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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    गुहा॑ हि॒तं गुह्यं॑ गू॒ळ्हम॒प्स्वपी॑वृतं मा॒यिनं॑ क्षि॒यन्त॑म्। उ॒तो अ॒पो द्यां त॑स्त॒भ्वांस॒मह॒न्नहिं॑ शूर वी॒र्ये॑ण॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गुहा॑ । हि॒तम् । गुह्य॑म् । गू॒ळ्हम् । अ॒प्सु । अपि॑ऽवृतम् । मा॒यिन॑म् । क्षि॒यन्त॑म् । उ॒तो इति॑ । अ॒पः । द्याम् । त॒स्त॒भ्वांस॑म् । अह॑न् । अहि॑म् । शू॒र॒ । वी॒र्ये॑ण ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गुहा हितं गुह्यं गूळ्हमप्स्वपीवृतं मायिनं क्षियन्तम्। उतो अपो द्यां तस्तभ्वांसमहन्नहिं शूर वीर्येण॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गुहा। हितम्। गुह्यम्। गूळ्हम्। अप्सु। अपिऽवृतम्। मायिनम्। क्षियन्तम्। उतो इति। अपः। द्याम्। तस्तभ्वांसम्। अहन्। अहिम्। शूर। वीर्येण॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शूर यथाऽप्स्वपीवृतं गूढमप उतो द्यां तस्तभ्वांसमहिं सूर्योऽहँस्तथा वीर्य्येण गुहा हितं गुह्यं क्षियन्तं मायिनं हन्याः ॥५॥

    पदार्थः

    (गुहा) गुहायाम् (हितम्) धृतम् (गुह्यम्) गोप्तुं योग्यम् (गूढम्) गुप्तम् (अप्सु) जलेषु (अपीवृतम्) आच्छादितम् (मायिनम्) मायाविनम् (क्षियन्तम्) निवसन्तम् (उतो) अपि (अपः) जलानि (द्याम्) प्रकाशम् (तस्तभ्वांसम्) स्तम्भितवन्तम् (अहन्) हन्ति (अहिम्) मेघम् (शूर) निर्भय (वीर्येण) पराक्रमेण ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्योऽन्तरिक्षस्थमप्सु शयानं मेघं हत्वा सर्वाः प्रजाः पुष्णाति तथा राजा कपटे वर्त्तमानमधर्मिणं शत्रुं भित्त्वा प्रजाः सुखयेत् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (शूर) निर्भय राजन् ! जैसे (अप्सु) जलों में (अपीवृतम्) ढपे हुए (गूढम्) गुप्त पदार्थ को (अपः) और जलों को (उतो) तथा (द्याम्) प्रकाश को (तस्तभ्वांसम्) रोके हुए (अहिम्) मेघ को सूर्यमण्डल (अहन्) हनता है वैसे (वीर्येण) पराक्रम से (गुहा) गुप्तस्थान में (हितम्) धरे अर्थात् हित (गुह्यम्) गुप्त करने योग्य (क्षियन्तम्) निरन्तर वसते हुए (मायिनम्) मायावी शत्रुजन को मारो ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अन्तरिक्षस्थ जलों में सोते हुए मेघ को हन के सब प्रजा को पुष्ट करता है। वैसे राजा कपट के बीच वर्त्तमान अधर्मी शत्रुजन को छिन्न-भिन्न कर प्रजा को सुखी करे ॥५॥

