ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 18
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
धि॒ष्वा शवः॑ शूर॒ येन॑ वृ॒त्रम॒वाभि॑न॒द्दानु॑मौर्णवा॒भम्। अपा॑वृणो॒र्ज्योति॒रार्या॑य॒ नि स॑व्य॒तः सा॑दि॒ दस्यु॑रिन्द्र॥
स्वर सहित पद पाठधि॒ष्व । शवः॑ । शू॒र॒ । येन॑ । वृ॒त्रम् । अ॒व॒ऽअभि॑नत् । दानु॑म् । औ॒र्ण॒ऽवा॒भम् । अप॑ । अ॒वृ॒णोः॒ । ज्योतिः॑ । आर्या॑य । नि । स॒व्य॒तः । सा॒दि॒ । दस्युः॑ । इ॒न्द्र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धिष्वा शवः शूर येन वृत्रमवाभिनद्दानुमौर्णवाभम्। अपावृणोर्ज्योतिरार्याय नि सव्यतः सादि दस्युरिन्द्र॥
स्वर रहित पद पाठधिष्व। शवः। शूर। येन। वृत्रम्। अवऽअभिनत्। दानुम्। और्णऽवाभम्। अप। अवृणोः। ज्योतिः। आर्याय। नि। सव्यतः। सादि। दस्युः। इन्द्र॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 18
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सेनापतिगुणानाह।
अन्वयः
हे शूरेन्द्र त्वं येन शवो धिष्व तेन यथा सूर्यो दानुं वृत्रमौर्णवाभमिवावाऽभिनत्सव्यतो ज्योतिः कृत्वा तमो न्यपावृणोस्तथाऽऽर्याय साधुर्भव। यो दस्युरस्ति तं नाशयैवं युद्धे विजयः सादि ॥१८॥
पदार्थः
(धिष्व) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (शवः) बलम् (शूर) दुःखविनाशक (येन) (वृत्रम्) मेघम् (अवाभिनत्) विदृणाति (दानुम्) जलस्य दातारम् (और्णवाभम्) ऊर्णा नाभ्यां यस्य तदपत्यमिव (अपावृणोः) दूरीकरोति (ज्योतिः) प्रकाशम् (आर्य्याय) उत्तमाय जनाय (नि) नितराम् (सव्यतः) दक्षिणतः (सादि) साध्यताम् (दस्युः) परपदार्थापहारकः (इन्द्र) सूर्यवद्वर्त्तमानसेनेश ॥१८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषैः सूर्यवदन्यायं निवर्त्य सज्जनहृदयेषु सुखं प्रापय्य सततं बलं वर्द्धनीयम् ॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब सेनापति के गुणों अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (शूर) दुःखविनाशक (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान सेनापति ! आप (येन) जिससे (शवः) बल को (धिष्व) धारण करो उससे जैसे सूर्य (दानुम्) जल देनेवाले (वृत्रम्) मेघ को (और्णवाभम्) उर्णा जिसकी नाभि में होती उसके पुत्र के समान अर्थात् जैसे वह किसी की देह का विदारण करे वैसे (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करता है और (सव्यतः) दाहिनी ओर से (ज्योतिः) प्रकाश कर अन्धकार को (नि,अप,अवृणोः) निरन्तर दूर करता है वैसे (आर्य्याय) उत्तम के लिये साधारण होओ जो (दस्युः) दूसरे के पदार्थों को हरनेवाला है उसका विनाश करो, ऐसे युद्ध के बीच विजय (सादि) साधना चाहिये ॥१८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुषों को चाहिये कि जैसे सूर्य अन्धकार को वैसे अन्याय को निवृत्त कर सज्जनों के हृदयों में सुख की प्राप्ति करा निरन्तर बल बढ़ावें ॥१८॥
विषय
'दानु-और्णवाभ-दस्यु' रूप वृत्र का वशीकरण
पदार्थ
१. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप गतमन्त्र के अनुसार सोमरक्षण के द्वारा (शवः आ धिष्व) = उस बल को धारण कराइए (येन) = जिस बल से (दानुम्) = [दाप् लवने] शक्तियों का खण्डन करनेवाले (और्णवाभम्) = ऊर्णनाभि के समान जाल को ताननेवाले-उस जाल में हमें फँसानेवाले (वृत्रम्) = ज्ञान के आवरणभूत 'काम' को (अवाभिनद्) = विदीर्ण करके दूर करते हैं । २. इस काम के विनाश द्वारा ही आप (आर्याय) = [ऋ गतौ] नियमित गतिवाले पुरुष के लिए (ज्योतिः) = ज्ञान के प्रकाश को (अपावृणः) = आवरणरहित करते हैं। आवरणभूत 'काम' नष्ट हुआ तो ज्ञान दीप्त हो ही उठता है। इस ज्ञान के दीप्त हो उठने पर हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (दस्युः) = यह शक्तियों के उपक्षय को करनेवाला 'काम' (सव्यतः निसादि) = बाईं ओर नीचे बिठाया जाता है, अर्थात् पूर्णतया वशीभूत कर लिया जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें वह बल दें जिससे कि हम इस 'दानु-और्णवाभ- दस्यु' रूप वृत्र को पूर्णतया अभिभूत कर पाएँ ।
