ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 12
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वे इ॒न्द्राप्य॑भूम॒ विप्रा॒ धियं॑ वनेम ऋत॒या सप॑न्तः। अ॒व॒स्यवो॑ धीमहि॒ प्रश॑स्तिं स॒द्यस्ते॑ रा॒यो दा॒वने॑ स्याम॥
स्वर सहित पद पाठत्वे इति॑ । इ॒न्द्र॒ । अपि॑ । अ॒भू॒म॒ । विप्राः॑ । धिय॑म् । व॒ने॒म॒ । ऋ॒त॒ऽया । सप॑न्तः । अ॒व॒स्यवः॑ । धी॒म॒हि॒ । प्रऽश॑स्तिम् । स॒द्यः । ते॒ । रा॒यः । दा॒वने॑ । स्या॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे इन्द्राप्यभूम विप्रा धियं वनेम ऋतया सपन्तः। अवस्यवो धीमहि प्रशस्तिं सद्यस्ते रायो दावने स्याम॥
स्वर रहित पद पाठत्वे इति। इन्द्र। अपि। अभूम। विप्राः। धियम्। वनेम। ऋतऽया। सपन्तः। अवस्यवः। धीमहि। प्रऽशस्तिम्। सद्यः। ते। रायः। दावने। स्याम॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनर्वैद्यविद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वे वयं विश अप्यभूम तया सपन्तो धियं च वनेमावस्यवो वयं प्रशस्तिं धीमहि ते रायो दावने सद्यः स्याम ॥१२॥
पदार्थः
(त्वे) त्वयि (इन्द्र) रोगविदारक (अपि) (अभूम) भवेम (विप्राः) मेधाविनः (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (वनेम) (सम्भजेम) (तया) सत्यविज्ञानयुक्तया (सपन्तः) दुष्टानाक्रोशन्तः (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षणमिच्छवः (धीमहि) धरेम (प्रशस्तिम्) प्रशंसाम् (सद्यः) (ते) तुभ्यम् (रायः) विद्याधनस्य (दावने) दात्रे (स्याम) भवेम ॥१२॥
भावार्थः
मनुष्यैर्तंभरया प्रज्ञया ओषधिविद्यां विदित्वैता ओषधीः संसेव्य पुरुषार्थं कृत्वा श्रीर्धर्त्तव्या ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब वैद्य विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) रोग विदीर्ण करनेवाले वैद्य विद्वान् जन ! (त्वे) आपके समीप में हम लोग भी (विप्राः) मेधावी (अभूम) हों और (तया) सत्य विज्ञानयुक्त बुद्धि क्रिया से (सपन्तः) दुष्टों को अच्छे प्रकार कोशते हुए (धियम्) बुद्धि वा कर्म को (वनेम) अच्छे प्रकार सेवें तथा (अवस्यवः) अपने को रक्षा चाहते हुए हम लोग (प्रशस्तिम्) प्रशंसा को (धीमहि) धारण करें वा पुष्ट करें और (ते) आप जो (रायः) विद्याधन के (दावने) देनेवाले हैं, उनके लिये (सद्यः) शीघ्र प्रसिद्ध होवें ॥१२॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सत्य विज्ञानयुक्त बुद्धि से ओषधिविद्या को जान इन ओषधियों का सेवन कर पुरुषार्थ बढ़ा लक्ष्मी का सञ्चय करें ॥१२॥
विषय
प्रभु के गुणों का स्मरण व धारण त्
पदार्थ
१. हे इन्द्र हमारी सब वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो! हम (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले होते हुए (त्वे अपि अभूम) = तेरे में ही निवास करनेवाले हों। आपसे हम कभी दूर न हों, आपकी उपासना से ही वस्तुतः हम अपना पूरण कर पाएँगे । २. (ऋतया) = ऋत को अपनाने के द्वारा (सपन्तः) = आपका उपासन करते हुए हम (धियम्) = प्रज्ञापूर्वक कर्मों को (वनेम) = सेवन करें। ऋत को अपनाने से हम आपका पूजन करते हैं उससे हमारे कर्म प्रज्ञापूर्वक होते हैं । ३. (अवस्यवः) = वासनारूप शत्रुओं के आक्रमण से अपने रक्षण की कामनावाले हम (प्रशस्तिं धीमहि) = आपके प्रशस्त गुणों का ध्यान व धारण करते हैं। आपकी दयालुता का स्मरण करते हुए हम भी दयालु बनने का प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार आपके गुणों का धारण करनेवाले हम (सद्यः) = शीघ्र ही (ते रायः) = आपकी इन सम्पत्तियों के दावने स्याम देने में तत्पर हों, आपसे दिये गये धनों का लोकहित में व्यय करनेवाले बनें। 'धनों का विनियोग दान है न कि भोग' ऐसा समझकर व्यवहार करें।
