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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यं क्रन्द॑सी संय॒ती वि॒ह्वये॑ते॒ परेऽव॑र उ॒भया॑ अ॒मित्राः॑। स॒मा॒नं चि॒द्रथ॑मातस्थि॒वांसा॒ नाना॑ हवेते॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । क्रन्द॑सी॒ इति॑ । सं॒य॒ती इति॑ स॒म्ऽय॒ती । वि॒ह्वये॑ते॒ इति॑ वि॒ऽह्वये॑ते । परे॑ । अव॑रे । उ॒भयाः॑ । अ॒मित्राः॑ । स॒मा॒नम् । चि॒त् । रथ॑म् । आ॒त॒स्थि॒ऽवांसा॑ । नाना॑ । ह॒वे॒ते॒ इति॑ । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं क्रन्दसी संयती विह्वयेते परेऽवर उभया अमित्राः। समानं चिद्रथमातस्थिवांसा नाना हवेते स जनास इन्द्रः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। क्रन्दसी इति। संयती इति सम्ऽयती। विह्वयेते इति विऽह्वयेते। परे। अवरे। उभयाः। अमित्राः। समानम्। चित्। रथम्। आतस्थिऽवांसा। नाना। हवेते इति। सः। जनासः। इन्द्रः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे जनासो विद्याप्रिया युष्माभिः क्रन्दसी संयती द्यावापृथिव्यौ यं विह्वयेते परेऽवर उभया अमित्रा समानं रथं चिदिव आतस्थिवांसा नाना हवेते गृह्णीतः स इन्द्रो बोध्यः ॥८॥

    पदार्थः

    (यम्) सूर्य्यम् (क्रन्दसी) रोदनशब्दनिमित्ते (संयती) संयमेन गच्छन्त्यौ द्यावापृथिव्यौ (विह्वयेते) विस्पर्द्धेते इव (परे) प्रकृष्टाः (अवरे) अर्वाचीनाः (उभयाः) प्रकाशाऽप्रकाशोभयकोटिसम्बन्धिनः (अमित्राः) शत्रवः (समानम्) (चित्) इव (रथम्) रथादियानम् (आतस्थिवांसा) समन्तात्तिष्ठन्तौ (नाना) अनेकविधा (हवेते) आदत्तः (सः) (जनासः) (इन्द्रः) ॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा द्वे सेने सम्मुखे स्थित्वा युध्येते तथैव प्रकाशाऽप्रकाशौ वर्त्तेते ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (जनासः) विद्याप्रिय मनुष्यो ! तुमको (क्रन्दसी) रोने का शब्द कराने (संयती) और संयम से जानेवाले प्रकाश और पृथिवी (यम्) जिस सूर्यमण्डल को जैसे कोई पदार्थ (विह्वयेते) स्पर्द्धा करें वैसे वा (परे) उत्तम (अवरे) न्यून (उभयाः) अर्थात् प्रकाश और अप्रकाशयुक्त दोनों कोटियों का सम्बन्ध करने (अमित्राः) शत्रुजन जैसे (समानम्) समान (रथम्) रथ आदि यान को (चित्) वैसे (आतस्थिवांसा) सब ओर से स्थिर (नाना) अनेक प्रकार से (हवेते) ग्रहण करते हैं (सः) वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् है, यह जानना चाहिये ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे दो सेना सम्मुख खड़ी होकर युद्ध करती हैं, वैसे प्रकाश और अप्रकाश वर्त्तमान हैं ॥८॥

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    विषय

    आराध्य प्रभु

    पदार्थ

    १. (यम्) = जिसको (संयती) = [सम् यती] सम्यक् गतिवाले (क्रन्दसी) = परस्पर आह्वान सा करनेवाले द्युलोक व पृथिवीलोक (विह्वयेते) = विविध रूपों में पुकारते हैं। पृथिवीलोक को प्रभु ही दृढ़ बनाते हैं, वे ही द्युलोक को सूर्यादि द्वारा तेजस्वी करते हैं 'येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा' । २. (परे) = उत्कृष्ट योगमार्ग पर चलनेवाले भी उस प्रभु को पुकारते हैं और (अवरे) = सकाम कर्म मार्ग का अवलम्बन करनेवाले लोग भी उसी का आराधन करते हैं। योगियों को वे प्रभु ही निःश्रेयस प्राप्त कराते हैं और इन सकामकर्मियों के अभ्युदय के साधक भी वे ही हैं । ३. (उभया: अमित्राः) = दोनों परस्पर स्नेह न करनेवाले शत्रु उस प्रभु को ही विजय के लिए पुकारते हैं और (चित्) = निश्चय से (समानं रथम्) = एक ही रथ पर (आतस्थिवांसा) = बैठे हुए- एक ही घर को मिलकर बनानेवाले पति-पत्नी भी (नाना हवेते) = आप से भिन्न-भिन्न प्रार्थना करते हैं। पति-पत्नी की प्रार्थना में भी पार्थक्य होता है। उनकी प्रार्थना विरोधी न होती हुई भी पृथक्-पृथक् होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सारा संसार उस उस वस्तु के लिए प्रभु को ही पुकार रहा है।

