their orders.
Foot Notes
(अरोरवीत् ) भुश शब्दयति = Creates uproar or thunderbolt sound. (वृष्ण:) वर्षकस्य = Of the one who rains water or showers happiness. (वज्र:) किरणानिपातः = Thunderbolt. (अस्य ) सूर्यस्य = Of the sun or solar system. (अमानुषम् ) सम्बन्धरहितम् = Quite impersonal or in a detached way. (निजुर्वात्) हिंस्यात् । अत्र लुङयभावः-बहुलमेतत्रिदर्शनमिति हिंसार्थस्य | = May kill. (दानवस्य ) दुष्टकर्मकर्तु: = Of evil doers. (पपिवान् ) पाता = Protector. (सुतस्य) महौषधिनिष्पन्नस्य रसस्य = of the herbs juice.
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