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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 14
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यः सु॒न्वन्त॒मव॑ति॒ यः पञ्च॑न्तं॒ यः शंस॑न्तं॒ यः श॑शमा॒नमू॒ती। यस्य॒ ब्रह्म॒ वर्ध॑नं॒ यस्य॒ सोमो॒ यस्ये॒दं राधः॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । सु॒न्वन्त॑म् । अव॑ति । यः । पच॑न्तम् । यः । शंस॑न्तम् । यः । श॒श॒मा॒नम् । ऊ॒ती । यस्य॑ । ब्रह्म॑ । वर्ध॑नम् । यस्य॑ । सोमः॑ । यस्य॑ । इ॒दम् । राधः॑ । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः सुन्वन्तमवति यः पञ्चन्तं यः शंसन्तं यः शशमानमूती। यस्य ब्रह्म वर्धनं यस्य सोमो यस्येदं राधः स जनास इन्द्रः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। सुन्वन्तम्। अवति। यः। पञ्चन्तम्। यः। शंसन्तम्। यः। शशमानम्। ऊती। यस्य। ब्रह्म। वर्धनम्। यस्य। सोमः। यस्य। इदम्। राधः। सः। जनासः। इन्द्रः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 14
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरविषयमाह।

    अन्वयः

    हे जनासो विद्वांसो युष्माभिर्यो जगदीश्वरः ऊत्या सुन्वन्तम् यः पञ्चन्तं कुर्वन्तं यः शंसन्तं यः शशमानं चावति यस्य ब्रह्म वर्द्धनम् यस्य सोमो यस्येदं राधोऽस्ति स इन्द्रः सततमुपासनीयः ॥१४॥

    पदार्थः

    (यः) (सुन्वन्तम्) सर्वस्य सुखायाभिषवं निष्पादयन्तम् (अवति) रक्षति (यः) (पञ्चन्तम्) परिपक्वं कुर्वन्तम् (यः) (शंसन्तम्) प्रशंसां कुर्वन्तम् (यः) (शशमानम्) अधर्ममुल्लङ्घमानम् (ऊती) रक्षणाद्यया क्रियया (यस्य) (ब्रह्म) वेदः (वर्द्धनम्) (यस्य) जगदीश्वरस्य (सोमः) चन्द्रौषधिगणः (यस्य) (इदम्) (राधः) धनम् (सः) (जनासः) (इन्द्रः) ॥१४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या येन परमात्मना वेदोपदेशद्वारा मनुष्योन्नतिः कृता येन धार्मिका रक्ष्यन्ते दुष्टाचारास्ताड्यन्ते यस्येदं जगत्सर्वमैश्वर्यमस्ति तमात्मसु सततं ध्यायत ॥१४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (जनासः) विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोगों को (यः) जो जगदीश्वर (ऊती) रक्षा आदि क्रिया से (सुन्वन्तम्) सबके सुख के लिये उत्तम-उत्तम पदार्थों के रस निकालते हुए को वा (यः) जो (पञ्चन्तम्) पक्का करते हुए को वा (यः) जो (शंसन्तम्) प्रशंसा करते हुए को वा (यः) जो (शशमानम्) अधर्म को उल्लंघन करते हुए को (अवति) रखता है, पालता है (यस्य) जिसका (ब्रह्म) वेद (वर्द्धनम्) वृद्धिरूप (यस्य) जिस जगदीश्वर का (सोमः) चन्द्रमा और औषधियों का समूह (यस्य) जिसका (इदम्) यह (राधः) धन है (सः) वह (इन्द्रः) सर्वैश्वर्यवान् जगदीश्वर निरन्तर उपासना करने योग्य है ॥१४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस परमात्मा ने वेदोपदेश द्वारा मनुष्यों की उन्नति की वा जिससे धर्मात्मा जन पलते वा जिससे दुष्टाचरण करनेवाले ताड़ना पाते वा जिसका यह सब जगत् ऐश्वर्यरूप है, उसका ध्यान अपने-अपने आत्माओं में निरन्तर करो ॥१४॥