भावार्थ
भावार्थ-ऋत के पालन से प्रभुपूजन होता है। प्रभु के गुणों का स्मरण व धारण करते हुए हम धनों का सदा दान करें ।
विषय
ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! विद्यावन् ! प्रभो ! ( त्वे ) तेरे अधीन रहकर हम ( विप्राः ) विविधविद्या और धनों को पूर्ण करनेवाले विद्वान् मेधावीजन ( ऋतया सपन्तः ) सत्य वाणी से सम्बद्ध, एक भाव होते हुए ( अभूम ) रहें । ( धियं ) उत्तम कर्म और ज्ञान का ( वनेम ) सेवन और आचरण करें । ( अवस्यवः ) ज्ञान रक्षा और उत्तम आनन्द लाभ की इच्छा करते हुए हम ( ते प्रशस्तिम् ) तेरी उत्तम स्तुति को धारण करें और तेरे उत्तम शासन को बनाये रखें । ( ते दावने ) तेरे दान की वृद्धि के लिये हम प्रजाजन ( सद्यः ) शीघ्र ही ( ते रायः ) तेरे ऐश्वर्य रूप ( स्याम ) हों । ( २ ) विद्वान् परमेश्वर में रहकर उसका ध्यान घरें । ( ऋतया ) वेदवाणी से उसका भजन करें । रक्षार्थी, शरणार्थी होकर उसकी ( प्रशस्ति ) उत्तम स्तुति करें, उसके दिये ऐश्वर्य दान में सन्तुष्ट रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सत्य विज्ञानयुक्त बुद्धीने औषधी विद्या जाणून या औषधींचे सेवन करावे व पुरुषार्थ वाढवून लक्ष्मीचा संचय करावा. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light and power, mighty and gracious ruler of the world, may we too abide by you, cultivate our intellect and intelligence, dedicating our mind to truth and the laws of truth, nature and humanity, and thereby become noble scholars and learned professionals. Thus searching for self-protection and working for social progress, may we earn appreciation and praise for ourselves and our work, and may we speedily contribute to the honour, prosperity and glory of a generous ruler like you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the Vaidyas are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Vaidya (Doctor in medicine and surgery)! under your guidance let us become intelligent and active with true science, so that we do noble deeds and punish the wicked very well. We are desirous of our welfare and therefore repeatedly offer our admirations to you in order to get wealth and wisdom. Your fame may expand among the rich donors.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
By having noble sciences and truthful mind, we should seek knowledge of medicines and drugs from the Vaidyas. By their proper intake, we become active and earn wealth.
Foot Notes
(इन्द्र) रोगविदारक = One who treats the diseases — Vaidya. (विप्राः) मेधाविनः = Intelligent or brilliant. (ऋतया) सत्यविज्ञानयुक्तया = Equipped with truthful sciences. (सपन्तः) दुष्टानाक्रोशत: = Punishing the wicked. (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षणमिच्छवः = Seekers of self-protection.
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