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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पि॒तुश्च॒ गर्भं॑ जनि॒तुश्च॑ बभ्रे पू॒र्वीरेको॑ अधय॒त्पीप्या॑नाः। वृष्णे॑ स॒पत्नी॒ शुच॑ये॒ सब॑न्धू उ॒भे अ॑स्मै मनु॒ष्ये॒३॒॑ नि पा॑हि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒तुः । च॒ । गर्भ॑म् । ज॒नि॒तुः । च॒ । ब॒भ्रे॒ । पू॒र्वीः । एकः॑ । अ॒ध॒य॒त् । पीप्या॑नाः । वृष्णे॑ । स॒पत्नी॒ इति॑ स॒पत्नी॑ । शुच॑ये । सब॑न्धू इति॑ सऽब॑न्धू । उ॒भे इति॑ । अ॒स्मै॒ । म॒नु॒ष्ये॒ इति॑ । नि । पा॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पितुश्च गर्भं जनितुश्च बभ्रे पूर्वीरेको अधयत्पीप्यानाः। वृष्णे सपत्नी शुचये सबन्धू उभे अस्मै मनुष्ये३ नि पाहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पितुः। च। गर्भम्। जनितुः। च। बभ्रे। पूर्वीः। एकः। अधयत्। पीप्यानाः। वृष्णे। सपत्नी इति सपत्नी। शुचये। सबन्धू इति सऽबन्धू। उभे इति। अस्मै। मनुष्ये३ इति। नि। पाहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यथाऽस्मै शुचये वृष्णे सपत्नी गर्भं बभ्रे स एको गर्भः पितुश्च जनितुश्च सकाशाज्जन्म प्राप्य पूर्वीः पीप्याना अधयत्तथा उभे सबन्धू मनुष्ये गर्भं पातस्तथा हे विद्वन् एकः संस्त्वं सन्नि पाहि ॥१०॥

    पदार्थः

    (पितुः) पालकात् (च) धात्र्याः (गर्भम्) (जनितुः) जनकात् (च) सुअन्नादेः (बभ्रे) बिभर्त्ति (पूर्वीः) पूर्वं भूताः (एकः) (अधयत्) धयति पिबति (पीप्यानाः) वर्द्धमानाः (वृष्णे) वीर्यसंचकाय (सपत्नी) समाना पत्नी यस्याः सा (शुचये) पवित्राय (सबन्धू) समानौ बन्धूरिव वर्त्तमानौ (उभे) द्वे पुरुषः स्त्री च (अस्मै) (मनुष्यै) मनुष्येभ्यो हिते (नि) नितराम् (पाहि) रक्ष ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मातापितरौ गर्भं धत्तस्तं संरक्ष्य दुग्धपानादिना वर्धयतस्तथा स्त्रीपुरुषौ प्रीतिं वर्धयित्वा गर्भान्धृत्वा संपाल्य मनुष्याणां हितायाऽपत्यानि विद्या ग्राहयेताम् ॥१०॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जैसे (अस्मै) इस (शुचये) पवित्र (वृष्णे) वीर्य सेचनेवाले मनुष्य के अर्थ (सपत्नी) समान जिसका पति वह स्त्री (गर्भम्) गर्भ को (बभ्रे) धारण करती वह (एकः) एक गर्भ (पितुः) पालन करनेवाले (च) और सुन्दर अन्नादि और (जनितुः) जन्म देनेवाले पिता की (च) और धाई की उत्तेजना से जन्म पाकर (पूर्वीः) पहिले उत्पन्न हुई (पीप्यानाः) बढ़ती हुई प्रजा (अधयत्) दुग्ध पीती हैं वैसे (उभे) दोनों स्त्री पुरुष (सबन्धू) एक समान बन्धुओं के समान प्रीति रखनेवाले (मनुष्ये) मनुष्य के लिये जो हित उस के निमित्त (गर्भम्) गर्भ की रक्षा करते हैं वैसे हे विद्वन् एक होते आप (नि, पाहि) निरन्तर पालना करो ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब माता पिता गर्भ को धारण करते हैं और उस की रक्षा कर दुग्धपान आदि से बढ़ाते हैं, वैसे स्त्री पुरुष प्रीति को बढ़ाकर गर्भ को धारण कर उसे अच्छे प्रकार पाल मनुष्यों के हित के लिये अपने सन्तानों को विद्या ग्रहण करावें ॥१०॥

