ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒पां गर्भं॑ दर्श॒तमोष॑धीनां॒ वना॑ जजान सु॒भगा॒ विरू॑पम्। दे॒वास॑श्चि॒न्मन॑सा॒ सं हि ज॒ग्मुः पनि॑ष्ठं जा॒तं त॒वसं॑ दुवस्यन्॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । गर्भ॑म् । द॒र्श॒तम् । ओष॑धीनाम् । वना॑ । ज॒जा॒न॒ । सु॒ऽभगा॑ । विऽरू॑पम् । दे॒वासः॑ । चि॒त् । मन॑सा । सम् । हि । ज॒ग्मुः । पनि॑ष्ठम् । जा॒तम् । त॒वस॑म् । दु॒व॒स्य॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपां गर्भं दर्शतमोषधीनां वना जजान सुभगा विरूपम्। देवासश्चिन्मनसा सं हि जग्मुः पनिष्ठं जातं तवसं दुवस्यन्॥
स्वर रहित पद पाठअपाम्। गर्भम्। दर्शतम्। ओषधीनाम्। वना। जजान। सुऽभगा। विऽरूपम्। देवासः। चित्। मनसा। सम्। हि। जग्मुः। पनिष्ठम्। जातम्। तवसम्। दुवस्यन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्याप्रशंसामाह।
अन्वयः
हे मनुष्य देवासो मनसाऽभ्यासेन चिदपामोषधीनां दर्शतं विरूपं गर्भं संजग्मुः यो हि सुभगा वना जजान यं जातं तवसं पनिष्ठं दुवस्यन् तं सर्वव्यापकं विद्युद्रूपमग्निं यूयं यथावद्विजानीत ॥१३॥
पदार्थः
(अपाम्) प्राणानाम् (गर्भम्) मध्यव्यापिनम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (ओषधीनाम्) (वना) वनानि जङ्गलानि (जजान) जनयति (सुभगा) सुष्ठ्वैश्वर्य्यप्रदानि (विरूपम्) विविधानि रूपाणि यस्मिँस्तम् (देवासः) विद्वांसः (चित्) अपि (मनसा) अन्तःकरणेन (सम्) (हि) खलु (जग्मुः) जानीयुः प्राप्नुयुर्वा (पनिष्ठम्) स्तोतुमर्हम् (जातम्) प्रसिद्धम् (तवसम्) बलकारकम् (दुवस्यन्) परिचरेयुः ॥१३॥
भावार्थः
मनुष्यैर्योऽग्निवाय्वप्सु पृथिव्यां शरीरौषध्यादिषु दृश्यादृश्यपदार्थेषु व्याप्तस्तं विज्ञाय तेन सर्वाणि कार्य्याणि साधनीयानि ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्या की प्रशंसा को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (देवासः) विद्वान् जन (मनसा) अन्तःकरण और अभ्यास से (चित्) भी जिस (अपाम्) प्राण वा (ओषधीनाम्) ओषधियों के बीच (दर्शतम्) देखने योग्य (विरूपम्) जिसमें विविध रूप विद्यमान उस (गर्भम्) मध्यव्यापी अग्नि को (सं, जग्मुः) अच्छे प्रकार जानें वा प्राप्त हों तथा जो (हि) ही (सुभगा) सुन्दर ऐश्वर्य्य के देनेवाले (वना) वन वा जङ्गलों को (जजान) उत्पन्न करता है जिस (जातम्) प्रसिद्ध (तवसम्) बल करनेवाले (पनिष्ठम्) स्तुति करने योग्य अग्नि को (दुवस्यन्) सेवन करें उस विद्युत् रूप अग्नि को तुम लोग यथावत् जानो ॥१३॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि जो अग्नि, वायु, जल और पृथिवी में तथा शरीर ओषधि आदि प्रत्यक्ष परोक्षभूत पदार्थों में व्याप्त, उसको जान उससे सब कार्य्यों को सिद्ध करें ॥१३॥
विषय
देवों का प्रभु से मेल
पदार्थ
[१] जो प्रभु (ओषधीनाम्) = ओषधियों के (सुभगा वना) = सौभाग्ययुक्त, सब ऐश्वर्यों से युक्त, अद्भुत रोगनिवारणादि गुणों से युक्त वनों को जजान उत्पन्न करता है, उस (अपां गर्भम्) = सब प्रजाओं के गर्भरूप सब प्रजाओं में निवास करनेवाले, (दर्शतम्) = दर्शनीय, (विरूपम्) = विशिष्टरूपवाले प्रभु को (देवासः) = देववृत्ति के व्यक्ति चित् निश्चय से मनसा मन द्वारा हि ही (संजग्मुः) = प्राप्त होते हैं। प्रभुदर्शन मन से होता है। देववृत्तिवाले व्यक्तियों का मन पवित्र होता है, अतः वे मन द्वारा प्रभु को प्राप्त होते हैं। इस मन की पवित्रता के लिये ही प्रभु ने इस वानस्पतिक जगत् को उत्पन्न किया है। ओषधियों-वनस्पतियों का प्रयोग मन को मलिन नहीं होने देता, मांस-भोजनादि से ही तो वह दूषित होता है। [२] ये देव उस परमात्मा का (दुवस्यन्) = पूजन करते हैं, जो कि सचमुच (पतिष्ठम्) = स्तुत्यतम हैं। (जातम्) = अधिक से अधिक निरतिशय विकासवाले हैं तथा (तवसम्) = अत्यन्त बढ़े हुए हैं व बलवान् हैं। प्रभु के उपासन से इन देवों का जीवन भी स्तुत्य, विकसित व शक्तिसम्पन्न बनता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ओषधियों के सुन्दर वनों को जन्म देते हैं। इनके प्रयोग से पवित्र मनवाले देव प्रभु से मेल प्राप्त करते हैं ।
