ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्ती॒र्णा अ॑स्य सं॒हतो॑ वि॒श्वरू॑पा घृ॒तस्य॒ योनौ॑ स्र॒वथे॒ मधू॑नाम्। अस्थु॒रत्र॑ धे॒नवः॒ पिन्व॑माना म॒ही द॒स्मस्य॑ मा॒तरा॑ समी॒ची॥
स्वर सहित पद पाठस्ती॒र्णाः । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽहतः॑ । वि॒श्वऽरू॑पा । घृ॒तस्य॑ । योनौ॑ । स्र॒वथे॑ । मधू॑नाम् । अस्थुः॑ । अत्र॑ । धे॒नवः॑ । पिन्व॑मानाः । म॒ही इति॑ । द॒स्मस्य॑ । मा॒तरा॑ । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तीर्णा अस्य संहतो विश्वरूपा घृतस्य योनौ स्रवथे मधूनाम्। अस्थुरत्र धेनवः पिन्वमाना मही दस्मस्य मातरा समीची॥
स्वर रहित पद पाठस्तीर्णाः। अस्य। सम्ऽहतः। विश्वऽरूपा। घृतस्य। योनौ। स्रवथे। मधूनाम्। अस्थुः। अत्र। धेनवः। पिन्वमानाः। मही इति। दस्मस्य। मातरा। समीची इति सम्ऽईची॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यथा स्तीर्णा विश्वरूपास्संहतः पिन्वमाना धेनवोऽत्राऽस्य घृतस्य योनौ मधूनां स्रवथेऽस्थुस्तथा समीची मही मातरा दस्मस्याऽपत्यस्य पालिके भवतः ॥७॥
पदार्थः
(स्तीर्णाः) शुभगुणैराच्छादिताः (अस्य) व्यवहारस्य मध्ये (संहतः) एकीभूताः (विश्वरूपाः) नानास्वरूपाः (घृतस्य) उदकस्य (योनौ) आधारे (स्रवथे) स्रवणे गमने (मधूनाम्) मधुराणाम् (अस्थुः) तिष्ठन्ति (अत्र) (धेनवः) गावः (पिन्वमानाः) सेवमानाः (मही) पूज्ये महत्यौ (दस्मस्य) दुःखोपक्षयकरस्य (मातरा) जनकजनन्यौ (समीचीः) सम्यगञ्चन्त्यौ ॥७॥
भावार्थः
यथा नदीसमुद्रौ मिलित्वा रत्नान्युत्पादयतस्यथा स्त्रीपुरुषा अपत्यान्युत्पादयन्तु ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जैसे (स्तीर्णाः) शुभगुणों से आच्छादित (विश्वरूपाः) नाना स्वरूपयुक्त (संहतः) एक हो रहीं (पिन्वमानाः) सेवन करती हुई (धेनवः) गौवें (अत्र) यहाँ (अस्य) इस व्यवहार के बीच (घृतस्य) जल के (योनौ) आधार में (मधूनाम्) मधुर पदार्थों की (स्रवथे) प्राप्ति के निमित्त (अस्थुः) स्थिर होती हैं वैसे (समीची) अच्छे प्रकार प्राप्त होने (मही) सत्कार करने योग्य (मातरा) पिता-माता (दस्मस्य) दुःख नष्ट करनेवाले बालक के पालनेवाले होते हैं ॥७॥
भावार्थ
जैसे नदी और समुद्र मिलकर रत्नों को उत्पन्न करते हैं, वैसे स्त्री पुरुष सन्तानों को उत्पन्न करें ॥७॥
विषय
वेदवाणी का जीवन पर प्रभाव
पदार्थ
[१] (संहतः) = [सं+हन्+विप्] सम्यक्तया कामादि वासनाओं का हनन करनेवाले (अस्य) = इस उपासक के अन्तःकरण में (विश्वरूपा:) = सब सत्य विद्याओं का निरूपण करनेवाली ये वेदवाणियाँ (स्तीर्णाः) = स्तीर्ण होती हैं- बिछ-सी जाती हैं उसका हृदय इन वाणियों से आच्छादित हो जाता है। ये हृदय में बिछी हुई वेदवाणियाँ (घृतस्य योनौ) = मलों के क्षरण तथा ज्ञानदीप्ति का निमित्त बनती हैं, इन दोनों बातों को जन्म देती हैं और (मधूनां स्रवथे) = मधुरता के प्रवाह का कारण बनती हैं। वेदवाणियों उसका जीवन 'निर्मल, ज्ञानदीप्त व मधुर' बनता है। [२] (अत्र) = इसके जीवन में (धेनवः) = ये ज्ञानदुग्ध देनेवाली वेदवाणीरूप गौवें (पिन्वमानाः) = इसको प्रीणित करती हुई (अस्थ:) = स्थित होती हैं। इस ज्ञान द्वारा प्रीणन का परिणाम यह होता है कि (दस्मस्य) = इस वासना विनाशक की (मातरा) = द्यावापृथिवी रूप माता-पिता-धुलोकरूप मस्तिष्क और पृथिवीरूप शरीर दोनों ही (मही) = महत्त्वपूर्ण होते हैं और (समीची) = परस्पर संगत होकर चलनेवाले होते हैं। इसकी बुद्धि और शक्ति दोनों ही उत्तम होती हैं, परस्पर उपकारक होती हैं। यही इसके जीवन में 'ब्रह्म व क्षत्र' का समन्वय कहलाता है।
