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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 17
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    उ॒ग्रेष्विन्नु शू॑र मन्दसा॒नस्त्रिक॑द्रुकेषु पाहि॒ सोम॑मिन्द्र। प्र॒दोधु॑व॒च्छ्मश्रु॑षु प्रीणा॒नो या॒हि हरि॑भ्यां सु॒तस्य॑ पी॒तिम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रेषु॑ । इत् । नु । शू॒र॒ । म॒न्द॒सा॒नः । त्रिऽक॑द्रुकेषु । पा॒हि॒ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ऽदोधु॑वत् । श्मश्रु॑षु । प्री॒णा॒नः । या॒हि । हरि॑ऽभ्याम् । सु॒तस्य॑ । पी॒तिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रेष्विन्नु शूर मन्दसानस्त्रिकद्रुकेषु पाहि सोममिन्द्र। प्रदोधुवच्छ्मश्रुषु प्रीणानो याहि हरिभ्यां सुतस्य पीतिम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रेषु। इत्। नु। शूर। मन्दसानः। त्रिऽकद्रुकेषु। पाहि। सोमम्। इन्द्र। प्रऽदोधुवत्। श्मश्रुषु। प्रीणानः। याहि। हरिऽभ्याम्। सुतस्य। पीतिम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 17
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शूरेन्द्र त्वं त्रिकद्रुकेषु सोमं पाह्युग्रेष्विन्मन्दसानः प्रदोधुवच्छ्मश्रुषु प्रीणानो हरिभ्यां सुतस्य पीतिं नु याहि ॥१७॥

    पदार्थः

    (उग्रेषु) तेजस्विषु (इत्) एव (नु) सद्यः (शूर) दुष्टानां हिंसक (मन्दसानः) कामयमानः (त्रिकद्रुकेषु) त्रीणि कद्रुकाणि शरीरात्ममनःपीडनानि येषु तेषु व्यवहारेषु (पाहि) (सोमम्) महौषधिगणम् (इन्द्र) वैद्यकविद्यावित् (प्रदोधुवत्) प्रकृष्टतया कम्पयन् (श्मश्रुषु) चिबुकादिषु (प्रीणानः) तर्पयन् (याहि) गच्छ (हरिभ्याम्) सुशिक्षिताभ्यामश्वाभ्याम् (सुतस्य) निष्पन्नस्य (पीतिम्) पानम् ॥१७॥

    भावार्थः

    यदि मनुष्याः प्रगल्भैर्जनैस्सह संयुञ्जते तर्हि शत्रून् कम्पयन्तो महौषधिरसं पिबन्ति सुशिक्षितैरश्वैर्युक्तेन रथेनेव सद्यः सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥१७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (शूर) दुष्टों की हिंसा करने और (इन्द्र) वैद्य विद्या जाननेवाले ! आप (त्रिकद्रुकेषु) जिन व्यवहारों में तीन अर्थात् शरीर, आत्मा और मन की पीड़ा विद्यमान उनके निमित्त (सोमम्) महान् ओषधियों के समूह की (पाहि) रक्षा करो और (उग्रेषु) तेजस्वी प्रबल प्रतापवालों में (इत्) ही (मन्दसानः) कामना और (प्रदोधुवत्) उत्तमता से कम्पन अर्थात् नाना प्रकार की चेष्टा करते और (श्मश्रुषु) चिबुकादिक अङ्गों में (प्रीणानः) तृप्ति पाते हुए (हरिभ्याम्) अच्छे शिक्षित घोड़ों से (सुतस्य) निकले हुए ओषधियों के रस के (पीतिम्) पीने को (याहि) प्राप्त होओ ॥१७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य प्रबल बुद्धिजनों के साथ अच्छे प्रकार कार्यों का प्रयोग करते हैं तो शत्रुओं को कंपाते ओर बड़ी-बड़ी ओषधियों के रस को पीवते हुए अच्छे सिखाये हुए घोड़ों से युक्त रथ से जैसे वैसे शीघ्र सुखों को प्राप्त होते हैं ॥१७॥

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    विषय

    तीन अनड्वान काल

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले पुरुष ! तू (उग्रेषु) = तेरे जीवन को तेजस्वी बनानेवाले (त्रिकद्रुकेषु) = 'बाल्य यौवन व वार्धक्य' इन तीनों जीवन के कालों में-होनेवाले प्रभु के आह्वानों में (इत् नु) = निश्चय से (मन्दसान:) = आनन्द का अनुभव करता हुआ (सोमं पाहि) = सोम का रक्षण कर। सदा प्रभु का स्मरण कर और वासनाओं से आक्रान्त न हुआ हुआ तू सोम का रक्षण कर । २. प्रभु - स्मरण के द्वारा (श्मश्रुषु) = [श्मनि तिं] शरीरस्थ इन्द्रियों मन व बुद्धि में लिप्त मल को (प्रदोधुवत् पुनः पुनः) = कम्पित करके दूर करता हुआ (प्रीणानः) = प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ (सुतस्य पीतिम्) = उत्पन्न सोम के रक्षण के उद्देश्य से (हरिभ्यां याहि) = अपने ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों से गतिवाला हो । इन्द्रियों का मल 'काम' है, मन का 'क्रोध' तथा बुद्धि का 'लोभ'। इन मलों का दूर रहना नितान्त आवश्यक है। इसके दूर होने पर ही प्रसन्नता का अनुभव होता है। गतिशील बने रहने से ही इनके दूर होना सम्भव है और इनके दूर होने पर ही सोम का शरीर में रक्षण होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सदा प्रभुस्मरण करें। यह स्मरण हमारे इन्द्रिय मन व बुद्धि के मलों को दूर करेगा और हम सोम का शरीर में रक्षण कर पाएँगे।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) शूरवीर पुरुष ! तू ( उग्रेषु ) तेजस्वी वीर पुरुषों के बीच ( मन्दसानः ) अति प्रसन्न होता हुआ ( त्रिकद्रुकेषु ) तीनों प्रकार के कष्टों में, तीनों लोकों में सूर्य के समान ( सोमं ) ऐश्वर्य का ओषधिरस के समान पान या उपभोग कर । हे विद्वन् ! आचार्य ! तू ( उग्रेषु ) तीव्र बुद्धि वाले शिष्यों पर ( मन्दसानः ) प्रसन्न होकर (त्रिकद्रुकेषु) शरीर, आत्मा और मन तीनों की तपस्याओं, वा तेजस्विता, वेदवाणी, और दीर्घ आयु इन तीनों के प्राप्त करने के लिये ( सोमं पाहि ) वीर्य की रक्षा कर, अथवा ( सोमं पाहि ) ‘सोम’ अर्थात् विद्या के इच्छुक शिष्य की रक्षा कर हे शूरवीर ! तू ( श्मश्रुषु ) शरीर में स्थित बालों के समान अपने शरीर पर आश्रित जनों के अधीन या उनपर ( प्रीणान: ) अति प्रसन्न होकर उनके ही बल पर अपने शत्रुओं को ( प्र दोध्रुवत् ) खूब अच्छी प्रकार कंपा, भयभीत कर। और ( हरिभ्यां ) अश्वों के द्वारा ( सुतस्य ) ऐश्वर्य या राष्ट्र की अपने पुत्र के समान ( पीतिम् ) पालना कर और अन्नरस के समान भोग को ( याहि ) प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे प्रबळ बुद्धिमान लोकांबरोबर चांगल्या प्रकारे कार्य करतात, ती शत्रूंना कंपित करतात व प्रशिक्षित घोडे जसे रथाला जुंपले जातात तसे महाऔषधींचे रस प्राशन करून सुख मिळवितात. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of light and life of life, destroyer of pain and suffering, harbinger of the soma-joy of living, bright, blazing and rejoicing among the brilliant geniuses of the world, collect, create and fill soma in the three-fold vessels of our body, mind and soul. Move by the circuitous rays of the sun for a drink of the spirituous ecstasy of life and, happy at heart, vibrate in every cell through every pore of the body.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Benefits in the company of scholars are detailed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scholar ! you are brave in killing the wicked and know the science of medicine and surgery thoroughly. Whatever ailments exist in the body, soul and mind, you treat and prevent them with your wonderful medicines. Seated on quick transport and equipped with effective drugs and medicines, you cure all the ailments discovered in chins and other parts of body. (Here for quick transport the simile of horse power is mentioned-Ed.).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those staying in the company of very intelligent persons and act according to their advice, they frighten and tremble their foes, quickly bring herbal juices, delight and cure such people.

    Foot Notes

    (त्रिकद्र केषु ) त्रीणि कद्रुकाणि शरीरात्ममनः पीडनानि येषु तेषु व्यवहारेषु । = Three kinds of ailments in body, soul and mind. (इन्द्र) वैद्यक विद्यावित् । = One who knows science of medicines. (प्रदोधुवत)प्रकृष्टतया कम्पयन् । = Extensively frightening or trembling. (श्मश्रुषु ) चिबुकादिषु | = In the parts of body like chins. (हरिभ्याम् ) सुशिक्षिताभ्यामश्वाभ्याम् । = With well trained two horses.

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