विषय
ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार तीव्र वायु या विद्युत् ( दानुम् ) जल देने वाले ( वृत्रम् ) मेघ को ( और्णवाभम् ) आच्छादन करने वाले मकड़ी के जाले के समान ( अव अभिनत् ) छिन्न भिन्न कर देता है और (आर्याय) मनुष्य के लिये ( ज्योतिः अपावृणोत् ) सूर्य के प्रकाश को खोल देता है और वह मेघ ( दस्युः ) प्रकाशों का विघ्नकारक मेघ ( सव्यतः ) एक ओर हट जाता है उसी प्रकार हे ( शूर ) वीरपुरुष ! ( येन ) जिस बल से ( दानुम् ) अपने बल, सैन्य आदि काटने वाले ( वृत्रम् ) बढ़ते हुए शत्रु को ( दस्युः ) शत्रु का नाशकारी पुरुष ( और्णवाभम् ) मकड़ी के जाले के समान ( अव आभिनत् ) छिन्न भिन्न कर नीचे गिरा देता है तू उस ( शवः ) बल को ( धिष्व ) धारण कर । और तू ( आर्याय ) श्रेष्ठ पुरुष के लिये ( ज्योतिः अपावृणोः ) प्रकाश को प्रकट कर उनको ज्ञान प्रदान कर । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! वह तू संकटों को नाश करने हारा होकर ( सव्यतः ) दक्षिण हाथ ( नि सादि ) विराज अर्थात् सब का पूज्य होकर रह । वा वह प्रजानाशक पुरुष बायें हट कर बैठे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य अंधकार नष्ट करतो तसा राजपुरुषांनी अन्याय नाहीसा करून सज्जनांच्या हृदयात सुख उत्पन्न करून निरंतर बल वाढवावे. ॥ १८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of knowledge and power, hold on that strength by which you break the dark cloud pregnant with waters covered as under the web of a spider. Reveal and release the light and power of the sun for the noble seekers of wisdom and virtuous life so that the wicked exploiter and demon of darkness is kept and crushed by the left wing of your law.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Here the attributes of a Commander are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Commander of the army ! like sun you are dispeller of distresses and give strength. The sun smashes the group of clouds with its rays; likewise you also smash the bodies of your foes. Your this action dispels the black force of your enemy and on contrary delights the noble persons. We should thus work for achieving victory over the wicked enemies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. As the sun dispels the darkness, likewise the employees of the State should not allow the growth of injustice and thus make the noble men happy.
Foot Notes
(धिष्व) धर = Hold. (अवाभिनत् ) विदृणाति = Smashes (दानुम् ) जलस्य दातारम् = Giver of water. (और्णवाभम् ) ऊर्णायां नाभ्यां यस्य तदपत्यमिव = Smashing through like in the naval region. (आर्य्याय) उत्तमाय जनाय = For a noble person. (दस्यु:) परपदार्थापहारकः = One who steals away others possessions.
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