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    विषय

    बलवान् राजा, सभापति, जीवात्मा और परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यं ) जिस परमेश्वर को ( क्रन्दसी ) दुखों के कारण रोने वाले ( संयती ) उत्तम मार्ग में यत्नशील पश्चात्तापकारी स्त्री पुरुष ( विह्वयेते ) विविध प्रकार से पुकारते हैं। और जिसको ( परे ) उत्तम कोटि के और ( अवरे ) निकृष्ट कोटि के, बड़े छोटे, उँचे नीचे (उभयाः) सभी ( अमित्राः ) शत्रु गण भी ( विह्वयन्ते ) विविध प्रकार से बुलाते हैं और ( समानं चित् ) एक ही ( रथम् ) रथ पर ( आतस्थिवांसा ) बैठे स्त्री पुरुष भी जिसको ( नाना ) भिन्न २ नामों से ( हवेते ) याद करते हैं हे ( जनासः ) मनुष्यो ! ( सः इन्द्रः ) वही परमेश्वर ‘इन्द्र’ है । ( २ ) जिस राजा को ( क्रन्दसी ) आकाश और पृथिवी के समान ( संयती ) परस्पर मिलनेवाली या ( क्रन्दसी ) परस्पर को ललकारनेवाली ( संयती ) युद्ध में संयत, सुसज्ज दोनों ओर की सेनाएँ ( विह्वयेते ) विविध प्रकार से अर्थात् एक नायक रूप से दूसरी प्रति पक्ष के नायक रूप से पुकारें । इसी प्रकार ( परे अवरे उभया अमित्राः ) छोटे बड़े सभी परस्पर मित्र भाव से न रहनेहारे जिसको अपनी सहायता के लिये बुलाते हैं । और ( समानं रथं आतस्थिवांसा ) एक समान रथ सैन्य के आश्रय पर बैठे, दोनों पक्ष के लोग भी जिसको ( नाना ) विविध उपायों से ( हवेते ) अपने २ पक्ष के विजय के लिये बुलाते हैं ( सः इन्द्रः ) वह ‘इन्द्र’ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १–५, १२–१५ त्रिष्टुप् । ६-८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप । भुरिक् त्रिष्टुप । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (यं कन्दसी संयती विह्वयेते) जिसको आह्वान करती हुई या स्वरक्षार्थ रोदन सा करती हुई| साम्मुख्यः में प्राप्त पृथिवीलोक और लोक प्रकाशरहित और प्रकाशक लोक विविध रूप आहूत करते हैं (परे अवरे उभया:-अमित्राः) और परद्युलाकस्थ पदार्थ अवर-पृथिवी लोकस्थ पदार्थ दोनों परस्पर| अमित्र-विरोधि रूपों वाले होकर आहूत करते हैं (समानं रथं) (चित्-प्रातस्थिवांसा) मानो समान रथ-इन्द्र के नियमन पर प्रस्थान करते हुए आश्रय रहते हुए (नाना हवेते) पृथक् पृथक् आहूत करते हैं (जनासः सः-इन्द्रः) हे लोगो वह इन्द्र व्याप्त विद्युदेव या परमात्मा है ॥८॥

    विशेष

    ऋषि:-गृत्समदः (मेधावी प्रसन्न जन" गृत्स:-मेधाविनाम" [निव० ३।१५]) देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा दोन सेना समोरासमोर उभ्या राहून युद्ध करतात तसे प्रकाश व काळोख आहेत. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whom the heaven and earth wheeling, whirling, humming the celestial music of the spheres together and vying each other in homage, invoke, whom the highest and farthest as well as lowest and nearest, all, friends and non-friends, worship alike as riding the same chariot, invoke and worship in various ways: that, O people of the world, is Indra, lord of power over all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of energy is further described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! light and darkness confront with each other with a thunder and regularity, as if they ware in race. As we make the advancing army and their vehicles to stop from all sides, same way that great man acts with powerful energy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Like two combatant formations of the army, the light and darkness confront each other (The concept of Deva-AsuraSangram denotes, the ever continuing fight between good and bad or light and darkness. Ed.).

    Foot Notes

    (ऋन्दसी) रोदनशब्दनिमित्ते = Creating thunder like sound. (विद्वयेते) विस्पर्द्धते इव । = Compete or vive with each other. (उभमा:) प्रकाशाप्रकाशोभयकोटिसम्बन्धिनः = Combatants between light and darkness. (आतस्थिवांसा) समन्तात्तिष्ठन्तौ । = Established from all sides. (हवेते ) आदत्त: = Held by two.

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