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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 16
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    बृ॒हन्त॒ इन्नु ये ते॑ तरुत्रो॒क्थेभि॑र्वा सु॒म्नमा॒विवा॑सान्। स्तृ॒णा॒नासो॑ ब॒र्हिः प॒स्त्या॑व॒त्त्वोता॒ इदि॑न्द्र॒ वाज॑मग्मन्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हन्तः॑ । इत् । नु । ये । ते॒ । त॒रु॒त्र॒ । उ॒क्थेभिः॑ । वा॒ । सु॒म्नम् । आ॒ऽविवा॑सान् । स्तृ॒णा॒नासः॑ । ब॒र्हिः । प॒स्त्य॑ऽवत् । त्वाऽऊ॑ताः । इत् । इ॒न्द्र॒ । वाज॑म् । अ॒ग्म॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहन्त इन्नु ये ते तरुत्रोक्थेभिर्वा सुम्नमाविवासान्। स्तृणानासो बर्हिः पस्त्यावत्त्वोता इदिन्द्र वाजमग्मन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहन्तः। इत्। नु। ये। ते। तरुत्र। उक्थेभिः। वा। सुम्नम्। आऽविवासान्। स्तृणानासः। बर्हिः। पस्त्यऽवत्। त्वाऽऊताः। इत्। इन्द्र। वाजम्। अग्मन्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 16
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे तरुत्रेन्द्र ते तवोक्थेभिर्बृहन्त इद्ये सुम्नमाविवासाँस्ते पस्त्यावद्बर्हिस्तृणानासो वा त्वोता इद्वाजं न्वग्मन् ॥१६॥

    पदार्थः

    (बृहन्तः) महान्तः (इत्) एव (नु) सद्यः (ये) (ते) तव (तरुत्र) दुःखात्तारक (उक्थेभिः) सुष्ठूपदेशैः (वा) सुम्नम्) सुखम् (आविवासान्) समन्तात् सेवन्ते (स्तृणानासः) आच्छादयन्तः (बर्हिः) वृद्धम् (पस्त्यावत्) गृहवत् (त्वोताः) त्वया रक्षिताः (इत) एव (इन्द्र) अविद्याविच्छेदक (वाजम्) विज्ञानम् (अग्मन्) प्राप्नुवन्ति ॥१६॥

    भावार्थः

    त एव सुखमाप्नुवन्ति ये धार्मिकेण सुशिक्षिताः रक्षिताः स्युः ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (तरुत्र) दुःख से तारनेवाले (इन्द्र) अविद्याविनाशक ! (ते) आपके (उक्थेभिः) सुन्दर उपदेशों से (बृहन्तः) पूज्य प्रशंसनीय (इत्) ही (सुम्नम्) सुख को (आ,विवासान्) सब ओर से सेवते हैं वे (पस्त्यावत्) घर के तुल्य (बर्हिः) बढ़े हुए को (स्तृणानासः) ढाँपते हुए (वा) अथवा (त्वोताः) आपके रक्षा किये हुए (इत्) ही (वाजम्) विज्ञान को (नु) शीघ्र (अग्मन्) प्राप्त होते हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    वे ही सुख को प्राप्त होते हैं, जो धार्मिक विद्वान् सत्पुरुषों से सुन्दर शिक्षित और रक्षित हों ॥१६॥

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    विषय

    स्वस्थ शरीर-सबल अंग

    पदार्थ

    १. हे (तरुत्र) = वासनाओं से तरानेवाले प्रभो ! (ये) = जो (उक्थेभिः) = स्तोत्रों द्वारा (वा) निश्चय से (सुम्नम्) = आनन्दमय आपका (आविवासान्) = परिचरण करते हैं, (ते) = वे (इत् नु) = निश्चय से (बृहन्तः) = वृद्धि को प्राप्त करते हैं-बढ़ते ही चलते हैं। प्रभुस्तवन करनेवाला अपने सामने एक ऊँची लक्ष्यदृष्टि रखता है और उसकी ओर बढ़ता हुआ निश्चय से उन्नत होता चलता है। २. आपके स्तवन द्वारा वासनाओं का उन्मूलन करनेवाले ये लोग (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय को (स्तृणानासः) = आच्छादित करनेवाले होते हैं। वासनाशून्य हृदयरूप आसन को ये आपके लिए बिछाते हैं और (त्वा ऊताः) = आपसे रक्षित हुए ये व्यक्ति, हे (इन्द्र) = परमात्मन् ! (पस्त्यावत्) = उत्तम शरीररूप गृहवाले (वाजम्) = बल को (अग्मन्) = प्राप्त होते हैं। इनका शरीर स्वस्थ होता है— इनका एक-एक अंग बलसम्पन्न होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुस्तवन से हमारी वृद्धि होती है। इससे शरीर स्वस्थ होता है, अंग सबल बनते हैं।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! हे ( तरुत्र ) दुःखों से पार उतारने वाले ! ( ये ) जो पुरुष ( उक्थेभिः ) उत्तम वेदोक्त वचनों से ( सुम्नम् ) सुख स्वरूप तेरी (आविवासान् ) सेवा करते, तेरी उपासना करते तेरे सुख का आनन्द अनुभव करते हैं ( ते ) वे ( वृहन्तः इत् नु ) निश्चय से बहुत बड़े आदमी हो जाते हैं । ( ते ) वे ( त्वा ऊताः ) तेरी रक्षा में रहते हुए, ( पस्त्यावत् ) गृह के समान ( बर्हिः ) वृद्धिशील राष्ट्र को ( स्तृणानासः ) विस्तृत करते या ( पस्त्यावत् बर्हिः ) उत्तम प्रजा से सम्पन्न बड़े राष्ट्र या इस लोक को आसन के समान ( स्तृणानासः ) विस्तृत करते हैं वे भी ( वाजम् ) ज्ञान और ऐश्वर्य को ( अग्मन् ) प्राप्त होते हैं अथवा वे ( वाजम् अग्मन् ) संग्राम में जाने में समर्थ होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे धार्मिक विद्वान सत्पुरुषांकडून सुशिक्षित व रक्षित असतात, तेच सुखी होतात. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, gracious lord of power and ruler of the world, saviour from suffering and helping us all to cross the seas of existence, those who celebrate your glories with holy chants of the Veda, rising high, enjoy your favour and grace and, under your protection, achieve food, energy, speed and prosperity and, traversing the skies like their own home, rise to space heights.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of scholar moves on from the previous references.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scholar ! you make us to get over miseries and dispel our ignorance. With your beautiful preachings, all listeners and implementers get delights from all quarters. They feel homely and provide a cover to your guarded people and get them the knowledge without any delay.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Only they are happy, who are protected by the righteous, religious and educated scholars.

    Foot Notes

    (उक्थेभिः) सुष्ठपदेशै: । = With fine preachings or sermons. (सुम्नम्) सुखम् = Happiness. (आविवासन् ) समन्तात् सेवन्ते । = Get from all quarters. (बर्हिः) वृद्धम् । = Great. (पस्त्यावत् ) गृहवत् = Like a home. (इन्द्र) अविद्या विच्छेदक । = Dispeller of ignorance.

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