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    विषय

    प्रभुस्मरण व वेदाध्ययन

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र का वेदाध्येता (पितुः) = उस पालक पिता के (जनितुः च) और शक्तियों का विकास करनेवाले प्रभु के गर्भं बभ्रे गर्भ को धारण करता है, अर्थात् अपने हृदय में प्रभु को स्थापित करता है। हृदयस्थ प्रभु का सदा स्मरण करता हुआ ही तो यह धर्ममार्ग से विचलित नहीं होता। [२] यह (एकः) = [इ गतौ] क्रियामय जीवनवाला व्यक्ति (पूर्वी:) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी गई अथवा पालन व पूरण करनेवाली (पीप्याना:) = आप्यायन व वर्धन करनेवाली वेदवाणियों का (अधयत्) = पान करता है। 'प्रभुस्मरण व वेदाध्ययन' इस के जीवन को सुन्दर बनानेवाले होते हैं। [२] हे अग्ने[परमात्मन्]! (अस्मै) = इस (वृष्णो) = शक्तिशाली, (शुचये) = पवित्र व्यक्ति के लिये उभे दोनों द्यावापृथिवी को (निपाहि) = निश्चय से रक्षित करिए। जो द्यावापृथिवी (सपत्नी) = समान प्रभुरूप पतिवाली हैं- दोनों का ही पति प्रभु है। सबन्धू ये दोनों समानरूप से मनुष्य की बन्धुभूत हैं, अथवा 'द्युलोक' पृथिवी से सम्बद्ध है और पृथिवी द्युलोक से। (मनुष्ये) = [मनुष्येभ्यो हिते] विचारशील पुरुष के लिये हितकर हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुस्मरण करनेवाले वेदाध्येता के लिये द्युलोक व पृथिवी लोक कल्याणकर होते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा माता-पिता गर्भ धारण करतात व त्याचे रक्षण करून दुग्धपान इत्यादींनी वाढवितात, तसे स्त्री-पुरुषांनी प्रीती वाढवून गर्भ धारण करून त्याचे चांगल्या प्रकारे पालन करावे व माणसांच्या हितासाठी आपल्या संतानांना विद्या शिकवावी. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, spirit and vitality of life, nurses the one life-embryo of both father and mother, and the one receives nourishment from the mother as well as from other universal sources of nature, abundant and swelling all since time immemorial. Heaven and earth, father and mother, both bound by nature to life in the embryo, bear, nurse and support it to continue. O Agni, lord of life, light of the world, protect and support both, father and mother, heaven and earth, for the sake of this virile and sacred humanity, for the continuance of this holy life, this sacred humanity in the embryo.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Behavior of married couple mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A wife who matches in knowledge and good virtues with her husband bears a child for the happiness of pure and mighty husband. The child (in embryo) having taken birth from the semen of the protector father takes milk and grows thereby like the preceding generations. As both husband and wife who should be like true companions work jointly for a benevolent cause, so o learned man ! you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As parents sustain and preserve the child and on the child born, they make it grow by giving the milk in proper form in the same manner, the husband and wife should develop their selfless mutual love, preserve the embryo and after the growth of the child, they should impart good education to them for bringing about the welfare of mankind.

    Foot Notes

    (अधयत् ) धयति, पिबति = Drinks (milk etc.) (पीप्याना:) वर्द्धमानाः। = Growing.

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