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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    शु॒भ्रं नु ते॒ शुष्मं॑ व॒र्धय॑न्तः शु॒भ्रं वज्रं॑ बा॒ह्वोर्दधा॑नाः। शु॒भ्रस्त्वमि॑न्द्र वावृधा॒नो अ॒स्मे दासी॒र्विशः॒ सूर्ये॑ण सह्याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒भ्रम् । नु । ते॒ । शुष्म॑म् । व॒र्धय॑न्तः । शु॒भ्रम् । वज्र॑म् । बा॒ह्वोः । दधा॑नाः । शु॒भ्रः । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । व॒वृ॒धा॒नः । अ॒स्मे इति॑ । दासीः॑ । विशः॑ । सूर्ये॑ण । स॒ह्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुभ्रं नु ते शुष्मं वर्धयन्तः शुभ्रं वज्रं बाह्वोर्दधानाः। शुभ्रस्त्वमिन्द्र वावृधानो अस्मे दासीर्विशः सूर्येण सह्याः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुभ्रम्। नु। ते। शुष्मम्। वर्धयन्तः। शुभ्रम्। वज्रम्। बाह्वोः। दधानाः। शुभ्रः। त्वम्। इन्द्र। ववृधानः। अस्मे इति। दासीः। विशः। सूर्येण। सह्याः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र सभेश ववृधानः शुभ्रस्त्वमस्मे दासीर्विशः सूर्येण सह्या दीप्तय इव सम्पादय यस्य ते शुभ्रं शुष्मन्नु वर्द्धयन्तो बाह्वोः शुभ्रं वज्रं दधाना भृत्याः सन्ति तैस्सर्वतः प्रजा वर्द्धय ॥४॥

    पदार्थः

    (शुभ्रम्) भास्वरम् (नु) सद्यः (ते) तव (शुष्मम्) बलम् (वर्द्धयन्तः) उन्नयन्तः (शुभ्रम्) स्वच्छम् (वज्रम्) शस्त्रसमूहम् (बाह्वोः) करयोः (दधानाः) (शुभ्रः) शुद्धः (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (ववृधानः) वर्द्धमानः (अस्मे) अस्माकम् (दासीः) सेविकाः (विशः) प्रजाः (सूर्येण) (सह्याः) सोढुं योग्याः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सततं राज्यं वर्द्धयितुं क्षमाः शस्त्रास्त्रप्रक्षेपकुशलाः प्रधानान् पुरुषानुन्नयन्ति ते सद्यः प्राधान्यं प्राप्नुवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्रः) परमऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले सभापति ! (ववृधानः) बढ़े हुए (शुभ्रः) शुद्ध (त्वम्) आप (अस्मे) हमारी (दासीः) सेवा करनेवाली (विशः) प्रजा (सूर्येण) सूर्यमण्डल के साथ (सह्याः) सहने योग्य दीप्तियों के समान सम्पन्न करो। जिन (ते) आपका (शुभ्रम्) दीप्तिमान् (शुष्मम्) बल (नु) शीघ्र (वर्द्धयन्तः) बढ़ाते हुए अर्थात् उन्नत करते हुए (बाह्वोः) भुजाओं में (शुभ्रम्) स्वच्छ निर्मल (वज्रम्) शस्त्रसमूह को (दधानाः) धारण किये हुए भृत्य हैं, उनके सब ओर से प्रजा की वृद्धि करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो निरन्तर राज्य के बढ़ाने को समर्थ और शस्त्र तथा अस्त्र चलाने में कुशल प्रधान पुरुषों को उन्नति देते हैं, वे शीघ्र प्राधान्य को प्राप्त होते हैं ॥४॥

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    विषय

    'शुभ्र शुष्म' तथा 'शुभ्र वज्र'

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! हम (ते) = आपके दिये हुए (शुभ्रं शुष्मम्) = उज्ज्वल शत्रुशोषक बल को (वर्धयन्तः) = बढ़ाते हुए हों। हम (बाह्वोः) = अपनी भुजाओं में (शुभ्रं वज्रम्) = उज्ज्वल क्रियाशीलतारूप वज्र को (दधाना:) = धारण करते हुए हों। इस क्रियाशीलता द्वारा ही तो वस्तुतः शक्ति का रक्षण होना है। २. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (शुभ्रः) = उज्ज्वल होते हुए (वावृधानः) = सदा बढ़े हुए हैं। आप (अस्मे) = हमारे लिए (दासी:) = हमारा उपक्षय करनेवाली (विश:) = हमारे न चाहते हुए भी हमारे अन्दर घुस आनेवाली कामक्रोधादि वासनाओं को सूर्येण ज्ञानसूर्य के द्वारा (सह्या:) = कुचल दीजिए। आपकी कृपा से हम इन वासनाओं को ज्ञानसूर्य के उदय से नष्ट कर सकें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम शुभ्र शुष्म का वर्धन करें। क्रियाशील बनें। प्रभु हमारी वासनाओं के अन्धकार को ज्ञानरूप सूर्य से विनष्ट करें ।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ते ) तेरे ( शुभ्रम् ) अति तेजस्वी, चमचमाते ( शुष्मं ) बल को ( वर्धयन्तः ) बढ़ाते हुए और ( बाह्वोः ) बाहुओं में ( शुभ्रं ) शुभ्र, चमचमाते ( वज्रं ) शस्त्र समूह को ( दधानाः ) धारण करने वाला शूरवीर पुरुष तुझे प्राप्त हो । और तू उनसे ( शुभ्रः ) अति तेजस्वी सूर्य के समान ( वर्धमानः ) बढ़ता हुआ ( अस्मे ) हमारी ( विशः ) प्रजाओं को ( दासीः ) नाश करने वाली शत्रु सेनाओं को ( सूर्येण ) सूर्य के समान संतापदायी नायक द्वारा ( सह्याः ) पराजित कर । अथवा ( अस्मै विशः दासीः च सह्याः कुरु ) हमारी प्रजाओं और सेविका भृत्याओं को भी ( सह्याः ) शत्रु बल को पराजित करने योग्य बना ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सतत राज्य वाढविण्यास समर्थ असतात, शस्त्र-अस्त्र चालविण्यात कुशल असून प्रमुख पुरुषांचे उन्नयन करतात त्यांना ताबडतोब प्राधान्य मिळते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruling lord of humanity, exalting your brilliant power and prosperity, holding radiant thunderbolts in their hands, our people, workers, producers, administrators, warriors and teachers deserve your bounty. Lord of spotless and incorruptible virtue ever rising in power and majesty, raise their courage, valour and lustre by the light and splendour of the sun.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of Indra are defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly (Indra) ! you are great and are beyond the pale of corruption. You make our subjects tolerant like the solar system. Your service class shining, happy and of strong arms should be in spotless uniform with their weapons. Thus they grow under your directions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    For the progress of their State, the rulers or the king should provide all facilities to their subjects including the use of weapons and fire-arms. They should prosper quickly.

    Translator's Notes

    (शुभ्रम् ) भास्वरम् | = Shining because of being beyond the pale of corruption. (वञ्चम् ) शस्त्रसमूहम् = The stocks of arms and weapons. (वाह्वोः) करयोः = Of the two arms. (दासी:) (विश:) सेविकाः प्रजाः । = Serving subjects or the public servants.

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