विषय
राष्ट्र तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ
अग्नि या विद्युत् जिस प्रकार (ओषधीनां वना) ओषधि आदि नाना तरुलता विटपादि के वनों को (सुभगा) उत्तम ऐश्वर्य शोभा से युक्त कर देता है (देवासः) विद्वान् लोग (मनसा) ज्ञान के अभ्यास से ही उस (अपां गर्भं) जलों के बीच गर्भ के समान गुप्त रूप से विद्यमान, (दर्शतं) दर्शनीय, (विरूपं) विविध रूप या कान्ति से युक्त जानते हैं। उसी प्रकार जो वीर, विद्वान् पुरुष (सुभगा) उत्तम ऐश्वर्य से युक्त (ओषधीनां वना) शत्रु को संताप देने की शक्ति को धारण करने वाले वीर पुरुषों के (वना) जत्थे के जत्थे (जजान) उत्पन्न कर देता है (देवासः) विजय के इच्छुक लोग (मनसा) अपने चित्त से उसको ही (अपां गर्भं) विद्युत् के समान (अपां गर्भं) प्राप्त प्रजाओं को वश करनेहारा (दर्शतं) दर्शनीय, (विरूपम्) विशेष तेजस्वी, रूपवान् जान कर (सं जग्मुः) संगत होते, उससे मिल जाते हैं। और उसी को (पनिष्ठं) अग्नि के समान सबसे अधिक व्यवहारोपयोगी और स्तुत्य (जातं) गुणों में प्रसिद्ध और (तवसं) बड़े बलवान् की ही (दुवस्यन्) पूजा करते हैं। (२) अथवा—(वना) वरण करने वाली नवयुवति, (सुभगा) सौभाग्यवती होकर (अपां गर्भं) जलों के बीच विद्युत् के समान, प्राणों के बीच मुख्य, (दर्शतं) दर्शनीय, (विरूपं) विशेष रूपवान् भव्य पुत्र को (जजान) उत्पन्न करे । (देवासः चित् मनसा सं जग्मुः) जिसको विद्वान् पुरुष चित्त से या ज्ञान से संयुक्त करें । (स्तुत्यं) व्यवहारज्ञ, बलवान् का आदर करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गाथिनो विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ५, ९, ११,१२, १५, १७, १९, २० निचृत् त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १३, १४ त्रिष्टुप्। १०, २१ विराट् त्रिष्टुप्। २२ ज्योतिष्मती त्रिष्टुप्। ८, १६, २३ स्वराट् पङ्क्तिः। १८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ त्रयोविंशत्यर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो अग्नी, वायू, जल व पृथ्वी तसेच औषधी, शरीर इत्यादी प्रत्यक्ष व परोक्षभूत पदार्थात व्याप्त आहे त्याला माणसांनी जाणून सर्व कार्य सिद्ध करावे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The vital fire and light energy abiding in the waters and pranic vitality creates the woods of herbs and trees, and the clusters of wood such as arani generate this fire which is beautiful to see, full of wealth and power and versatile in form. Scholars of heat and light energy, conscientiously with their heart and soul, study it practically and comprehensively. It is highly valuable, manifest everywhere and a tremendous source of power.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of wisdom and knowledge.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! learned persons know the Agni (science of energy ) with their intelligence and practice. It is in the waters and plants in various forms and gives birth to the forests, the great wealth (through vegetables and fruits etc.). The mighty admirable and renowned Agni serves or is used for various purposes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know well and utilize that Agni (the energy) which is present in the air, waters, on earth, in the body, in plants, herbs and other visible and invisible objects. Having done this, they should accomplish all works with its proper use.
Foot Notes
(पनिष्ठम्)स्तोतुमर्हम्। = Admirable, praiseworthy. (दुवस्यन्) परिचरेयु:। = Serve, utilize properly from all sides.
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