भावार्थ
भावार्थ– जीवन वेदवाणी से प्रभावित होने पर उसमें निर्मलता आ जाती है, वहाँ ज्ञान दीप्त हो उठता है तथा मधुर शब्दों का ही प्रवाह होता है । शक्ति व बुद्धि का समन्वय होकर जीवन वस्तुतः सुन्दर बन जाता है।
विषय
राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार (घृतस्य योनौ) घृत अर्थात् वर्षा रूप में झरने योग्य, सेचने योग्य या जल के आश्रय भूत अन्तरिक्ष में या मेघ के निमित्त और (मधूनाम्) बहुत जलों के (स्रवणे) बहने में (अस्य) इस सूर्य और विद्युत् के ७ किरण (संहतः) संघ बनकर (विश्वरूपाः) नाना रूप वाली, (स्तीर्णाः) अति विस्तृत, और सुरक्षित, (धेनवः) गौओं के समान (पिन्वमानाः) भूमि को सेचन करते रहते हैं उसी प्रकार (अस्य) इस पुरुष के (योनौ) घर पर (संहतः) संघ रूप, बहुत सी संख्या में एकत्र (स्तीर्णा:) दूर २ तक फैली, (विश्वरूपाः) नाना वर्णों वाली (पिन्वमानाः) दुग्धादि सेचन करती हुई (धेनवः) गौवें (घृतस्य) घी और (मधूनां) नाना मधुर पदार्थों के (स्रवथे) बहाने के लिये (अस्थुः) विद्यमान हों। और जिस प्रकार (दस्मस्य) दर्शनीय, सूर्य के (मातरा) उत्पादक भूमि और आकाश (मही) बड़े हैं उसी प्रकार (दस्मस्य) दर्शनीय, उत्तम गुणयुक्त प्रज़ाओं के दुःखनाशक पुरुष के (मातरा) माता और पिता दोनों (समीची) उत्तम, एक दूसरे के अनुरूप, और (मही) पूज्य हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशा नद्या व समुद्र मिळून रत्ने उत्पन्न करतात, तशी स्त्री-पुरुषांनी संताने उत्पन्न करावीत. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Expansive yet covered, united yet universal and various are the gifts of this Agni abiding in the womb of the waters of life and abounding in the flow of the honey sweets of existence. The heaven and earth both one and together are the manifestive mothers of this lord of bliss and power.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of wives are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As all varied cows of good pedigree serve men and other beings with their milk, in the same manner, parents who live together lovingly are really great and respectable on account of their virtues. Such couple nourish the progeny which ultimately make an end to all sufferings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the ocean and river by their confluence bring into being (produce) jewels, in the same manner let husbands and wives give birth to good progeny.
Foot Notes
(घृतस्य) उदकस्य घुतम् इत्युदकनाम (NG. 1, 12 ) = Of water. (पिन्वमानाः ) सेवमाना:। = Serving. (समीची:) सम्यगञ्चतन्यौ = Going together well. (मातरौ) जनक-जनन्यौ। = Parents.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal