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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    नि पर्व॑तः सा॒द्यप्र॑युच्छ॒न्त्सं मा॒तृभि॑र्वावशा॒नो अ॑क्रान्। दू॒रे पा॒रे वाणीं॑ व॒र्धय॑न्त॒ इन्द्रे॑षितां ध॒मनिं॑ पप्रथ॒न्नि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । पर्व॑तः । सा॒दि॒ । अप्र॑ऽयुच्छन् । सम् । मा॒तृऽभिः॑ । वा॒व॒शा॒नः । अ॒क्रा॒न् । दू॒रे । पा॒रे । वाणी॑म् । व॒र्धय॑न्तः । इन्द्र॑ऽइषिताम् । ध॒मनि॑म् । प॒प्र॒थ॒न् । नि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि पर्वतः साद्यप्रयुच्छन्त्सं मातृभिर्वावशानो अक्रान्। दूरे पारे वाणीं वर्धयन्त इन्द्रेषितां धमनिं पप्रथन्नि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। पर्वतः। सादि। अप्रऽयुच्छन्। सम्। मातृऽभिः। वावशानः। अक्रान्। दूरे। पारे। वाणीम्। वर्धयन्तः। इन्द्रऽइषिताम्। धमनिम्। पप्रथन्। नि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यो मातृभिर्वावशानोऽप्रयुच्छन् पर्वतइव विद्वद्भिः संसादि तेन सह ये दोषान्दूरे कृर्वन्तो वाणीं पारे वर्द्धयन्तोऽन्यान् विदुषो न्यक्रांस्त इन्द्रेषितां धमनिं नि पप्रथन् ॥८॥

    पदार्थः

    (नि) नितराम् (पर्वतः) मेघ इव (सादि) सम्पादते (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् (सम्) (मातृभिः) मान्यकर्त्रीभिः (वावशानः) कामयमानः (अक्रान्) कुर्वन्ति (दूरे) विप्रकृष्टदेशे (पारे) समुद्रभूमिपरभागे (वाणीम्) सुशिक्षितां वाचम् (वर्द्धयन्तः) (इन्द्रेषिताम्) इन्द्रेण परमेश्वरेण प्रेषिताम् (धमनिम्) वेदवाणीम्। धमनिरिति वाङ्ना० निघं०१। ११ (पप्रथन्) (विस्तारयेयुः) (नि) नित्यम् ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यान् सन्तानान् मातरः सुशिक्षया विद्यया प्रमादरहितान् कृत्वा वर्द्धयन्ति ते सुखानि प्राप्य सर्वतो वर्द्धन्ते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (मातृभिः) मान करनेवाली माता आदि से (वावशानः) कामना किया जाता और (अप्रयुच्छन्) प्रमाद न करता हुआ (पर्वतः) मेघ के समान विद्वानों ने (सम्,सादि) अच्छे प्रकार सिद्ध किया उसके साथ जो दोषों को (दूरे) दूर करते हुए (वाणीम्) सुन्दर शिक्षायुक्त वाणी को (पारे) समुद्र की भूमियों के परभाग में (वर्द्धयन्तः) बढ़ाते हुए औरों को विद्वान् (अक्रान्) करते हैं वे (इन्द्रेषिताम्) परमेश्वर की भेजी हुई वेदवाणी का (नि,पप्रथन्) निरन्तर विस्तार करें ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिन सन्तानों को माता उत्तम शिक्षा और विद्या से प्रमादरहित कर बढ़ाती हैं, वे सुखों को प्राप्त होकर सब ओर से बढ़ते हैं ॥८॥

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    विषय

    वाणी-वर्धन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जीवन बनाने पर (पर्वतः) = मेरुपर्वत-शरीरस्थ मेरुदण्ड (अप्रयुच्छन्) = सब प्रकार की शक्तियों को शरीर में सुरक्षित करता हुआ [अत्र विवासयन्] (निसादि) = निश्चय से स्वस्थान में स्थित होता है। उस समय यह पुरुष (मातृभिः) = जीवन का निर्माण करनेवाली इन वेदवाणियों के साथ (संवावशान:) = ख़ूब शब्द करता हुआ- प्रभु के नामों का उच्चारण करता हुआ (अक्रान्) = गति करता है- कर्मशील होता है । वेदवाणियों से प्रभु का स्तवन करता है- तदनुसार ही कर्म करता है। २. 'राय: समुद्राँश्चतुरः' इस मन्त्रभाग के अनुसार वेदज्ञान समुद्र है। इसका यह सिरा 'अपरा विद्या' है तो परला सिरा 'परा विद्या' है। उस (दूरे पारे) = सुदूर परले सिरे तक (वाणीं वर्धयन्तः) = वाणी को बढ़ाते हुए अर्थात् अपरा विद्या से प्रारम्भ करके पराविद्या तक ज्ञानवर्धन करते हुए (इन्द्र इषिताम्) = प्रभु से सृष्टि के प्रारम्भ में प्रेरित की गई (धमनिम्) = [ध्मा= शब्दे= इस शब्दमयी वेदवाणी को (निपप्रथन्) = निश्चय से अपने में विस्तृत करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर की शक्तियों को शरीर में सुरक्षित करने से-ज्ञान का चरम सीमा तक वर्धन होता है।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( पर्वतः ) मेघ ( नि सादि ) आकाश में ठहरता है । और ( मातृभिः ) शब्द करनेवाली गर्जती हुई विजुलियों से ( वावशानः ) शब्द करता हुआ ( अक्रान् ) जाता है । और कृषकगण ( दूरे पारे वाणीं वर्धयन्तः ) दूर दूर तक वाणी बोलते हुए ( इन्द्रेषितां धमनिं ) इन्द्र-मेध या विद्युत् की गर्जना को ( नि पप्रथन् ) और विस्तृत करते हैं । उसी प्रकार ( पर्वतः ) पर्वत के समान अचल और मेघ के समान शत्रुओं पर और अपनी प्रजाओं पर शरों और ऐश्वर्य, सुखों की वर्षा करनेहारा तथा ( पर्वतः ) पालन करने के साधनों से सम्पन्न पुरुष सदा ( अप्रयुच्छन् ) अप्रमादी रहता हुआ ( नि सादि ) निरन्तर उच्च आसन पर बैठे। वह ( मातृभिः ) उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों से और माता के समान पालन पोषण करनेवाली प्रजाओं और घोर गर्जन करनेवाले तोप आदि साधनों से ( वावशानः ) राष्ट्र को निरन्तर वश करता हुआ ( सम् अक्रान् ) एक साथ अच्छी प्रकार आक्रमण करे । ( दूरे पारे ) बहुत दूर दूर तक ( वाणीं वर्धयन्तः ) वेद वाणी की वृद्धि करते हुए विद्वान् पुरुष ( इन्द्रेषिताम् ) परमेश्वर, गुरु की प्रेरित, उपदिष्ट वेदशास्त्र या राजा से प्रोक्त वाणी आज्ञा को ( नि पप्रथन् ) निरन्तर विस्तृत करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या संतानांना माता उत्तम शिक्षणाने व विद्येने प्रमादरहित करून वाढविते ते सुखी होऊन पूर्णतः वाढतात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let Indra, ruler of the world, sit and reign settled as a mountain, showering as a cloud, shining with heaven and earth, revered and loved by mothers of the land, his voice resounding as thunder, his rule measured and assessed by intelligent experts who, raising the holy voice higher and farther beyond the seas may universalise the divine voice of omniscience revealed by Indra, lord omnipotent ruler of the universe.

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