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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    व्यन्त्विन्नु येषु॑ मन्दसा॒नस्तृ॒पत्सोमं॑ पाहि द्र॒ह्यदि॑न्द्र। अ॒स्मान्त्सु पृ॒त्स्वा त॑रु॒त्राव॑र्धयो॒ द्यां बृ॒हद्भि॑र॒र्कैः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्यन्तु॑ । इत् । नु । येषु॑ । म॒न्द॒सा॒नः । तृ॒पत् । सोम॑म् । पा॒हि॒ । द्र॒ह्यत् । इ॒न्द्र॒ । अ॒स्मान् । सु । पृ॒त्ऽसु । आ । त॒रु॒त्र॒ । अव॑र्धयः । द्याम् । बृ॒हत्ऽभिः॑ । अ॒र्कैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यन्त्विन्नु येषु मन्दसानस्तृपत्सोमं पाहि द्रह्यदिन्द्र। अस्मान्त्सु पृत्स्वा तरुत्रावर्धयो द्यां बृहद्भिरर्कैः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    व्यन्तु। इत्। नु। येषु। मन्दसानः। तृपत्। सोमम्। पाहि। द्रह्यत्। इन्द्र। अस्मान्। सु। पृत्ऽसु। आ। तरुत्र। अवर्धयः। द्याम्। बृहत्ऽभिः। अर्कैः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे तरुत्रेन्द्र यथा सूर्यो बृहद्भिरर्कैर्द्यामावर्द्धयस्तथा त्वमस्मान् पृत्सु पाहि। येषु विद्वांसः सोमं व्यन्तु तेषु मन्दसानः तृपद्द्रह्यदिदैश्वर्यं सुपाहि ॥१५॥

    पदार्थः

    (व्यन्तु) कामयन्ताम् (इत्) एव (नु) सद्यः (येषु) (मन्दसानः) आनन्दितः (तृपत्) तृप्तः सन् (सोमम्) ऐश्वर्यम् (पाहि) (द्रह्यत्) दृढः सन् (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् (अस्मान्) (सु) (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (आ) (तरुत्र) अविद्यातारक (अवर्द्धयः) वर्द्धयति (द्याम्) प्रकाशम् (बृहद्भिः) महद्भिः (अर्कैः) किरणैः ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या येषु विद्वत्सु निवसन्त ऐश्वर्यं प्राप्य तृप्ताः सन्तोऽन्याँस्तर्पयन्ति तेषु सूर्यवत्प्रकाशिता भवन्ति ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (तरुत्र) अविद्या से तारनेवाले (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् विद्वान् ! जैसे सूर्यमण्डल (बृहद्भिः) बड़ी-बड़ी (अर्कैः) किरणों से (द्याम्) प्रकाश को (नु,आ,अवर्धयः) शीघ्र अच्छे प्रकार बढ़ाता है, वैसे आप (अस्मान्) हम लोगों की (पृत्सु) संग्रामो में रक्षा कीजिये (येषु) जिनमें विद्वान् जन (सोमम्) ऐश्वर्य की (व्यन्तु) कामना करें उनमें (मन्दसानः) आनन्द को प्राप्त (तृपत्) तृप्त और (द्रह्यत्) दृढ़ होते हुए (इत्) ही आप ऐश्वर्य की (सुपाहि) अच्छे प्रकार रक्षा करें ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य जिन विद्वान् जनों में निवास करते और ऐश्वर्य को प्राप्त होकर तृप्त होते हुए औरों को तृप्त करते हैं, उनमें वे सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं ॥१५॥