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    विषय

    अहि हनन

    पदार्थ

    १. (गुहाहितम्) = हृदय रूप गुहा में स्थापित हुए-हुए [मनसि-ज], (गुह्यम्) = अत्यन्त रहस्यमय (गूढम्) = छुपे रहनेवाले, (अप्सु अपीवृतम्) = [आप: रेतः] रेत:कणों के विषय में आच्छादन बने हुए अथवा रेतः कणों को आक्रान्त कर अपने अधीन कर लेनेवाले, (मायिनम्) = अत्यन्त मायावी,(क्षियन्तम्) = हम को क्षीण करते हुए (अहिम्) = हमारे नाशक इस वासनारूप शत्रु को हे (शूर) = शत्रुनाशक प्रभो ! शक्ति से (अहन्) = आप ही नष्ट करते हैं । २. उस वासनारूप शत्रु को नष्ट करते हैं जो कि निश्चय से (अपः उत द्यां तस्तभ्वांसम्) = [स्तम्भ् stupefy, paralyse, benumb] हमारे ज्ञानों को मूर्छित व समाप्त कर देता है। काम के आक्रमण होने पर सब क्रियाशीलता व ज्ञान नष्ट हो जाता है। ३. यह कामरूप शत्रु छिपकर हमारे अन्दर निवास कर रहा है, अत्यन्त मायावी माया करनेवाला है। हमारी शक्तियों को नष्ट करता है। हमारे कर्मों व ज्ञानों को समाप्त करता है। निश्चित ही इसका विनाश होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्य का सर्वमहान् शत्रु काम है। प्रभु ही इसको नष्ट करते हैं ।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् ( वीर्येण ) अपने बल से ( गुहाहितम् अन्तरिक्ष में स्थित, ( गुह्यं ) छुपने में कुशल, ( अप्सु गूढं ) जलों में छुपे ( द्यां तस्तभ्वांसम् ) आकाश को घेरने वाले, ( अहिं ) मेघ को ( अहन् ) छिन्न भिन्न करता है। उसी प्रकार हे ( शूर ) निर्भय वीर ! तू ( वीर्येण ) अपने बल पराक्रम से ( गुहा हितम् ) गुहा अर्थात् छुपने के स्थान में स्थित, ( गुह्यं ) अपने को छिपा लेने में कुशल ( गूढ़म् ) गुप्त और ( अप्सु अपीवृतं ) प्रजाओं के बीच ढके ( मायिनं ) मायावी ( उत अपः क्षियन्तं ) और प्रजाओं को ही क्षीण करते हुए या ( अपः क्षियन्तं ) प्रजाओं में घर किये हुए ( द्यां तस्तभ्वांस ) प्रकाश युक्त प्रजा के ज्ञानी, दानशील और व्यवहारशील भाग को स्तम्भित अर्थात् विघ्नों से कार्य करने में असमर्थ बनाने वाले ( अहिं ) अवश्य हन्तव्य, दण्डनीय शत्रु को ( अहन् ) विनाश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य अंतरिक्षातील जलामध्ये निद्रिस्त असलेल्या मेघांचे हनन करून सर्व प्रजेला पुष्ट करतो तसे राजाने कपटी, अधर्मी शत्रूजनांना नष्ट करून प्रजेला सुखी करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, brilliant and fearless ruling power of the world, just as the sun breaks up the demoniac cloud which holds up the vapours of water and overcasts the light of heaven, so with your valour and blazing splendour break up and destroy the covert, mysterious, artful and manipulative social enemies living in the midst of the people but hidden deep in the recesses of society under the surface of national waters, paralysing the flow of national dynamics of development and progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Statecrafts or art of ruling is explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O brave ruler ! the way sun creates waters and dispels the darkness with its shine, with the similar plans the rulers should search hideouts of the criminals and enemies and should smash them at various stages because they are wicked.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The ruler imparts strength to all subjects like the sun who brings down the water from dormant clouds. The same way, a king or ruler should smash the enemies of the State who are sinful and thus should delight their subjects.

    Foot Notes

    (गुहा) गुहायाम् = In the hideouts. ( गुह्यम्) गोप्तुं योग्यम् । = Secret or hidden. ( मायिनम्) मायाविनम् । = To wicked. (तस्तभ्वांसस्) स्तम्भितवन्तम् = Blocked or stopped. (अपीवृतम् ) आच्छादितम् । = Covered or shrouded.

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