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    विषय

    प्रभु-रक्षण का पात्र कौन ? रक्षणीय व रक्षणसाधन

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (सुन्वन्तम्) = सोम का अभिषव करनेवाले का (अवति) = रक्षण करता है। सोमशक्ति का अपने अन्दर सम्पादन करनेवाला पुरुष 'सुन्वन्' है । प्रभु इसका रक्षण करते हैं । (यः) = जो (पचन्तम्) = आचार्य के समीप रहकर अपने को तपस्या व ज्ञान की अग्नि में परिपक्व करता है, प्रभु उसका रक्षण करते हैं । २. (यः) = जो (शंसन्तम्) = सदा प्रभु का शंसन- गुणस्मरण करनेवाले का रक्षण करता है और (शशमानम्) = प्लुतगति से- स्फूर्ति से- क्रियाओं में प्रवृत्त होनेवाले को (ऊती) = रक्षण क्रिया से प्राप्त होता है। ३. (यस्य) = जिसका दिया हुआ ब्रह्म (वर्धनम्) = ज्ञानवर्धन हमारी वृद्धि का कारण होता है और (यस्य) = जिसका यह (सोमः) = सोम-शरीर में रसादि क्रम से उत्पन्न किया गया सोम-हमारी सब वृद्धियों का कारण बनता है और (यस्य) जिसका (इदम्) = यह सब (राध:) = हमारे कार्यों को सिद्ध करनेवाला यह ऐश्वर्य है । हे (जनासः) = लोगो ! (स इन्द्रः) = वे ही परमैश्वर्यशाली प्रभु 'इन्द्र' हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुरक्षण 'सुन्वन्, पचन्, शंसन् व शशमान' को प्राप्त होता है। इस रक्षण के लिए प्रभु हमें 'ब्रह्म, सोम व राध: (ऐश्वर्य) ' प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    बलवान् राजा, सभापति, जीवात्मा और परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    (यः) जो परमेश्वर ( सुन्वन्तं ) सवन, अर्थात् यज्ञ, प्रार्थना, उपासना, ज्ञानसम्पादन, ऐश्वर्य वृद्धि आदि करते हुए पुरुष की ( अवति ) रक्षा करता है । ( यः पचन्तम् अवति ) जो परमेश्वर विद्या और बल को परिपक्व करने और तपस्था से आत्मा को परिपक्व करने वाले की रक्षा करता है । ( यः ) जो ( ऊत्या ) अपनी रक्षाकारिणी शक्ति से ( शं सन्तं ) स्तुति करने और अन्यों को ज्ञानोपदेश करने वाले की और ( यः शशमानं ) जो ऊंचे गति करने वाले, अधर्म को लांघकर धर्म मार्ग में जाने वाले धर्मात्मा पुरुष की रक्षा करता है ( यस्य वर्धनम् ब्रह्म ) जिस को ब्रह्म, वेद, और ब्राह्म बल बढ़ाता, या जिसके गुणों का महान् स्वरूप प्रकट करता है, ( यस्य सोमः वर्धनम् ) और जिसकी महिमा को सोम, ओषधिवर्ग, वीर्य और क्षात्र बल बढ़ा रहा है ( यस्य इदं राधः ) जिसकी यह समस्त आराधना और ऐश्वर्य है हे ( जनासः ) पुरुषो ! ( सः ) वही परमेश्वर (इन्द्रः) ‘इन्द्र’ है । (२) जो राजा ( सुन्वन्तं ) अपने अभिषेक करने वाले प्रजागण की रक्षा करता, रिपु गण को प्रताप से तपाने वाले की रक्षा या धन से तृप्ति करता, स्तुति या ज्ञानोपदेश करने और अधर्म मार्ग को लांघने वाले को पालता है। ब्राह्म बल और सोम क्षात्र बल, अथवा ब्रह्म-धन और अन्न और सोम ऐश्वर्य जिसका बढ़ाते, जिसका यह राष्ट्र ऐश्वर्य है वह राजा ‘इन्द्र’ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १–५, १२–१५ त्रिष्टुप् । ६-८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप । भुरिक् त्रिष्टुप । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (यः सुन्वन्तं यः पचन्तं यः-शंसन्तं यः-शशमानम्-ऊती अवति) जो ज्ञान के निष्पादन करते हुए की जो उस ज्ञान को अपने अन्दर पचाते हुए सात्म्य करते हुए की जो दूसरों के लिये उस ज्ञान का शंसन अपने लिये प्रशंसा करते हुए की जो शशमान- अन्यों में शंसन-उपदेश करने वाले “शशमान: शंसमानः" (निरु० ६।८) या आगे गये हुए पूर्ण कुशल बने हुए की अपनी रक्षणशक्ति से रक्षा करता है (यस्य ब्रह्म यस्य सोमः-यस्य-इदं राधः-वर्धनम्) महत्त्वपूर्ण ज्ञान जिसका सोम दोषधिगण जिसका यह विविध चान्दी सोना आदि धन जिसका वर्धन गुण यशो वर्धन-गुण यश बढाने वाला है-उससे सम्पन्न उसको दिया ज्ञान-उस सम्पन्न या उसका दिया ओषधि अन्न समूह, उससे सम्पन्न या उसका दिया विविध आवश्यक धन उसको गुण यशोगान से बढाने वाला है (जनास: स:-इन्द्रः) हे जनो! वह इन्द्र व्याप्त विद्यद्देव और परमात्मा है ॥१४॥

    टिप्पणी

    इतरेतर।पेक्षया द्विवचनम् मित्रयो वरुणयोः (सायणः) ऋ० ५।५।८

    विशेष

    ऋषि:-गृत्समदः (मेधावी प्रसन्न जन" गृत्स:-मेधाविनाम" [निव० ३।१५]) देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्या परमेश्वराने वेदोपदेशाद्वारे माणसाची उन्नती केलेली आहे किंवा ज्यामुळे धर्मात्मा लोकांचे पालन होते, ज्याच्याकडून दुष्टाचरण करणारे मार खातात किंवा ज्याचे हे जग ऐश्वर्यरूप आहे, त्याचे ध्यान आपल्या आत्म्यात निरंतर करा. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He who protects the creative man of yajnic action, who promotes the man struggling for perfection, and who, with all his modes of protection and progress, advances the prayerful celebrant pilgrim on way to Dharma, piety and charity, He is Indra, know ye all children of the earth. The Veda glorifies him, the soma- joy of the world celebrates him, the beauty and perfection of this creation proclaims his art and presence. Such is Indra, dear children of Divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The nature and actions of God are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! with His protective power, God provides right and mature happiness to those who worship and admire Him. Even those who violate unrighteous acts, He takes their care also The great Vedas, moon groups of medical plants-all these are His wealth. Therefore, we should worship contently such a Mighty Master.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God guided man-kind through the Vedas. Because of it and the righteous persons looking to it, we should always keep Him in our mind.

    Foot Notes

    (सुन्वन्तम् ) सर्वस्य सुखायाभिषवं निष्पादयन्तम् = Providing pleasure with extractions of herbal juice. (पञ्चन्तम् ) परिपक्वं कुर्वन्तम् । = Making it strong. (शशमानम्) अधर्ममुल्लङ्घमानम् । = Not by passing or violating the righteousness. (ब्रह्म ) वेदः = Knowledge the of Vedas. (सोम:) चन्द्रौषधिगणः । = Moon and group of herbal plants (राध:) धनम् = Wealth.

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