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    विषय

    ज्ञान+स्तवन

    पदार्थ

    १. सोम शरीर में सुरक्षित होने पर मनुष्य पूर्ण स्वस्थ होकर आनन्द का अनुभव करता है अतः कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (येषु) = जिन सोमकणों के सुरक्षित होने पर तू (मन्दसान:) = तृप्ति व आनन्द को अनुभव करता है वे सोमकण (नु) = अब (व्यन्तु इत्) = निश्चय से तुझे प्राप्त हों । (द्रह्यत्) = अपने को दृढ़ करता हुआ तू- वासनाओं का अपने को शिकार न होने देता हुआ (तूतृपत्) = तुझे प्रीणित करनेवाले इस (सोमम्) = सोम को-रेतः कणों को पाहि अपने में सुरक्षित कर २. प्रभु के उत्तम निर्देश को सुनकर जीव प्रार्थना करता है कि हे (पृत्सु) = संग्रामों में (आतरुत्र) = समन्तात् शत्रुओं से तरानेवाले प्रभो ! आप (अस्मान्) = हमें (सुअवर्धयः) = उत्तमता से वृद्धि को प्राप्त कराइए । आप (द्याम्) = हमारे ज्ञान के प्रकाश को (बृहद्भिः) = वृद्धि के कारणभूत (अर्कैः) = स्तुतिसाधन मन्त्रों के साथ बढ़ाइए। आपकी कृपा से हमारा ज्ञान बढ़े, हमारे में स्तवन की भावना उत्पन्न हो । ये ज्ञान और स्तवन हमें वासनाओं के साथ संग्राम में विजयी बनाएँगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोमरक्षण करें। रक्षित सोम हमें आनन्दित करेंगे। इसी उद्देश्य से प्रभु हमारे ज्ञान व स्तवन के भाव को बढ़ाएँ।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( येषु ) जिन पूर्व कहे विद्वानों और वीर पुरुषों के आश्रय होकर प्रजाजन ( सोमं ) ऐश्वर्य की ( व्यन्तु ) कामना करते और उसको प्राप्त करते और भोग करते हैं। उन पर ही निर्भर रह कर हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् राजन् ! तू भी ( तृपत् ) पूर्ण तृप्त और ( दह्यत् ) दृढ़ होकर ( सोमं पाहि ) उस ऐश्वर्य की रक्षा कर । हे ( तरुत्र ) संकटों और अविद्या से पार उतारने हारे ! सूर्य जिस प्रकार ( बृहद्भिः अर्कैः ) बड़े २ प्रकाशों से और अन्नों से ( द्यां अवर्धयः ) भूमि और आकाश को बढ़ाता, समृद्ध करता है, उसी प्रकार हे विद्वन् ! राजन् ! तू ( अस्मान् ) हमें ( पृत्सु ) संग्रामों के वीच ( वृहद्भिः अर्कैः ) बड़े उत्तम २ विचारों और तेजस्वी पूज्य वीर पुरुषों से (आ अवर्धयः) बढ़ा । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसे ज्या विद्वान लोकात राहतात, ऐश्वर्य प्राप्त करून तृप्त होतात व इतरांनाही तृप्त करतात त्यांच्यामध्ये ती सूर्याप्रमाणे प्रकाशित होतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of knowledge and power, ruler of the world, ruler of the self, the things and values in which wise and learned visionaries rejoice and find the very breath of life are those in which you too, settled, satisfied and rejoicing, find your haven and home for the joy of life for yourself and others. Therein protect and promote the beauty and joy of the soma-value of life. Promote us, we pray, help us advance in the battles of life, protector and saviour as you are, and extend the possibilities of life and life’s heavenly joy on earth as the sun illuminates the glories of heaven and augments them with its mighty rays and atomic fuel.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of scholars and physicians.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O glorious scholar ! you shake off ignorance. The way solar system brightens the day with its rays, same way you protect and guard us in the battlefields. You should guard well the learned persons who are desirous of prosperity, pleasant in behavior and contented but strong.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The people who live among the scholars, they achieve prosperity and delight others. They shine like the sun.

    Foot Notes

    (व्यन्तु ) कामयन्ताम् = You desire. (मन्दसान:) आनन्दित: = Delight. (पुत्सु) संङ्ग्रामेषु = In the battlefields. (तरुत्न) अविद्यातारक = Dispeller of ignorance.

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